Wednesday, 6 September 2017

क्या परमात्मा अशरीरी है ?

शुक्लयजुर्वेद ४०/८ मन्त्र में आये मकाय शब्द से परमात्माको अशरीरी सिद्ध किया जाता है ,जबकि यह पूर्ण रूप से असङ्गत है ।           
यह मन्त्र इस प्रकार है -
"स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविर ँ् शुद्धमपापविद्धिम् ! कविर्मनीषी परिभू: स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्य: समाभ्यः !! वाज०सं०४०/८) 
  - अर्थात् वह परमात्मा सर्वगत ,शुद्ध ,अशरीरी ,घाव -फोड़े आदिसे रहित ,स्नायु (नसोंसे रहित) रहित ,निर्मल ,अपापहत ,सर्वदृष्टा ,सर्वज्ञ ,सर्वोत्कृष्ट और स्वयम्भू (स्वयं उत्पन्न होने वाला) है ! उसीने नित्यसिद्ध संवत्सर नामक प्रजापतियोंके लिये यथायोग्य रीतीसे अर्थों (कर्तव्यों अथवा पदार्थों) का विभाजन किया है !!"   
    
उपरोक्त अर्थ में परमात्मा को केवल 'मकाय 'शब्द से अशरीरी सिद्ध करना चाहें तब यह सम्भव नहीं है क्योंकि इस मन्त्र में 'मकाय' के साथ 'मव्रणमस्नाविर ' शब्द भी परमात्माके लिये प्रयोग हुआ है जिसका अर्थ है परमात्मा के शरीरमें किसी भी प्रकार का घाव-फोड़ा आदि नहीं होता (मव्रण ) उसके शरीर में स्नायु अर्थात् शिरायें नहीं होतीं है । 'मकायमव्रणमस्नाविर' का अर्थ होगा उस परमात्माका भौतिक शरीर नहीं है ,क्योंकि उस परमात्माके शरीर में न कोई घाव न कोई चोट न कोई शिराएँ ही हैं अर्थात् उस परमात्मा का शरीर दिव्य ,चिन्मय और स्निग्ध है । अब यदि कहो परमात्मा जब अशरीरी है फिर उसके शरीर में घाव ,चोट और स्नायु का भी निषेध स्वतः हो ही जाएगा फिर अलग से 'मव्रणमस्नाविर' कहकर उसे व्रण और स्नायु से रहित कहने का तात्पर्य तो यही सिद्ध होता है परमात्मा का शरीर है तभी उसमें घाव नहीं है ,स्नायु शिराएँ नहीं हैं अन्यथा 'मव्रणमस्नाविर ' शब्द वाक्य ही अनर्थक हो जाएगा और श्रुति ही अर्थहीन हो जाएगी ।

यही नहीं उपरोक्त मन्त्र में परमात्मा को स्वयम्भू भी कहा है ,"स्वयम्भू: स्वयमेव भवतीति " अर्थात् जो स्वयं ही उत्पन्न होता है वो स्वयम्भू है जो निराकार उसका क्या उत्पन्न होना ? निराकार  साकाररूप से  ही स्वयं उत्पन्न होता है जैसा कि मनु भगवान् कहते हैं "सर्वभूतमयोऽचिन्त्य: स एवं स्वयंमुद्बभौ !!(मनु०१/७)"  अर्थात् - सभी प्राणियोंमें व्यापक और अचिन्त्य रूप भगवान् स्वयं उत्पन्न हुए !'  इस मनु वचन से यह सिद्ध है स्वयम्भू परमात्मा निराकार नहीं अपितु साकार हैं !           वह परमात्मा अशरीरी नहीं अपितु दिव्य शरीरी हैं श्रुति उनके स्वरूप का वर्णन कर रही हैं -

" हिरण्यरूप: स हिरण्यसंदृगपां नपात् सेदु हिरण्यवर्ण: ! (ऋक्०२/३५/१०) -   
हिरण्य अर्थात् सुवर्ण जैसा हित रमणीय जिसका रूप है , चक्षुरादि इन्द्रियाँ भी जिसकी हिरण्यवत् दिव्य हैं , वर्ण अर्थात् वर्णनीय साकार विग्रह भी जिसका हिरण्यवत् अतिरमणीय सौन्दर्यसर्वस्व है, ऐसा वह क्षीरोदधि-जलशायी भगवान् नारायण अतिशय भक्तिद्वारा प्रणाम करने योग्य हैं !'

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