शास्त्रीय वचनों को शास्त्रीय विधि से ही समझना चाहिये , मनमुखी पद्धति से नहीं ।
#सुरा_मत्स्या_मधु_मांसमासवं० इत्यादि जो समस्त श्लोक हैं , ये अहिंसाप्रधान निवृत्तिधर्म के स्तावक श्लोक हैं , क्योंकि मीमांसकों की ऐसी मर्यादा है कि लिङ्गादिविधिप्रत्यय विरहित सिद्धार्थ प्रतिपादक वाक्य , अक्रियार्थक होने से स्वार्थ में तात्पर्य नहीं रखते अपितु स्वसन्निहित विधिप्रत्ययगत लिङ्गादिवाच्य की भावना की इतिकर्त्तव्यता की आकांक्षा को पूर्ण करने के कारणविधि के साथ एकवाक्यतापन्न होते हैं और इस प्रकार एकवाक्यतापन्न होकर विधेयार्थस्तावकत्वेन उपयुक्त होते हैं , जैसा कि -
आम्नायस्य क्रियार्थत्वादानर्थक्यमतदर्थानाम् । ( पूर्वमीमांसा १|२९)
विधिना त्वेकवाक्यत्वात्स्तुत्यर्थेन विधीनां स्युः । ( पूर्वमीमांसा १|२७)
अर्थात् अहिंसाधर्म प्रतिपादक उक्त वचन अर्थवाद हैं , इनका स्वार्थ में तात्पर्य नहीं है ।
अखादन्ननुमोदंश्च भावदोषेण मानवः ।*
*योऽनुमोदति हन्यन्तं सोऽपि दोषेण लिप्यते ।।* महाभारत ―(२१/३१)
*अर्थ―*जो स्वयं तो मांस नहीं खाता, परन्तु खाने वाले का अनुमोदन करता है, वह भी भाव-दोष के कारण मांसभक्षण के पाप का भागी होता है।इसी प्रकार जो मारनेवाले का अनुमोदन करता है, वह भी हिंसा के दोष से लिप्त होता है।
अखादन्ननुमोदांश्च ० - इस श्लोक में यज्ञातिरिक्त हिंसा का निषेध किया गया है , यज्ञीय बलिकर्म का नहीं क्योंकि वह न तो हिंसा कहलाता है ना ही अधर्म । यही सर्वशास्त्रसम्प्रदा़यसिद्ध सर्वमान्य सिद्धान्त है ।
इसी प्रकार इज्यायज्ञश्रुतिकृतैर्यो० इत्यादि स्थलों पर भी शास्त्र स्वयं कह रहा है - यः = जो , अबुधः = ( धर्म के ) बोध से हीन , मांसगृध्नुः = मांस का लालची , इज्यायज्ञश्रुतिकृतैः मार्गैः = वेदप्रतिपादित ( पशुहिंसा प्रधान) यज्ञ रूपी मार्गों के द्वारा, जन्तून् = जन्तुओं को , हन्यात् = वध करे , .....
अर्थात् यहॉ वचन भी यही शिक्षा दे रहा है कि वेदप्रतिपादित जो पशुहिंसा प्रधान यज्ञ हैं , उन्हें मांस के लोभ में नहीं करना चाहिये , अपितु देवतोद्दिष्ट भावना से धर्मपालन के निमित्त ही करना चाहिये , अन्यथा नरकगमनादि फल की प्राप्ति होती है।
जैसा कि श्रीमद्भगवद्गीता में भी श्री भगवान् ने प्रतिपादित किया है -
इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः।। (३|१२)
अर्थात् वेदप्रतिपादित यज्ञ द्वारा बढ़ाये हुए संतुष्ट किये हुए देवता लोग तुम लोगों को स्त्री पशु पुत्र आदि इच्छित भोग देंगे। उन देवों द्वारा दिये हुए भोगों को उन्हें न देकर केवल अपने शरीर और इन्द्रियोंको ही तृप्ति को उद्देश्य में रखकर खाता है , वह देवताओं के स्वत्वको हरण करनेवाला चोर ही है।
चराचर समस्त जगत् का परम कल्याण करने के लिये ही श्री भगवान् ने शास्त्र का उपदेश दिया है , शास्त्र वचन प्रत्यक्ष एवं अनुमान से भी उत्कृष्ट शब्दप्रमाणभूत होने से तर्क के विषय नहीं होते | सत्य का वह तात्विक स्वरूप जो प्रत्यक्ष एवं अनुमान की भी परिधि में नहीं आता , वह शब्दब्रह्म स्वरूप शास्त्रप्रमाण से ज्ञातव्य होता है | अतः भूलकर भी शास्त्रवचनों के विपरीत अपनी तार्किक कर्तरी बुद्धि नहीं चलानी चाहिये |सर्वज्ञ भगवान् ने समस्त प्राणियों के अभ्युदय एवं निःश्रेयस के हेतुभूत वेद का सृष्टि के प्रारम्भ में अवतरण किया, उस वेद को सर्वज्ञकल्प ऋषियों की सम्प्रदाय परम्परा से जान लेने पर अल्पज्ञ भी सर्वज्ञता को प्राप्त हो जाता है , उसे फिर किसी भी प्रकार का मोह उसे नहीं रहता |
यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव |
येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि || ( श्रीमद्भगवद्गीता ४|३५)
यज्ञ विद्या क्या है ? अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः इत्यादि शतशः वेद वचन यज्ञ का क्या गूढ़ रहस्य अभिहित करते हैं ? बलि विधान का मर्म क्या है ? पहले इनकी गहराई समझो | ऋषि जैमिनि प्रोक्त पूर्वमीमांसा का स्वाध्याय करो | न वा उ एतन्म्रियसे ०, तमेवे पञ्च पशवो ० इत्यादि श्रुतियॉ या अग्नीषोमीयात् पशुषु ( का० श्रौ०सू०६|१०|२९) इत्यादि सूत्र किसी ब्राह्मण ने वेदों या वेदाङ्गों में घुसेड़े नहीं हैं , मन्त्र- मन्त्रार्थ द्रष्टा ऋषियों के प्रवाचित जटा , माला , शिखा, रेखादि अष्टविकृतियों से विभूषित वेद-वेदाङ्ग में कहीं किसी ने कुछ नहीं घुसेडा है |
आजकल ब्रह्मसूत्र के प्रामाणिक अर्थ को व्यापक रूप में विकृत कर दिया गया है , इसमें गीताप्रेस गोरखपुर के हरिकृष्णदास गोयन्दका का भी विशेष स्थान है ( यह हम एक पूर्व वक्तव्य (पोस्ट) में सिद्ध भी कर चुके हैं । ) सनातन धर्मशास्त्रों के संरक्षण में गीताप्रेस का सहयोग अविस्मरणीय है किन्तु अनेकों स्थलों पर शास्त्रार्थ को जानबूझकर विकृत करने का गीताप्रेस वालों का कुकृत्य भी अविस्मरणीय है |
इस #अशुद्धमिति_चेन्न_शब्दात् (३|१|२५) - सूत्र का प्रामाणिक अर्थ #श्री_आद्य_शंकराचार्य भगवान् ने प्रतिपादित किया है , जो सर्ववेदसम्मत सम्यक् अर्थ है । उसे ही श्रवण, मनन , निदिध्यासन का विषय बनाना चाहिये तद्विरुद्ध अज्ञानी प्राणियों के मनमुखी, कल्पित अर्थों से दूर रहना चाहिये ।
मनुस्मृति विरुद्धा या सा स्मृतिर्न प्रशस्यते कहा गया है , कोई भी स्मृति मनुस्मृति का बाध नहीं कर सकती | यद् वै किञ्च मनुरवदत् तद् भेषजम् (तैत्तिरीयसंहिता२|२|१०|२) , मनुर्वै यत्किञ्चावदत् तत् भेषज्यायै ( ताण्ड्यब्राह्मणम् २३|१६|१७) इत्यादि प्रबल शास्त्रप्रमाणों से सर्वधर्ममयी मनुस्मृति (सर्वधर्ममयो मनुः) का सर्वतः प्राबल्य शास्त्रीय रीति से सिद्ध है |
अतः हमने जो सर्वशास्त्रसमन्वयक उपर सिद्धान्तवचन कहे हैं, उन पर श्रद्धापूर्वक मनन कीजिये |
द्विज यज्ञ के लिये अवश्य शास्त्रविहित पशु-पक्षियों का वध करे , ऐसा अगस्त्य ऋषि ने पहले किया था ~
यज्ञार्थं ब्राह्मणैर्वध्याः प्रशस्ता मृगपक्षिणः |
भृत्यानां चैव वृत्यर्थम् अगस्त्यो ह्याचरत्पुरा || (मनुस्मृतिः ५|२२)
क्योंकि पहले भी मुनियों तथा ब्राह्मण-क्षत्रियों के यज्ञों में ( शास्त्रानुसार) भक्ष्य पशुओं का पुरोडाश ( हविष्य- हव्य) बना था , अतः शास्त्रविहित पशु-पक्षियों का वध यज्ञ के लिये करना चाहिये -
बभूवुर्हि पुरोडाशा भक्ष्याणां मृगपक्षिणाम् |
पुराणेष्वपि यज्ञेषु ब्रह्मक्षत्रसवेषु च || ( मनुस्मृतिः ५|२३)
यज्ञ के लिये शास्त्रोक्त विधि से मांस भक्षण करना #दैव विधि है और इसके विपरीत मांस भक्षण करना राक्षस विधि है ~
यज्ञाय जग्धिर्मांसस्त्येष दैवो विधिः स्मृतः |
अतोsन्यथा प्रवृत्तिस्तु राक्षसो विधिरुच्यते || (मनुस्मृतिः ५|३१)
ब्रह्मा ने यज्ञ के लिये ही पशुओं को स्वयं बनाया है , और यज्ञ समस्त जगत् की उन्नति के लिये है , इस कारण यज्ञ में पशुवध (वधजन्य दोष न होने से) वध नहीं हैं ~
यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयम्भुवा |
यज्ञश्च भूत्यै सर्वस्य तस्माद् यज्ञे वधोsवधः || ( मनुस्मृतिः ५|३९)
इस चराचर जगत् में जो हिंसा वेद-सम्मत है , उसे हिंसा नहीं समझे, क्योंकि वेद से ही धर्म निकला है ~
या वेदविहिता हिंसा नियतास्मिंश्चराचरे |
अहिंसामेव तीं विद्याद् वेदाद्धर्मो हि निर्बभौ || ( मनुस्मृतिः ५|४४)
सर्वधर्ममय मनु के विरुद्ध सिद्धान्त का प्रतिपादन करने वाले आज यत्र - तत्र #धर्म का पाठ पढ़ाते दिखाई देते हैं , क्योंकि कलियुग का यही तो परम प्रताप है |
सर्वतीर्थमयी गङ्गा #सर्वधर्ममयो_मनुः |
सर्वशास्त्रमयी गीता सर्वदेवमयो हरिः ||
|| जय श्री राम ||
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