Monday, 5 March 2018

ब्राह्मणेत्तर को कन्यादान निषेध

पूर्वपक्ष - रामचरितमानस में उल्लेख है कि जनक ने कन्यादान किया |

कन्यादानु नृपभूषन कियो | अत: कन्यादान क्षत्रियों के लिए भी है | तद्दोष शमनार्थ गोदान उचित है |

उत्तरपक्ष :- सजल से दान किया यह तो नहीं कहा?  कन्या सौंपदी "दान" के अर्थ में सौंपना भीतो होता हैं  "दीयते इति दानं  ||

पहले दान शब्द की परिभाषा  जानना चाहिये |

परसत्त्वापत्तिफलकस्स्वत्वत्यागो नाम दानम् ।।

परकीय स्वत्वोत्पत्ति जनक स्वकीय स्वत्वत्याग का नाम दान है ।

अर्थात् जिस त्याग से अपना स्वत्व निवृत्त हो जाता है और दूसरे का स्वत्व उत्पन्न हो जाता है , उस त्याग का का नाम होता है- दान ।

और यदि अपना स्वत्व निवृत्त नहीं हुआ तो उसे दान नहीं कहेंगे अपितु कहेंगे उत्सर्ग ।
जैसे आपने एक तालाब बनाया समाज के लिये , तो ये दान नहीं हुआ , अपितु हुआ उत्सर्ग । इसे कहोगे  तडागोत्सर्ग |

और इसी प्रकार  एक कोटि और होती है |

जब अपना स्वत्व तो निवृत्त हो गया हो पर दूसरे किसी का स्वत्व उत्पन्न ना हो | तो वो कहलायेगा प्रक्षेप । जैसे किसी अरण्य में त्याग |

कर्मणा यमभिप्रैति स सम्प्रदानम्

जैसे देवदत्ताय धनं प्रयच्छति |

एक होता है दान , दूसरा प्रतिग्रह |
इसलिये दान देने में तो क्षत्रिय का भी ब्राह्मण की ही भॉति  अधिकार है , किन्तु प्रतिग्रह में ब्राह्मण का ही अधिकार होता है | राजा जनक ने सीता के माध्यम से  अपने स्वत्व की निवृत्ति पूर्वक राम की स्वत्वोत्पत्ति  की,
उसमें तो उनका अधिकार है ही । ब्राह्मण को दान करना व क्षत्रियको दान करना दोनो में अंतर है  जैसे आप एक भूखे को रोटी दे रहे हो , वो भी तो दान ही है | गीता में तीन प्रकार के दानकी चर्चा है न १७ अध्याय में वहॉ पर भगवान् ने ब्राह्मणे च नहीं कहा पात्रे च कहा - देशे काले च पात्रे च  , मनु ने दानदेना क्षत्रिय का स्वधर्म कहा है | इसलिये यहॉ कन्यादान काअर्थ कन्या प्रदान ही समझना चाहिए | प्रतिग्रह ब्राह्मण का धर्म है अन्य का नहीं ऐसा क्यों कहा ? जबकि जो दान लेरहा है वह प्रतिग्रह ही तो है | इसलिये क्योंकि सृष्टि का प्रत्येक पदार्थ वस्तुतः  ब्राह्मण ही का है ! दान लेता तो हरेक वर्ण है पर वो लेता ब्राह्मण का ही है ! इसलिये दान लेना ब्राह्मण का धर्म है - धारणाद्धर्म इत्याहुः ।।  धारण करने का अधिकारी ब्राह्मण ही था , वही है , वही रहेगा सदा | ग्रहण कोई करे , वो बात और है ।सारा संसार ब्राह्मण का ही ले रहा है , ब्राह्मण का ही दे रहा है ।   पुत्र के पास पिता का ही तो होता  है सब  । उसी की सम्पत्ति से धर्मकर्म करता है । बाहर से कमा के भी लाता है तो पिता का ही अधिकार होता है उस पर |  भवति भिक्षां देहि कह रे लाया और ला के गुरु (पिता) से कहा ,  हे गुरु ! ये भिक्षा मैंने पाया  ! आजकल के बच्चे तुम कौन ! कहते हैं पर अपने यहॉ भिक्षा वाली सोच है । जो भी बाहर से  कमाया सब गुरु का है । क्षत्रियों में अपना गोत्र नहीं होता वो ब्राह्मण के गोत्र से ही गोत्रवान् होते हैं । गो शब्दअर्थात् गाय,  उपलक्षण हुआ   ब्राह्मण का । त्र अर्थात् रक्षा गौतम गोत्र है , अर्थात् गौतम ऋषि से रक्षित है  और उनकी रक्षा करता है ।

आसुरादि विवाहो में कन्यादान नहीं हैं -- चार विवाहो पूर्व के - उसमें ब्राह्मण ही अधिकारी हैं तो --

विवाहहोम  से पूर्व के कन्यादान पर्यन्त के कर्म क्षत्रियादि में नहीं होगे ---
मधुपर्क विचार भी -- इतरों के लिए विवाह में निकल गया
मधुपर्क -- में जो छह व्यक्ति को मधुपर्क प्रदान करें उसमें वर ब्राह्मण ही हैं,,, स्नातक कोई भी द्विज हो सकता हैं, ऋत्विज ब्राह्मण हैं, आचार्य भी ब्राह्मण हैं, प्रिय - उत्कृष्टजाति.. समानजाति वा सखा
राजा - धर्मशास्त्रानुसार दण्डपूर्वकं परिपालन कर्ता,
जो विधान शास्त्र की दृष्टि से अन्येतरों के लिए हैं ही नहीं उसमें -- मधुपर्क की आवश्यकता ही क्या हैं ?
विवाह में कन्यादान के लक्षण वर्णानुसार भिन्न हैं तद्वद्वद्विधान भिन्न --

और विवाह होम से चतुर्थी कर्म तक के कर्मसम्पादन के कारण -- उत्तर चार विवाहों का पुनर्विवाह -- गणपति स्मरणपूजन /// अग्निस्थापन आदि से प्ररंभ कर के किया जाता हैं --

वहाँ - वर्णाधिकार से प्राप्त कन्या वधू, लाजा होम में - पाणिग्रहण के बाद भार्या, सप्तपदाक्रमण  और चतुर्थी कर्म की पूर्ति से - पत्नी होती हैं ///

इसलिये आसुरादि विवाह के बाद -- प्राप्त वधू का -- भार्यात्व, पत्नीत्वाधिकार सिद्ध करना ही आवश्यक विधान प्रतित होता हैं
--- इतरों के पुनर्विवाह का लक्षण -- गन्धर्वादि विवाहेषु *पुनर्विवाहिको विधिः --> कर्तव्यश्च त्रिभिर्वर्णैः समयेनाग्निसाक्षिकः ||*

उचित मूर्हूत में अग्नि की साक्षी में - भार्यात्व, और पत्नीत्व के अधिकार को प्राप्त करना होता हैं
अतः विवाह में मधुपर्कार्चन की जो व्याख्या में वैवाह्य वाक्य हैं वह ब्राह्मण के लिए उचित होती हैं
गदाधर -- ऋत्विगाद्युपलक्षणार्थं वरदातृशब्दौ
इतरयो प्रतिग्रहाऽभावात् // आश्वालायन परि०
ये तो स्पष्ट है कि जब कन्यादान वाले प्रथम के चार विवाह ही ब्राह्मणेत्तर को निषिद्ध है तो कन्यादान प्रसंग ब्राह्मणेत्तर में प्रसक्त ही नहीं होता |

तो रामचरितमानस में कैसे कन्यादान कहा गोस्वामी जा ने ?
यदी भगवान् श्रीरामजी को कन्या का दान किया हो वह भी -- सौंपने के अर्थ में पिता अपनी पुत्री को स्वगोत्र से पृथक् कर देते हैं -- जैसे -- लाजा होम में -- प्रेतो मुंचतु मापतेः ००
सजल से दान किया यह तो नहीं कहा?  कन्या सौंपदी "दान" के अर्थ में सौंपना भीतो होता हैं  "दीयते इति दानं  ||
दान के तो अनेकार्थ होतें ही हैं - पर कहाँ क्या कैसे प्रयोजनीय हैं वह शास्त्रसम्मत होना चाहिये
सम्प्रदानस्वत्वापादकद्रव्यत्यागो दानमिति ॥ * ॥ दाता प्रतिग्रहीता च श्रद्धादेयञ्च धर्म्मयुक् ।  देशकालौ च दानानामङ्गान्येतानि षड्विदुः ॥
अपना स्वोपार्जित उत्पादित वस्तु का त्याग कर उसपर से स्व का अधिकार छोड़ देना
षड्विदुः -- धर्म्मयुक् का भी उल्लेख होने से धर्म के कहानुसार ही दान होता हैं -- किसको किस तरह (सौंप)दिया जाय
मनुस्मृति वेदोपनिषन्निबंध हैं -- *राजर्त्वक्स्नातकगुरुन्प्रियश्वसुरमातुलान् | अर्हयेन्मधुपर्केण परिसंवत्सरात् पुनः ||३/११९||* इस में "वर" को सूचित नहीं किया गया हैं --  "(राज्याभिषिक्तः क्षत्रियो राजा, ऋत्विक् यज्ञे येन यस्यार्त्विज्यं कृतम्, स्नातको विद्याव्रताभ्याम्, प्रियो जामाता, राजादिनेतान् गृहागतान् सप्त(श्वसुर मातुल समेतान्) गृह्योक्तेन मधुपर्काख्येन कर्मणा पूजयेत् || कुल्लुक भाष्य ||)"

यहाँ *गृहागतान् सप्त* में विशेष ऋत्विज, स्नातक, गुरु(वर्णानां ब्राह्मणो गुरुः)" ये जब घर आये तब, यथा कन्यास्विकृत करने के लिए आयें तब मधुपर्क दे सकतें हैं,, पृथक्रूप से वर ब्राह्मणेतर हो तो मनुवचन से भी निषिद्ध हो गया
समूहयज्ञ(अयाज्यों में उपनीतों) का तथा समूजनेऊ करनेवाले को पतित कहा हैं श्राद्ध में भी भोजन कराने योग्य नहीं -- मनुः ३/१५१|| तथा "(यश्चापि बहुयाज्यः स्याद् यश्चोपनयते बहून् || वसिष्ठ ||)" -- यह वसिष्ठर्षि का मत भाष्यकार कुल्लुक ने ग्राह्य किया हैं -- अतः समूहयज्ञ,समूहविवाह और समूहजनेऊ पाखंड ही हैं...
कोई यह उदाहरण दे कि ब्रह्मविवाह से ही उत्पन्न पुत्र श्राद्धाधिकारी हैं तो कहें कि -- पतित- वर्णसंकर को ही अनधिकार हैं -- औरसपुत्र आदि का तो अधिकार हैं
अन्य सात विवाह से पत्नीद्वारा प्राप्त पुत्रों और धर्मानुकुल विवाहों से उत्पन्न पुत्र #धर्मप्रजा कहलाती हैं --

धर्मप्रजया उभयोः वंशवृद्ध्यर्थ - वर्णोचित विधा से वर को सौपना ही तो कन्या का दान हुआ

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