Friday, 9 March 2018

आपत्कालीन वैश्यकर्म  (वाणिज्य) में ब्राह्मण के लिए विशेष वैदिक शास्त्रीय निषेध

आपत्काल में ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा शूद्र वर्ण के व्यक्ति को वाणिज्य (व्यापार) कर्म से वृत्ति करने की अनुमति वैदिक शास्त्र ने दी है । उस अवस्था में ब्राह्मण को दूध, दूध के विकार, तेल, घी आदि कतिपय वस्तु विक्री करने का निषेध किया गया है । उन में भी कतिपय वस्तु के विक्री को अत्यन्त निषेध किया गया है । उनका विवरण प्राचीनतम गौतमधर्मसूत्र में इस प्रकार पाया जाता है——
प्रथम प्रश्न सप्तम अध्याय-
तस्याऽपण्यम् ।।८।।

हरदत्तकृत मिताक्षरा वृत्ति— तस्य वैश्यवृत्तेर् ब्राह्मणस्याऽपण्यमविक्रेयं वक्ष्यते । तस्येति वचनात् क्षत्त्रि¬यस्य वैश्यवृत्त्युपजीविनो वक्ष्यमाणमपण्यं न भवति ।।८।।

हिन्दी— आपत्काल में वैश्यकर्म से जीवननिर्वाह करनेवाले ब्राह्मण को आगे निर्दिष्ट वस्तु को नहीं बेचना चाहिए ।

विशेष— वृत्तिकार के अनुसार तस्य कहने के कारण क्षत्त्रिय के लिए यह निषेध लागू नहीं होगा ।।८।।

गन्ध–रस–कृतान्न–तिल–शाण–क्षौमाऽऽजिनानि ।।९।।

हरदत्तकृत मिताक्षरा वृत्ति— गन्धश्चन्दनादिः । रसस् तैल–घृत–लवण–गुडादिः । कृतान्नं मोदकापूपादि । तिलाः प्रसिद्धाः । शाणं शणविकारो गोण्यादिः । क्षौमं क्षुमोद्भूतम्, पट्ट¬वस्त्र¬विशेषः । अजिनं चर्म कटादि । एतान्यविक्रेयाणि । शाण–क्षौमयोर् विकार¬निषेधात् प्रकृते¬रप्रतिषेधः ।।९।।

हिन्दी— गन्ध  (चन्दन आदि), रस   तेल, घी, नमक, गुड इत्यादि), बना हुआ भोजन  लड्डू, रोटी इत्यादि), तिल, सन से बने हुए पदार्थ, क्षुमा से बने वस्त्र, मृगादिचर्म, ये सब  आपत्काल में वैश्यकर्म से जीविका करनेवाले ब्राह्मण के लिए अविक्रेय होते हैं ।

विशेष— वृत्तिकार ने सन और क्षुमा से निर्मित वस्तु का निषेध होने से प्रकृति का   अविकार का (सन का और क्षुमा का) विक्रेय अनिषिद्ध होने की बात बताई है ।।९।।

रक्तनिर्णिक्ते वाससी ।।१०।।

रक्तं लाक्षादिना विकृतम् । निर्णिक्तं रजकादिना धौतम् । एवंभूते अपि वाससी अपण्ये ।।१०।।

हिन्दी— लाक्षा आदि रङ्गों से रङ्गे हुए और धोबी द्वारा धोए गए वस्त्र भी  (आपत्काल में वैश्यकर्म से जीवननिर्वाह करनेवाले ब्राह्मण के लिए) अविक्रेय होते हैं ।।१०।।

क्षीरं सविकारम् ।।११।।

दध्यादिभिर् विकारैः सह क्षीरमपण्यम् ।।११।।

हिन्दी— दूध और दूध से बने दही, खुआ, मलाई इत्यादि भी  आपत्काल में वैश्यकर्म से जीवननिर्वाह करनेवाले ब्राह्मण के लिए अविक्रेय होता है ।।११।।

मूल–फल–पुष्पौषध–मधु–मांस–तृणोदका–ऽपथ्यानि ।।१२।।

मूलमाद्र्घकहरिद्घादि । फलं पूगादि । पुष्पं चम्पकादि । औषधं पिप्पल्यादि । मधु माक्षिकम् । मांसतृणोदकानि प्रसिद्धानि । अपथ्यं विषादि । एतान्यपण्यानि । रसशब्देन पूर्वमेव निषिद्धेऽपि पुनर् मधुग्रहणं “सर्वथा वृत्तिरशक्तौ”   (गौतम. १।७।२२) इत्यादिपक्षे निषेधार्थम् ।।१२।।

हिन्दी— मूल   हल्दी इत्यादि), फल   क्रेमुकादि), पूmल   दमनकादि), औषध, मधु, मांस, तृण, जल और अपथ्य पदार्थ  (विषादि) भी  आपत्काल में वैश्यकर्म से जीविका करनेवाले ब्राह्मण के लिए अविक्रेय हैं ।

विशेष— वृत्तिकार ने रस कहने से ही गतार्थ मधु का फिर ग्रहण अशक्ति में सर्वथा वृत्ति हो सकने की अवस्था में भी निषेध के लिए माना है ।।१२।।

पशवश्च हिंसासंयोगे ।।१३।।

पशवोऽजादयः । हिंसासंयोगे सौनिकादिभ्यो हिंसार्थे न विक्रेयाः ।।१३।।

हिन्दी— पशुओं का भी हिंसा से जुडी हुई अवस्था में बिक्री न करे ।।१३।।

पुरुष–वशा–कुमारी–वेहतश्च नित्यम् ।।१४।।

पुरुषा दासादयः । वशा वन्ध्या गौः । कमासरी वत्सतरी । वेहद् गर्भो¬प¬घा¬ति¬नी । एते नित्यमपण्याः । नित्यमित्युक्तत्वाद् धिंसासंयोगादन्यत्राऽपि निषेधः । अपर आह— इह नित्य¬¬ग्रहणात् पूर्वेषु तिलादिष्वनित्यः प्रतिषेध इति । तत्र वसिष्ठः— “कामं वा स्वयमुत्पाद्य तिलान् विक्रीणीरन्” इति  ¬¬ (वा.ध.सू. २।३१) ।।१४।।

हिन्दी— पुरुष  दासादि), वन्ध्या गाय, बछिया तथा वेहत्  सदा गर्भ गिरा देनेवाली गाय) का विक्रेय भी  आपत्काल में वैश्यकर्म से जीविका करनेवाले ब्राह्मण के लिए नित्य ही वर्जित है ।।१४।।

भूमि–व्रीहि–यवा–ऽजा–ऽव्यश्व–ऋषभ–धेन्वनडुहश्चैके ।।१५।।

भूमिर् गृहम् । व्रीहियवाऽजाऽव्यश्वाः प्रसिद्धाः । ऋषभः सेचनसमर्थः पुङ्गवः । धेनुः सकृत्प्रसूता । अनड्वाननोवहनयोग्यो बलीवर्दः । एते चाऽपण्या इत्येके मन्यन्ते । एक¬शब्दाद् वयं त्वनुजानीमः । अत्राऽप्यजाविग्रहणं हिंसा¬संयोग¬विषयपरम् ।।१५।।

हिन्दी—भूमि, धान, जौ, बकरी, भेड, घोडा, ऋषभ  (सेचनसमर्थ साँड), धेनु  (दोग्ध्री गाय) और बैल का विक्रेय भी  आपत्काल में वैश्यकर्म से जीविका करनेवाले ब्राह्मण को नहीं करना चाहिए ऐसा कतिपय स्मृतिकारों का मत है ।

विशेष— मस्करिभाष्य में निघण्टु का प्रमाण देकर भूमि से घर का ग्रहण होने की बात कही गई है ।।१५।।

निमयस् तु ।।१६।।

निमयो विनिमयः परिवर्तनं तुशब्देन निमयोऽनुज्ञायत इति ।।१६।।

हिन्दी— किन्तु उपर्युक्त विक्रेय के लिए निषिद्ध पदार्थों का भी विनिमय  अदल बदल) करना तो  आपत्काल में वैश्यकर्म से जीविका करनेवाले ब्राह्मण के लिए अनुमत है ।

विशेष— आनन्दाश्रम  (पुणे) से प्रकाशित गणेशशास्त्री गोखलेद्वारा सम्पादित मिताक्षरा व्याख्या से युक्त गौतमधर्मसूत्र की पुस्तक में और चौखम्बा संस्कृत संस्थान  वाराणसी) से प्रकाशित उमेशचन्द्र पाण्डेयद्वारा सम्पादित मिताक्षरा व्याख्या और हिन्दी अनुवाद से युक्त पुस्तक में इस सूत्र का पाठ “नियमस्तु” है । मिताक्षरा व्याख्या में “नियमो विनिमयः परिवर्तनम्” मुद्रित है । मोतीलाल बनारसी¬दास¬द्वारा प्रकाशित अमेरिकन लेखक प्याट्रिक ओलिविलद्वारा सम्पादित अङ्ग्रेजी अनुवाद युक्त संस्करण में भी “नियमस्तु” पाठ ही छपा है । किन्तु काष्ठमण्डपस्थ हस्तलिखितग्रन्थागार राष्ट्रिय अभिलेखालय में स्थित तीन हस्तलेखों में से तीसरे हस्तलेख में “विनिमयस्तु” पाठ पाया जाता है । अन्य दो हस्तलेखों में यद्यपि मूल सूत्र में भ्रमवश “नियमस्तु” लिखा गया मिलता है, तथापि इसी प्रकरण
के अन्य सूत्रों की मिताक्षरा वृत्ति में बहूत स्थलों पर “निमय” और “विनिमय” लिखा गया मिलता है । एक वस्तु के बदले दूसरी वस्तु देने के अर्थ में संस्कृत भाषा में वि उपसर्ग से युक्त और वि उपसर्ग से रहित भी “निमय” शब्द प्रयुक्त होता है । अतः “निमयस्तु” अथवा “विनिमयस्तु” पाठ ही वास्तविक पाठ है ऐसा अवतग होता है । मस्करिभाष्य युक्त मैसुरु से प्रकाशित संस्करण में सूत्र और व्याख्या दोनों में “निमय” पाठ पाया जाता है ।।१६।।

तत्र निमयमाह—

रसानां रसैः ।।१७।।

तैलघृतगुडादीनां रसैरेव निमयः कार्यः ।  तद् यथा— “तैलं दत्त्वा घृतं ग्राह्यमिति रसैः समतो हीनतो वा” इति वसिष्ठः ।।१७।।

हिन्दी— विनिमय करते समय रसों  तेल, घी इत्यादि पदार्थों) का विनिमय रस  गुड इत्यादि पदार्थ) से ही करना चाहिए ।।१७।।

पशूनां च ।।१८।।

पशूनां चतुष्पदां पशुभिर् निमयः कार्यः ।।१८।।

हिन्दी— पशुओं का  (चौपायों का) विनिमय भी इसी प्रकार (पशुओं से ही) करना चाहिए ।

विशेष— मस्करिभाष्य में यह नियम जिन पशुओं का विक्रय निषिद्ध है, उन्हीं पशुओं के विषय में लागू होने की बात व्याख्यात है ।।१८।।

न लवण–कृतान्नयोः ।।१९।।

लवणस्य कृतान्नस्य च निमयेऽपि प्रतिषेधः ।।१९।।

हिन्दी— नमक और पके हुए अन्न का विनिमय  (अदलाबदली) नहीं करना चाहिए ।

विशेष— “रसानां रसैः”  (गौतम. १।७।१७) से नमक का भी विनिमय प्राप्त होता है, उसी का यहाँ निषेध किया गया है ।।१९।।

तिलानां च ।।२०।।

तिलानां च विनिमयो न कार्यः । लवण–कृतान्न–तिलानां द्रव्यान्तरस्वीकारेण प्रदानं निषिद्धम् । समानद्घव्यविषये प्रवत्त्यसंभवात् ।।२०।।

हिन्दी— तिल का भी विनिमय  (अदलाबदली) नहीं करना चाहिए ।।।२०।।

समेनाऽऽमेन तु पक्वस्य सम्प्रत्यर्थे ।।२१।।

समेन समपरिमाणेनाऽऽमेन तण्डुलेन सम्प्रत्यर्थे तादात्विकोपयोगार्थे पक्वान्न¬स्य निमयः कार्यः । मनुस् तु “तिला धान्येन तत्समाः” इति  (१०।९४) समेन धान्येन तिलानां निमयमनुजानीते । अपण्यमिति विक्रेयनिषेधात् सर्वत्र यावदुपयोगक्रेये निषेधो न स्यात् । रसादीनामपि निमयशब्देन प्रदानमेव विवक्षितम् । अन्यथा त्वविद्यमानरसान्तरादिद्रव्यस्य प्रवृत्त्यसम्भवात् ।।२१।।

हिन्दी— समान परिमाण के विना पकाये हुए अन्न  चावल) से पके हुए अन्न का तात्कालिक उपयोग के लिए विनिमय किया जा सकता है ।।२१।।

इस प्रकार ब्राह्मण के लिए कतिपय वस्तुओं की बिक्री का निषेध वैदिक शास्त्रों में की गई है । इस पर ब्राह्मण समुदाय का ध्यान जाना आवश्यक है ।

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