भगवान् के चक्र , शङ्ख ये सब तो जड़ नहीं हैं , अपितु शरीर धारण करने वाले हैं ।
और जो चेतना वाले होते हैं उनके अनेक जन्म लीला पूर्वक होते रहते हैं , विशेषत: दैवीय अंश l
वस्तुतः यही सिद्धान्त निरुक्त के दैवतकाण्ड में भी प्रतिपादित है ।वस्तुतः देवता के आयुध , वाहन और अन्य अलंकरणादि भी देवता ही हैं ।देवता महाभाग्यवान् होता है। उसका आत्मा ही रथ है। आत्मा ही उसका अस्त्र-शस्त्र और अलंकार होता है । माहाभाग्याद्देवताया एक आत्मा बहुधा स्तूयते ।अनन्तब्रह्माण्डनायक परमात्मा श्रीमन्नारायण परब्रह्म विष्णु भगवान् का प्रादुर्भाव होता है तो वहाँ मूर्तिमान होकर शंख, चक्र, गदा, पद्यमहापार्षद के रूप में विराजते हैं। जैसे जय-विजय आदि पार्षद हैं, वैसे ही शंख, चक्र, गदा और पद्म महापार्षद के रूप में विराजमान होते हैं।
कौस्तुभमणि के सन्दर्भ में कहा गया है कि जल में प्रतिबिम्ब की भॉति प्राणियों के देह में विद्यमान् इस आत्मचैतन्य को ही भगवान् विष्णु ने कौस्तुभ मणि के रूप में धारण किया है ।
मन्यमानाः स्वपार्श्वस्थान् स्वान् स्वान् दारान् व्रजौकसः ।ये श्रीमद्भागवतम् के दशम स्कन्ध , तैंतीसवें अध्याय का वचन है ।
जिस समय कंस के दरबार में एकादशवर्षीय श्रीभगवान् ने प्रवेश किया, एक ही श्रीकृष्ण को मल्लों ने वज्र के समान् , नागरिकों ने विलक्षण नरश्रेष्ठ , स्त्रियों ने मूर्तिमान् कामदेव , गोपों ने निजजन , दष्ट राजाओं ने शासक , वसुदेव देवकी ने पुत्र, कंस ने मृत्यु , विद्वानों ने विराट् पुरुष, योगियों ने परमतत्त्व व यादवों ने परम देवता के रूप में दर्शन किया ।
इसी प्रकार की स्थिति , उस समय भी थी , जब भगवान् राम धनुष उठाने के लिये महाराज जनक के दरबार में उपस्थित हुए थे ।
वस्तुतः आप विचार कीजिये कि संसार का कौन सा ऐसा प्राणी नहीं है, जिसका विग्रह(देह)अन्यों से विलक्षण व अद्भुत नहीं है ? कैमुतिकन्याय से देवविग्रह का तो कहना ही क्या तब ।(किम् उत - और क्या ! // इसका तो कहना ही क्या !//इस रीति से ।)
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः- कितना गहन सूत्र है ।
मनुष्य की श्रद्धा ही देवता का अन्न है, देवता का भाव ही मनुष्य का अन्न ।
जय श्री राम
साभार श्री रत्नेशतिवारी और श्री प्रज्ञान शर्मा
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