#प्रश्न - सन्त के किये गये आचरण को हमें अपने जीवन में उतारना चाहिये या नहीं ?
#उत्तर - देखो , दो चीजें होती हैं - एक तो है अनुकरण , दूसरा है अनुसरण । अनुकरण का अर्थ होता है किसी के किये गये कार्यों की नकल करना और अनुसरण का अभिप्राय होता है कि उनके दर्शाये मार्ग अथवा उनकी बतायी शिक्षा का पालन करना ।
सन्तों के आचरण का #अनुसरण करना चाहिये न कि अनुकरण । तैत्तिरीय श्रुति में इस सन्दर्भ में बहुत सुन्दर वचन है , जहॉ आचार्य अपने अन्तेवासी से कहता है कि , हे शिष्य जो हमारे उत्तम चरित्र हैं , केवल उनकी ही तू उपासना करना , उससे अन्य की नहीं -
यान्यस्माकं सुचरितानि तानि त्वयोपास्यानि नो इतराणि ।।
(तैत्तिरीय उपनिषद्, शिक्षावल्ली, अनुवाक ११, मन्त्र ०२)
इसका प्रधान कारण ये है कि सन्त और हमारी स्थिति में अन्तर होता है । निस्त्रैगुण्य अवस्था में अवस्थित महात्माजन शास्त्रीय विधि-निषेधों से परे होते हैं । [निस्त्रैगुण्ये पथि विचरतः को विधिः को निषेधः ] गुरुजी पुस्तक नहीं पढ़ते , ये सोचकर छात्र भी पुस्तक नहीं पढ़ेगा , तो उस छात्र की क्या दशा होगी , विचार कीजिये ।
उदाहरण हेतु, - श्री आद्य शंकराचार्य से हम समझ सकते हैं , एक प्रेतात्मक (अतः अपवित्र ) देह का आश्रय लेकर आचार्य उस शरीर से कामकलाओं का अनुभव करते हैं , इसका अनुकरण एक सामान्य संन्यासी को विहित नहीं है, वह करेगा तो पाप को प्राप्त होकर भ्रष्ट हो जायेगा ।
इसी प्रकार, श्री गोरखनाथ जी के सम्बन्ध में एक बहुत सुन्दर आख्यायिका सुनी जाती है -
एक बार गुरु गोरखनाथ जी भिक्षाटन हेतु निकले , तो उनके पीछे -पीछे कुछ शिष्य भी चले आ रहे थे । घटना यह घटती है कि भिक्षाटन करते हुए श्री गोरखनाथ महाराज एक शराब व्यापारी के पास पहुँचते हैं और अलख निरञ्जन बोलकर भिक्षा पात्र आगे करते हैं , तो व्यापारी शराब ही उनके पात्र में डाल देता है, किन्तु श्रीमहाराज अलख निरञ्जन बोलकर वही पी जाते हैं । ऐसे में पीछ पीछे आ रहे चेलों की तो मानो पौ बारह हो जाती है , जब गुरुजी शराब पी गये तो चेलों को फिर क्या दोष ? हमें भी शराब पीना ही धर्म है , ये सोचकर सब एक एक कर उस शराब वालो के पास जाकर शराब मॉगकर पीने लगते हैं ।
अन्तर्यामी श्री गोरखनाथ जी महाराज चेलों का यह सब कृत्य जान लेते हैं , तब वे पास ही एक अन्य प्रकार के व्यापारी के पास पहुंचते हैं और अलख जगाते हैं, जो उस समय शीशा पिघला रहा होता है , तो महाराज की अलख सुनकर व्यापारी पिघला गर्म शीशा ही उनके पात्र में डाल देता है , परन्तु महाराज बिना किसी भी प्रकार से विचलित हुए अलख निरंजन बोलकर वही पिघला हुई शीशा ही प्रसन्नतापूर्वक पान कर जाते हैं ।
अब तो पीछे -पीछे अनुकरण कर रहे चेलों के तो प्राणों पर बन आती है , और सभी कातर होकर श्री गोरखनाथ जी महाराज की शरण आने में ही अपनी भलाई दिखती है । तब महाराज कहते हैं कि मैं तो सामर्थ्यवान् हूं , शराब हो या शीशा हो , सब पचाने की मुझमें सामर्थ्य हाई , भौतिक पदार्थों के गुण दोष मुझ निर्लिप्त को प्रभावित नहीं कर सकते किन्तु तुम्हारी यह स्थिति नहीं , तुम्हें पदार्थ जन्य गुण दोषों का प्रभाव बांधेगा , अतः तुम्हें अपने हिताहित को स्वयं विचार कर कार्य करना चाहिए ।
शिष्यों ने भिक्षा तो न ली , पर गुरु से यह अनमोल शिक्षा अवश्य ले ली , कि गुरु का अनुसरण करना ही धर्म होता है और फिर चेलों ने अपने दोषों का प्रायश्चित्त किया ।
सन्तों का मर्म -
-----------------
सन्तजन सामर्थ्यवान् होते हैं , सांसारिक गुण-दोषों से अलिप्त होते हैं , कर्मफल के चक्रव्यूह से मुक्त हो कर जीवन्मुक्त हो चुके होते हैं , वे कब, कहॉ, क्या , क्यों और कैसे करेंगे , उनकी वाञ्छा, क्रिया और मुद्रा को बड़े - बड़े विशेषज्ञ और देवता भी नहीं जान पाते ।
जैसे सूर्य , अग्नि एवं गंगा को धरती के पंक (कीचड़) , पदार्थ और पाप का प्रभाव नहीं पड़ता , इसी प्रकार सामर्थ्यवान् सिद्ध सन्तों को संसार के नाम, रूप, गुण, धर्म एवं संस्कार प्रभावित नहीं करते ।
समरथ कहुँ नहिं दोषु गोसाई। रबि पावक सुरसरि की नाई।।
[श्रीरामचरितमानस १/६८/०८ ]
परमसिद्धों की स्थिति तर्कों से परे होती है , उनकी बुद्धि कहीं भी लिप्त नहीं होती एवं उनमें अहंकृत भाव भी नहीं होता, यही कारण है कि इस स्थिति का महात्मा यदि तीनों लोकों का हत्यारा भी हो तो भी वह किसी का हत्यारा नहीं होता -
यस्य नाहङ्कृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते ।
हत्वाsपि स इमांल्लोकान् न हन्ति न निबद्ध्यते ।।
[श्रीमद्भगवद्गीता १८/१७ ]
इसलिये संसारियों का यह धर्म है कि उन्हें विधि-निषेध प्रधान शास्त्रों का अनुशीलन करते हुए ही अपने अध्यात्म पथ पर आगे बढ़ना चाहिए , इसी मार्ग पर चलने से ही इस जन्म में या जन्मान्तर में एक दिन अवश्य उन्हें भी अपना आध्यात्मिक लक्ष्य प्राप्त हो जायेगा ।
।। जय श्री राम ।।
No comments:
Post a Comment