Sunday, 12 November 2017

सनातन धर्म

गहराई से पढ़ो और जानो अपने सनातन धर्म को ---->

#भ्रान्ति -  हमने सुना है कि पहले के समय में शुद्रों को आपने मुख के पास मिट्टी का कुल्लड और पीछे कमर में झाडु लगाकर घुमना पडता था,उनको द्विज जहां पानी भरते थे उस घाट या कूप से पानी नहीं भरने देते थे...और कहीं कहीं ऐसा भी सुना था कि यदि कोई नीची जाति वाला कोई श्लोक या मंत्र बोलता तो उसकी जीभ काटी जाती थी नहीं तो गांव पर संक़ट की स्थिती आ जाने का ब्राह्मण भय दिखाते है।

क्या ये सब होना चाहिए या अन्याय था शूद्रों के साथ?? कृपया उत्तर दें।

#भ्रान्तिभञ्जन -  ये सब  केवल एक कपोल कल्पित बकवास के अतिरिक्त और कुछ नहीं । रामायण और महाभारत जैसे ऐतिहासिक ग्रन्थ , पुराणों जैसा विशाल सनातनी साहित्य आप उठाकर देखिये कि सनातनी समाज का स्वरूप क्या था हमारे यहॉ !  हमारे सनातन धर्म  के सुन्दर प्राचीन  इतिहास को तोड़-मरोडकर    ये  सब दुष्प्रचार  वे लोग करते हैं , जो या तो पक्के धूर्त हैं या फिर  ऐसे दिग्भ्रान्त  हैं ,  जिन्होंने कभी सनातन धर्म  का असली  समाज नहीं देखा , जहॉ पारम्परिक रीति रिवाजों के साथ चारों वर्ण रहते हैं ।


कहीं भी शास्त्र में शूद्र के लिये यह विधान नहीं है कि वह मुख के पास मिट्टी का कुल्हड रखे और पीछे झाडू लटकाये  रखे !  अगर  सौ दो सौ वर्षों के पिछले कालखण्ड में   कदाचित् किसी  स्थल पर भारत में ऐसा कुछ हुआ भी हो , तो  ये  तो किसी धूर्त , अपराधी शूद्र   या उसकी किसी   दुष्ट  गैंग  /समूह    को किसी  सभ्य  पंचायत का दिया गया   कोई दण्ड ही हो सकता है ! या फिर  म्लेच्छों  की  डिवाइड एण्ड रूल की चालबाजियों की चपेट में ही वह स्थल आया होगा !

हमारे सनातन धर्म में शूद्र को विराट् पुरुष परमात्मा का चरण बताया गया है और कहा गया है कि ये उसी शरीर का अभिन्न अंग है जिस शरीर में ब्राह्मण मुख है , क्षत्रिय हाथ है और वैश्य उदर है ।  क्या कोई पुरुष अपने ही पैरों पर   स्वयं डंडे मारता है ?  क्या कोई पुरुष अपने ही पैरों पर बेडियॉ डालता है ?
कितना धूर्त व्यक्ति होगा जिसने सनातन धर्म को इतने गलत रूप में प्रस्तुत किया !

अब दूसरी बात , घाट के कूप से पानी भरने की , तो  ऐसे व्यक्ति से ये पूछना चाहिये कि जब कोई शूद्रों को पानी भरने ही नहीं देता था , तो वे पानी पीते कहॉ से थे ?  क्या बिना पानी पिये भी कोई मनुष्य जीवित रहता है क्या ??   सच्चाई ये हैकि  सनातन धर्म में ये परम्परा है कि तक चारों वर्णों के  अपने अपने स्वतन्त्र  व्यक्तिगत  घाट होते हैं । 

ब्राह्मणों का अपना गॉव, अपना घाट  , क्षत्रियों का अपना गॉव अपना घाट होता था । इसी प्रकार , चारों वर्ण खिचड़ी  बनके  न रहकर  अलग अलग स्वतन्त्र रहते थे ।   यदि कोई   किसी की स्वतन्त्रता में हस्तक्षेप करता था तो वो दण्डनीय होता था ।

अब तीसरी बात, मन्त्र बोलने पर जीभ काटने की ,तो  जब शूद्र का  धर्म ही मन्त्र बोलना नहीं था तो वो बोलेगा क्योंमन्त्र ! शूद्र का धर्म तो परिचर्या करना था । वे ब्राह्मणों के लिये  ताम्रपात्र , क्षत्रियों के लिये तलवार , ढाल आदि बनाकर , वैश्यों के लिये हल ,  घट, पात्र  आदि बनाके सभी वर्णों की  सेवा करते थे, वही धर्मपालन  उनका मोक्षमार्ग माना जाता था ।

अब विचार करो , मन्त्र बोलना तो  शूद्र का धर्म था नहीं , तो क्या शूद्र इतना  अधार्मिक था कि अपने वर्धणर्म के स्थान पर दूसरे वर्ण का धर्म धारण करता था ?

वेदमन्त्र  भारतीय समाज में  परमाणुविद्या की तरह थे , उनकी सुरक्षा का बहुत ध्यान रखा जाता था । मन्त्र के लिये ईश्वरीय विधान से समधिकृत वर्ग प्रजा  के कल्याण के आधाररूप उन मन्त्रों को संरक्षित रखने  के लिये जटा, माला , शिखा , रेखा , ध्वज, दण्ड, घन आदि पद्धतियों  से उनके एक एक  वर्ण संयोग , संहिता का ध्यान रखता था ,  नैरुक्त, उपक्रमोपसंहारादि  पद्धतियों से उनके अभिहितार्थ का संज्ञान रखता था  । उसके प्रयोग में कहीं कोई त्रुटि ना हो इस के लिये पूर्वमीमांसा का बहुत गहराईपूर्वक स्वाध्याय करता था ।  बुद्धिजीवी वर्ग ये सत्य भलीभॉति जानता था कि कदाचित् यदि मन्त्र संरक्षित न रह पाये , उन मन्त्रों के संरक्षण के  लिये  अपेक्षित  वैदिक  व्यवस्था का ही  अतिक्रमण हो गया  तो सारा  वैदिक समाज ही नष्ट-भ्रष्ट  हो जायेगा , और सारे विश्व की घोर आध्यात्मिक  क्षति होगी  क्योंकि समाज में धर्म का सारा मूलाधार अलौकिक मन्त्र ही तो थे ।

इसीलिये  ऐसा नियम था कि कोई भी ऐसा व्यक्ति इन मन्त्रों की विद्या  को छल या  हठपूर्वक   धारण न करे जो अधिकारी ना हो , कोई भी अनधिकारी इनको   चोरी छिपे  ना सुने ! अन्यथा समाज में धर्म की रक्षा के लिये उस  दुराग्रही  का जिह्वाछेदन व  कर्णभेदन  ही  दण्ड होगा !

इस प्रकार चारों वर्ण अपने अपने स्वधर्म में एकनिष्ठ होकर परस्पर नीति एवं  प्रेमपूर्वक हमारे सनातन धर्म में रहते थे , और  पूरी निष्ठा से  स्वधर्मपालन  करके अपनी आध्यात्मिक विकास यात्रा सम्पन्न करते थे ।

सब नर करहिं परस्पर प्रीति । चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीति ।।

।। जय श्री राम  ।।

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