Saturday, 10 March 2018

श्राद्ध कर्म पर तथाकथित “ऋषि” स्वामी दयानंद का पाखंड

श्राद्ध कर्म पर तथाकथित “ऋषि” स्वामी दयानंद का पाखंड

चतुर्थ सम्मुलाश में स्वामी जी लिखते है

पितृयज्ञ के दो भेद हैं एक श्राद्ध और दूसरा तर्पण। श्राद्ध अर्थात् ‘श्रत्’ सत्य का नाम है ‘श्रत्सत्यं दधाति यया क्रियया सा श्रद्धा श्रद्धया यत्क्रियते तच्छ्राद्धम्’ जिस क्रिया से सत्य का ग्रहण किया जाय उस को श्रद्धा और जो श्रद्धा से कर्म किया जाय उसका नाम श्राद्ध है।

इसका अर्थ है उन्हें पता है की श्राद्ध का क्या महत्व है पर अपनी मुर्खता या श्राद्ध के महत्व को कम करने के लिए वे आगे लिखते है

तृप्यन्ति तर्पयन्ति येन पितृन् तत्तर्पणम्’ जिस-जिस कर्म से तृप्त अर्थात् विद्यमान माता पितादि पितर प्रसन्न हों और प्रसन्न किये जायें उस का नाम तर्पण है। परन्तु यह जीवितों के लिये है मृतकों के लिये नहीं।

अब कोई इन तथाकथित ऋषि से पूछे की पितर किसे कहते है, केवल जीवित माता पिता या मृत माता पिता, दादा दादी और सगे सम्बन्धी,

चूँकि स्वामी जी को पता था की वेदों में कई स्थानों पर श्राद्ध का वर्णन है पर उसे वे अनदेखा करके श्राद्ध को केवल जीवित पितरों के लिए बता देते है 
तर्पण के लिए वे शतपथ ब्राह्मण का उदाहरण भी देते है पर कदाचित वे सत्य को छुपाना चाहते थे इसलिए उन्होंने वहां पर पितर शब्द का अर्थ परमात्मा बता दिया

जबकि येन पितृन् तत्तर्पणम् में वे पितर शब्द का अर्थ माता पिता आदि बताते है, अब इसे मुर्खता कहा जाए या अनभिज्ञता या अज्ञान ये तो तथाकथित ऋषि स्वामी जी ही जाने,

चूँकि स्वामी जी ने ऋग्वेद के दसवे मंडल के एक मन्त्र इदं पितृभ्यो नमो अस्त्वद्य ये पूर्वासो य उपरास ईयुः ये पार्थिवे रजस्या निषत्ता ये वा नूनं सुवृजनासु विक्षु पर कभी अपने विचार नहीं रखे जिसमे अलग अलग लोकों में निवास कर रहे पितरो को प्रणाम किया गया है

यहाँ तक की एक अन्य मन्त्र
आहं पितृन् त्सुविदत्राँ अवित्सि नपातं च विक्रमणं च विष्णोः
बर्हिषदो ये स्वधया सुतस्य भजन्त पित्वस्त इहागमिष्ठाः 
इस पर भी स्वामी जी की कुदृष्टि नहीं पड़ी, या उन्होंने इसे विक्षिप्त बता कर साइड कर दिया

उसी प्रकार 
बर्हिषदः पितर ऊत्य१र्वागिमा वो हव्या चकृमा जुषध्वम् ।
त आ गतावसा शंतमेनाऽथा नः शं योररपो दधात।।
आदि मंत्रो से पितरो को स्थान देने की बात कही गयी है और उनसे प्रार्थना की गयी है की वे हमारा कल्याण करे

स्वामी जी भूल गए की महाभारत में पितामह भीष्म ने पिण्डदान कुश पर रख कर अपने पिता का श्राद्ध किया था, शांति पर्व और अनुशासन पर्व में कई बार श्राद्ध के महत्व को बताया गया है

स्वामी जी ने मनुस्मृति के अध्याय 3 के श्लोक 254 पर भी अपनी दृष्टिपात नहीं की, ऋग्वेद के तीसरे मंडल 3 के सूक्त 55 में श्राद्ध कर्म का महत्व बताया गया है

पुराणों में तो इसका वर्णन है पर चूँकि आर्य समाजी केवल हिन्दू देवताओं के विरुद्ध विष वामन के लिए ही इसका प्रयोग करते है तो इसलिए पुराणो के प्रमाण को विक्षिप्त ही समझा जाए

इसके अतिरिक्त तैत्तिरीय ब्राह्मण और शतपथ ब्राह्मण में भी पितृपक्ष और श्राद्ध का महत्व बताया गया है

गीता के अध्याय एक में ही अर्जुन ने कृष्ण जी से संवाद में श्राद्ध न करने होने वाले दुष्प्रभाव का वर्णन किया है

यदि किसी को और प्रमाण चाहिए तो श्राद्ध पक्ष पर और प्रमाण भी दे द्जिये जायेंगे, याद रहे, आपने अपने पितरों का तर्पण नहीं किया तो ये आपकी मुर्खता ही नहीं, पापकर्म है

अब तथाकथित ऋषि के भक्त कृपया अपने अज्ञान और गालिगलोच के द्वारा इस पोस्ट की शोभा बढाए और बताये की वे असली आर्य समाजी है जो गाली देने में किसी से पीछे नहीं है ।

।। जय श्री राम ।।

No comments:

Post a Comment

पूजा आदि में सिर नहीं ढंका चाहिए

शास्त्र प्रमाण:- उष्णीषो कञ्चुकी चात्र मुक्तकेशी गलावृतः ।  प्रलपन् कम्पनश्चैव तत्कृतो निष्फलो जपः ॥ अर्थात् - पगड़ी पहनकर, कुर्ता पहनकर, नग...