********* ॐ *********
*** ॐ कार ~विष्णु-प्रतिमा की भान्ति है । जैसे विष्णु-प्रतिमा श्रीविष्णु जी का अवबोध कराती है, ऐसे ही ॐ भी है । यह ॐ कार ~ ह्रस्व , दीर्घ और प्लुत् इन तीनों का द्योतक है ।
*** जैसे बीज स्वयं में एक ही होता है , उसमें वृक्ष का स्वगत भेद नहीं होता ~ ऐसे ही ॐ कार है । ये एकाक्षरी बीजमन्त्र है । ॐ कार संयुक्त वर्ण नहीं है अपितु~ स्वर-वर्ण , स्पर्श-वर्ण ,और ऊष्म-वर्ण~ इन तीनों की अभिव्यक्ति ॐ से होती है ।
(ॐ काराद् व्यंजितस्पर्शस्वरोष्मान्तःस्थ भूषितम् )
*** स्वतः प्रमाण वेद ने इसे उपदेश किया है जिसे कठ, तैत्तिरीय, मैत्रायणी आदि श्रुतियों ने भी स्पष्ट किया है ।
*** परा, पश्यंति, मध्यमा और वैखरी ~इन चार रूपों में ये ॐकार ही व्यवहरित् होता है । "ॐ " ही ध्यानपरक कहा गया है । न केवल ध्यानपरकता अपितु उच्चारणपरकता भी इस ॐ कार में स्वतः समाहित है ।
*** बीजाक्षरं ~परं~बिन्दु~नादः~तस्योपरि स्थितम् ।। सशब्दं~चाक्षरे~क्षीणे~निःशब्दं~परमं पदम् ।।~(ध्यानबिन्दूपनिषद् ०२)
*** ॐकार बिन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः।।
कामदं मोक्षदं चैव ॐकाराय नमो नमः ।।~(शिवषडाक्षरस्तोत्रम्-०१)
ध्येय तत्त्व की प्राप्ति ध्यान से ही होती है ~उसी में प्रत्ययैकतानता को ध्यान कहा जाता है । तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम् । ~( पा०योग सू०३|२) अर्थात् तस्मिन्देशे ध्येयालम्बनस्य प्रत्ययस्यैकतानता सदृशः प्रवाहः प्रत्ययान्तरेणापरामृष्टो ध्यानम् ।
*** इस " ॐ कार " के ध्यान से ही इसके अर्थ स्वरूप परमात्मा का भान होता है ~(यत्रार्थमात्रनिर्भासम् (पा० यो०सू३।२भोजवृत्ति) और अर्थाकार समावेशक्रम से ही समाधि प्राप्त होती है ~तस्य वाचकः प्रणवः~ ( पा०योगसू०१|२७) ~तज्जपस्तदर्थभावनम् ~( पा०योग सू०१|२८) से परमार्थतः इसी ॐ कार का कथन हुआ है क्योंकि वाचक का अभिप्राय है अभिधायक होना, उसका अवबोध कराने वाला होना जैसा कि ~वाचकोsभिधायकः (पा०योग सू०१|२७ भोजवृत्ति) तथा विचार करने पर प्लुत् तथा दीर्घ मात्राओं का स्थितिकाल क्रमश: संक्षिप्त होकर अंत में एक मात्रा में पर्यवसित हो जाता है । यह ह्रस्व स्वर का उच्चारण काल माना जाता है । विक्षिप्त-भूमि से एकाग्र-भूमि में पहुँचने पर प्रणव की इसी एक मात्रा में स्थिति होती है ।
*** इस योगशास्त्र परिभाषित प्रणव अर्थात् " ॐ कार " का जप और पुनः- पुनः चिंतन करना ही ईश्वरप्रणिधान है । समाधि की सिद्धि इसी ईश्वरप्रणिधान से होती है जैसा कि ~ समाधिसिद्धिरीश्वरप्रणिधानात् ~(पा०यो०सू० २|४५)
*** वैयाकरण, वाच्य और वाचक में अभेद स्वीकार करते हैं एवम् लोक में भी शब्द और अर्थ को एक ही पद से कहते हैं जैसे गौरिति शब्दः गौरित्यर्थः = जैसे गौ यह शब्द है , गौ अर्थ भी है । अतः ॐ स्वयं ही ब्रह्म और वाचक--ब्रह्म है ।
***ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् ।।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स: याति परमां गतिम् ।। ~श्रीमद्भगवद्गीता, ८|१३)
वेदों में इसी ॐ कार के ध्यान से ध्येयतत्त्व परमात्मा का महिमान्वयन हुआ है ~
एतद्ध्येवाक्षरं ब्रह्म एतद्ध्येवाक्षरं परम् ।।
एतद्ध्येवाक्षरं ज्ञात्वा यो यदिच्छति तस्य तत् ।।
एतदालम्बनं श्रेष्ठमेतदालम्बनं परम् ।।
एतदालम्बनं ज्ञात्वा ब्रह्मलोकेमहीयते ।।~ (कठ० १। २।१६-१७)
इसी ॐकार में जो 'उ' कार है, वह अच् का वाचक है और इसमें प्लुत स्वतः समाहित है । मात्रा भेद से यही 'उ' कार काल का वाचक भी कहा गया है । ॐ कार में पीछे गोल करके वक्राकृति (व् ) में घुमायी गई है जो 'व'कार का वाचन करता है । इस प्रकार लिपि में वाचन कराने की हमारी सनातनी परम्परा है जैसे ~'श'कार का श, ष, स के अलग-अलग शकार -षकार-सकार मुख के भीतर जिह्वा की स्थिति का द्योतन करते हैं ।
व्याकरण की दृष्टि से ~अच् का द्योतक यह 'उ'कार ~ उ, ऊ तथा ऊ३ ~इस क्रम से क्रमशः एकमात्राकाल, द्विमात्राकाल एवं त्रिमात्राकाल~ तीनों का वाचक कहा गया है जैसा कि ब्रह्मऋषि पाणिनि जी स्पष्ट करते हैं ~
ऊकालोsज्झ्रस्वदीर्घप्लुतः~ (पा० अष्टा० १|२|२७)
अर्थात् उ कार , ऊ कार तथा ऊ३ कार ये तीनों एकमात्रिक उकार, द्विमात्रिक उकार और त्रिमात्रिक उकार हैं ~इन तीनों का द्वंद्व करने पर 'वः' रूप निष्पन्न होता है जैसा कि~
उच ऊश्च ऊ३श्च व:। वां काल इव कालो यस्य सोऽच् क्रमाद् ह्रस्व-दीर्घ-प्लुतसंज्ञ: स्यात् , प्रत्येकमुदात्तादिभेदेन त्रिधा ।
इसी सूत्र की व्याख्या में काशिकाकार स्वयं स्पष्ट कर रहे हैं ~ उ इति त्रयाणाम् अयं मात्रिकद्विमात्रिकत्रिमात्रिकाणां प्रश्लिष्टनिर्देशः । ह्रस्वदीर्घप्लुतः इति द्वन्द्वैकवद् भावे पुल्लिङ्गनिर्देशः । उ ऊ ऊ३ इत्येवं कालो अज् यथाक्रमं ह्रस्वदीर्घप्लुतः इत्येवं संज्ञो भवति ~ तत्रैव काशिकावृत्ति ।
इसमें प्रथम् उकाल ह्रस्व है , द्वितीय दीर्घ और तृतीय प्लुत् , जैसा कि~
उकालो ह्रस्वः~दधि , मधु । ऊकालो दीर्घः~ कुमारी , गौरी । ऊ३कालः प्लुतः ~देवदत्त३ अत्र न्वसि तत्रैव काशिका ।
ध्यातव्य यह भी है कि यहाँ काल का ग्रहण परिमाण के लिए हुआ है ।~ कालग्रहणं परिमाणार्थम् ।
*** इसी अच् के द्योतक उकार के ही उदात्त, अनुदात्त और स्वरित - ये तीन भेद हो जाते हैं और~ फिर ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत -प्रत्येक के उदात्त, अनुदात्त और स्वरित ~इस प्रकार के तीन -तीन भेद होकर नौ-नौ भेद हो जाते हैं ~और उन प्रत्येक नौ के ही अनुनासिक और अननुनासिक भेद से ९x२= अठारह- अठारह भेद होते हैं जो किसी श्री शंकर सरीखे सन्त से ही सीखे जा सकते हैं ।
*** ओमभ्यादाने (पा० अष्टा०८।२।८७) ~यह ओमभ्यादाने सूत्र कहता है कि अभ्यादान अर्थात् प्रारम्भ में वर्त्तमान् ओम् शब्द को प्लुत् उदात्त होता है । यहाँ पर अभ्यादान अर्थात् प्रारम्भ से अभिप्राय वैदिक मन्त्रों के प्रारम्भ से है । ~अचश्च (अष्टा० १|२|२८) परिभाषा सूत्र से सर्वत्र अच् को प्लुत् होगा ।
*** इसके उपरान्त इससे अगला सूत्र है *ये यज्ञकर्मणि (अष्टा० ८|२|८८) अर्थात् इसका अभिप्राय है कि 'ये' शब्द को यज्ञ की क्रिया में प्लुत् उदात्त होता है । श्रौत यज्ञकर्म में याज्या (जिस मन्त्र से आहुति दी जाती है ) के आरम्भ में ' ये३ ' यजामहे बोला जाता है । ध्यातव्य है कि यहाँ से इस 'यज्ञकर्मणि' की अनुवृत्ति, सूत्र ८|२|९२ तक जायेगी ।
***इसके बाद अगलासूत्र है *प्रणवष्टेः (अष्टा० ८|२|८९) इसका अभिप्राय है कि यज्ञकर्म में अंतिम पद की टि को प्रणव अर्थात् ओम् आदेश होता है और वह प्लुत उदात्त होता है।
*** स्वयं काशिकाकार ही स्पष्ट कर रहे हैं कि इसी सूत्र पर प्रणवष्टेः (अष्टा० ८|२|८९ ) की काशिका में ~यज्ञकर्मणि इति वर्तते । यज्ञकर्मणि तेः प्रणवः आदेशो भवति । क एष प्रणवो नाम ? पादस्य वा अर्धर्चस्य वा अन्त्यम् अक्षरम् उपसंगृह्य तदाद्यक्षरशेषस्य स्थाने त्रिमात्रमोकारम् ओङ्कारं वा विदधति तं प्रणव इत्याचक्षते । अपां रेतांसि जिन्वतो३म् । देवान् जिगाति सुम्न्यो३म् । टिग्रहणं सर्वदेशर्थम् ।ओकारः सर्वादेशो यथा स्यात्, व्यञ्जनान्ते अन्त्यस्य मा भूतिति: ।। ~ओम् ~OM~ॐ ।।
ॐ स्मरण... ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ...
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