आक्षेप :- जन्म से वर्ण निर्धारित होनेपर क्षत्रिय विश्वामित्र का ब्राहमण बनना संभव नहीं था ।
उत्तर - महाभारतादि में वर्णित विश्वामित्र का जन्मरहस्य पर विचार करने से यह स्पष्ट होता हैं कि यद्यपि विश्वामित्र जन्म से ही ब्राह्मण देहधारी थे, उनमें ब्राह्मणोचित गुण-कर्म का प्रकाश नहीं हुआ । ब्राह्मणत्व उनमें सुप्तावस्था में था । जन्म से ब्राह्मण विश्वामित्र का एक क्षत्रिय के रूप में प्रख्यात होना वैसा ही हैं, जैसे जन्म से क्षत्रिय श्रीकृष्ण एक गोपालक के रूप में जाने जाते थे ।
ऋचीक ऋषि ने अपने तपोबल से दो चरु बनाये । एक में क्षत्रियत्व का आधान किया एवं दुसरे में ब्राह्मणत्व का । यह बात गाधि राजा की स्त्री सत्यवती और उनकी पुत्री नहीं जानती थी । इसलिए माता की आज्ञा का पालन करते हुए सत्यवती की कन्या ने अपना चरू माता को दे दिया और माता के चरु का स्वयं उपयोग कर लिया ।
~ (महाभारत, अनुशासन पर्व, तृतीय अध्याय द्रष्टव्य)
ब्राह्मण्यं कुलगोत्रे च नामसौन्दर्यजातयः ।
स्थूलदेहगता एते स्थूलाद्भिन्नस्य मे नहि ॥
~ आत्मबोधोपनिषत् २२॥
" ब्राह्मणत्व. कुल-गोत्रादि, सौन्दर्य-कदर्य स्थूल देह का धर्म हैं । "
विद्या तपश्च योनिश्च एतद् ब्राह्मणकारकम् ।
विद्यातपोभ्यां यो हीनो जातिब्राह्मण एव स: ॥
~ महामुनि पतंजलि, महाभाष्य, ५१-११५
" विद्या, तप और ब्राह्मण-ब्राह्मणी से जन्म ये तीन ब्राह्मणत्व का कारण है, जो विद्या तथा तप से शून्य है वह जातिमात्र के लिए ब्राह्मण है । ''
अतः तपोबल से उत्पन्न ब्राह्मणत्व-संपन्न चरु से विश्वामित्र का देह बनने के कारण विश्वामित्र जन्म से ब्राह्मण ही थे और क्षत्रिय वंश में पालित होकर क्षत्रियोचित कर्म करते थे । उसका आवरण हटाकर ब्राह्मणत्व का प्रकाश करनेके लिए इतनी तपस्या करनेकी आवश्यकता हुई ।
शंका :- " निमित्तमप्रयोजकं प्रकृतीनांवरणभेदस्तु ततः क्षेत्रिकवत् । "
~ योगसूत्र, कैवल्यपाद, सूत्र ३
// न तु प्रकृतिप्रवृत्तौ धर्मो हेतुर्भवतीति । अत्र नन्दीश्वरादय उदाहार्याः । विपर्ययेणाप्यधर्मो धर्मं बाधते । ततश्चाशुद्धिपरिणाम इति । अत्रापि नहुषाजगरादय उदाहार्याः । //
~ व्यासभाष्य, कैवल्यपाद, सूत्र ३
उपरोक्त व्यासभाष्यानुसार धर्म-अधर्मजात अदृष्ट का प्रभाव से आवरण हटाकर मनुष्यशरीर से देवशरीर (नन्दीश्वर इत्यादि में) एवं सर्पशरीर (नहुषादि में) की प्राप्ति संगत हैं । इसी तरह तपोबल से क्षत्रिय विश्वामित्र का भी ब्राह्मणत्व प्राप्ति संभव हैं ।
उत्तर - यह नियम हैं - जब दृष्ट द्वार मिल सकता हैं, तब तो अदृष्ट द्वारकी कल्पना करना अयुक्त ही हैं - // दृष्टद्वारे सम्भवति अदृष्टकल्पनायोगात् // ।
इसलिए जब जन्म से ही विश्वामित्र का ब्राह्मणत्व सिद्ध होता हैं, तब तपोबलजात अदृष्ट का प्रभाव से ब्राह्मणत्व-प्राप्ति की कल्पना निष्प्रयोजन हैं ।
तथापि " दुर्जनतोषणन्याय " से कदाचित् मान भी लिया जाय की तपस्याजात अदृष्ट से ब्राह्मण बने, तो भी यही सिद्ध होता हैं कि विश्वामित्र के काल में भी जन्मना वर्णव्यवस्था ही मानी जाती थी । यदि गुण-कर्म से मानी जाती होती तो इच्छा मात्र करते ही इन्हें ब्राह्मणत्व प्राप्त होजाता । इतने तप आदि की आवश्यकता ही न होती । जैसे की आजकल के गुण, कर्मवादी किसी के इच्छामात्र करते ही उसे ब्राह्मण-श्रेणी में मान लेते हैं ।
मुझे ऐसा लगता है कि जो लोग इच्छामात्र से वर्ण निर्धारण करने का विचार करते हैं , वे लोग कभी भी इस अकाट्य सत्य से अन्जान नहीं होते कि जाति जन्मना ही होती है । उनको विश्वामित्र आदि के जीवन या वर्ण से से भी कोई लेना देऩा नहीं होता , उनको बस अपने आग्रह के पोषण के लिये इस तरह के विश्वामित्र आदि विषयों के रूप में द्वार चाहिये, जहॉ पर वह आकर निर्लज्जों की भॉति चिल्ला सकें ।
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