स्वपाक और सनातन वैदिक परम्परा -
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स्वपाक न करने से क्या होता है ?
शास्त्र कहते हैं कि मृत्यु विप्रों को मारती है ।
(अन्नदोषात् च मृत्युर्विप्रान् जिघांसति-मनु० )
अब ये अंश तो पुस्तक से केवल पढ़ा गया , इसका प्रायोगिक /व्यावहारिक स्वरूप कैसा होता है ? ये बोध पश्चिम नेपालस्थ विप्रकुलों मे अनुभूत करना चाहिये । स्वपाक न करने वाले उन सनातनपरम्परागत देवसंस्कृतिसुसंवाहक विप्रों (छोटे छोटे बच्चों से लेकर वयोवृद्धों पर्यन्त ) के लिये वे वे महान् भगवत्स्वरूप देवता ही मृत्युरूप बन जाते हैं, इसलिये अनिष्टभय से स्वयं ही उन विप्रकुलजातकों को अनिष्टनिवारण व स्वविप्रजीवनोन्नयन हेतु स्वपाकविषयक नियमों का परिपालन करना ही पड़ता है ।
यद्यपि कालप्रभाव से वहॉ भी आज बहुत शैथिल्य आ चुका है , परन्तु अनेकानेक विशिष्ट व्यक्तियों /कुलपरम्पराओं में आज भी यथावत् वे मनुस्मृतिप्रोक्त लक्षण व्यावहारिक रूप में विद्यमान हैं ।
एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः - यहॉ पर एतद्देशप्रसूतस्य पद का तात्पर्य तद्देशप्रसूतवंशपरम्परा से है न कि उस देशमात्र में वास करने वाले ब्राह्मणों के लिये । ये तद्देशप्रसूत अनेकों वंशपरम्पराऐं कालगतविलक्षणतावश् भारत के अनेक स्थलों की ही भॉति पश्चिम नेपाल से लेकर उत्तराखण्ड के अनेक स्थलों पर्यन्त में भी विराजमान् हैं ।
जैसे पवित्र उर्वरा भूमि में समुत्पन्ना एक कुसुमलता अपने उत्पादक स्थल से विकसित होकर चारों ओर व्याप्त होती है ।
आजकल हम देखते हैं कि स्वपाकविहीन विप्र भारतवर्ष में सर्वत्र पाए जाते हैं , जो खा पी कर सुखपूर्वक जीवनिर्वाह कर रहे हैं, कोई भी मृत्यु के द्वारा मारा नहीं जा रहा क्या कारण है ?
कारण यही है कि उनका विप्रत्व दूषित हो चुका है ,वे पहले ही शूद्रत्व को प्राप्त हो चुके हैं! स्पष्ट है कि वे तो सान्वय (अपने वंश सहित ) पहले ही ही मारे जा चुके हैं !
।। जय श्री राम ।।
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