Monday, 16 July 2018

स्वपाक का सनातन में स्थान

स्वपाक  और  सनातन  वैदिक परम्परा -
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स्वपाक न करने से क्या होता है ?  

शास्त्र कहते हैं कि  मृत्यु  विप्रों  को   मारती है ।

(अन्नदोषात् च  मृत्युर्विप्रान् जिघांसति-मनु० )

अब ये अंश  तो  पुस्तक से केवल पढ़ा गया , इसका  प्रायोगिक /व्यावहारिक स्वरूप कैसा होता है ? ये  बोध  पश्चिम नेपालस्थ विप्रकुलों मे    अनुभूत करना चाहिये  ।  स्वपाक न करने वाले  उन सनातनपरम्परागत   देवसंस्कृतिसुसंवाहक    विप्रों (छोटे छोटे बच्चों से   लेकर  वयोवृद्धों  पर्यन्त )  के लिये वे वे महान् भगवत्स्वरूप    देवता ही मृत्युरूप बन जाते हैं, इसलिये अनिष्टभय से स्वयं ही   उन विप्रकुलजातकों को  अनिष्टनिवारण व  स्वविप्रजीवनोन्नयन हेतु   स्वपाकविषयक नियमों का  परिपालन  करना  ही  पड़ता है ।

यद्यपि  कालप्रभाव से वहॉ भी  आज बहुत शैथिल्य आ चुका है , परन्तु  अनेकानेक  विशिष्ट व्यक्तियों /कुलपरम्पराओं में आज भी यथावत्  वे मनुस्मृतिप्रोक्त लक्षण   व्यावहारिक रूप में विद्यमान हैं ।

एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः - यहॉ पर  एतद्देशप्रसूतस्य पद  का तात्पर्य  तद्देशप्रसूतवंशपरम्परा से  है न कि   उस देशमात्र में वास करने वाले ब्राह्मणों  के लिये ।    ये तद्देशप्रसूत अनेकों वंशपरम्पराऐं  कालगतविलक्षणतावश्  भारत के अनेक स्थलों की  ही भॉति  पश्चिम नेपाल से लेकर उत्तराखण्ड  के अनेक स्थलों पर्यन्त में भी  विराजमान् हैं ।

जैसे  पवित्र उर्वरा भूमि में समुत्पन्ना एक कुसुमलता अपने उत्पादक  स्थल से  विकसित होकर  चारों ओर व्याप्त होती है ।

आजकल  हम  देखते  हैं  कि  स्वपाकविहीन  विप्र  भारतवर्ष में  सर्वत्र  पाए  जाते  हैं ,  जो खा  पी  कर   सुखपूर्वक  जीवनिर्वाह कर  रहे  हैं, कोई  भी     मृत्यु  के  द्वारा  मारा  नहीं  जा  रहा  क्या  कारण  है  ?

कारण  यही  है  कि  उनका   विप्रत्व  दूषित  हो  चुका  है  ,वे पहले ही    शूद्रत्व  को  प्राप्त  हो  चुके हैं!  स्पष्ट है कि वे तो  सान्वय (अपने वंश सहित ) पहले ही   ही  मारे  जा  चुके  हैं !

।। जय श्री राम ।।

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