चातुर्यवर्ण्य व्यवस्था निरूपण
वर्ण जन्मसे मानने चाहिए या कर्मसे इस विषयमें बहुत विवाद । यद्यपि यह विवाद आधुनिक अन्वेषणकारियोंमें ही ,तथापि प्राचीन गुरु परम्परामें नहीं है । आधुनिक बुद्धिजीवी वर्णको कर्मसे मानकर स्वयं तो ब्राह्मणोंकी निन्दा करते हैं किन्तु स्वयं कर्मका आधार देकर ब्राह्मण बनना भी चाहते हैं ।
श्रीमद्भगवद्गीता के श्लोक "#चातुर्यवर्ण्यं_मया_सृष्टं_गुणकर्मविभागशः । (४/१३)
को वर्ण को कर्मके द्वारा विभाग मानकर प्रमाण मानते हैं । किन्तु इस श्लोकका मनमाना अर्थ करके स्वयं के सिद्धांत को पोषित करना मात्र है । अब मैं भगवद्गीता द्वारा ही वर्णको जन्मसे सिद्ध करूँगा ।
#चातुर्यवर्ण्यं_मया_सृष्टं_गुणकर्मविभागशः (४/१३)
अर्थात् -चारों वर्णोंका समूह गुणकर्मोंके द्वारा मेरे द्वारा विभागपूर्वक रचा गया है ।
अब इस श्लोक का अर्थ
#गुणकर्मविभागशः ० गुण कर्मोंके विभागपूर्वक तो मान लेते हैं किन्तु ये श्लोक दो अलग अलग पदोंमें हैं ।
पहला पद - #चातुर्यवर्ण्यं_मया_सृष्टं ० और दूसरा पद है #गुणकर्मविभागशः ० इन दोनोही पदोंका मैं अलग अलग विस्तारसे वर्णन करता हूँ ।
१ पद #चातुर्यवर्ण्यं_मया_सृष्टं ० अर्थात् -ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य व् शूद्र -इन चारों वर्णोंकी सृष्टि अर्थात् उत्पत्ति मेरे द्वारा (मुझ परमात्मासे चारों वर्ण उत्पन्न हुए हैं ) ! ऋग्वेद दशम् मण्डल ९० वा सूक्त १२ वा मन्त्र ,शुक्लयजुर्वेद ३१ वा अध्याय ११ वा मन्त्र में तथा तैत्तरीय आरण्यक में भी है ।
#ब्राह्मणोऽस्य_मुखमासीद्बाहू_राजन्य: #कृतः ।
#ऊरू_तदस्य_यद्वैश्य: #पद्भ्या_ँू_शूद्रो_अजायत !! (यजुर्वेद०३१/११)
इस मन्त्रमें चारों वर्ण परमात्माके अङ्गोंसे उत्पन्न बताये गए हैं । किन्तु वर्ण व्यवस्था जन्मसे न सिद्ध हो जाए इस लिए परमात्माके केवल निराकार स्वरूपको ही मानते हैं साकार को जिससे आकार रहित परमात्माके अङ्ग कैसे हो सकते हैं और अङ्ग नहीं तो अङ्गोंसे उत्पत्ति कैसे हो सकती है ?? इसके लिए पुरुषसूक्तके ही इस मन्त्रका प्रमाण देते हैं -
#मुखं_किमस्यासीत्_किं_बाहू_किमरू_पादा_उच्येते (यजुर्वेद ३१/१०)
अर्थात् -उस विराट पुरुषका मुख क्या था ?उसके बाहू क्या थे ? उसकी जांघे क्या थे? और उसके पैर क्या कहे जाते हैं ?
तो इसका उत्तर में #ब्राह्मणोऽस्य_मुख_मासीद् ०
-ब्राह्मण उसका मुख हुआ ,
#बाहू_राजन्य: #कृतः ०
-क्षत्रिय दोनों भुजाएँ बने ।
#ऊरू_तदस्य_यद्वैश्य: ०
पुरुषकी दोनों जंघाएँ वैश्य हुईं
#पद्भ्यां_ँू_शूद्रो_अजायत ० और शूद्र विराटपुरुषके शूद्र हुए । इसका अर्थ ये हुआ कि ईश्वर निराकार है और इसके अंग ही चारों वर्ण हैं इससे उत्पत्ति का सिद्धान्त नही निकलता ।
अब इस मतका खण्डन करता हूँ वेदोंमें परमात्माको साकार और निराकार दोनोंही रूपोंमें निरूपित किया है ,पुरुषसूक्तके पहले ही मन्त्रमें
#सहस्रशीर्षा_पुरुषः #सहस्राक्ष: #सहस्रपात् ० (यजुर्वेद ३१/१)
अर्थात् उन परम् पुरुषके सहस्रों मस्तक,सहस्रों नेत्र और सहस्रों चरण हैं !
रहा प्रश्न दशवे मन्त्र का जिसमें विराट पुरुषके अङ्गों के विषय में पूछा गया है कि उसका उत्तर है । यद्यपि ब्राह्मण विराट पुरुषके मुख हुआ ,क्षत्रिय भुजा हुए,वैश्य जंघा हुए और चरण शूद्र हुए तथापि चारों वर्णोंकी उत्पत्ति विराट पुरुषके अङ्गोंसे ही हुई
देखिए पुरुषसूक्त ११वा मन्त्रका अंतिम पद
#पद्भ्यां_&_शूद्रो_अजायत !
अर्थात् -पैरोंसे शूद्र वर्ण उत्पन्न हुआ । #अजायत शब्द अर्थ उत्पन्न होना या जन्म लेना है । नीतिमें कहा गया है कि मनुष्यके भाईही मनुष्यकी भुजा होते हैं इसका अर्थ ये कदापि नहीं कि मनुष्यकी भुजा ही न होती हैं भाईही भुजा होता है । इसी प्रकार विराट पुरुषके अङ्ग चारों वर्णहैं इसका अर्थ ये नहीं विराटपुरुष हाथ पैर रहित हैं ।
स्वयं भगवान् श्रीकृष्णने स्वयं कहा है -
#ॐ_तत्सदिति_निर्देशो_ब्राह्मणस्त्रिविध: #स्मृत: !
#ब्राह्मणास्तेन_वेदाश्च_यज्ञाश्च_विहिता: #पूरा ।।(भगवद्गीता १७/२३)
अर्थात् - ॐ,तत्, सत्-ऐसे यह तीन प्रकारका सच्चिदानन्दघन ब्रह्मका नाम कहा है ;उसीसे सृष्टिके आदिकालमें ब्राह्मण (चारों वर्ण ) और वेद (चारों वेद) तथा यज्ञादि (समस्तप्रकारके यज्ञ ) रचे गए थे ।
मनु महाराज भी ऐसा कहते हैं-"#मुखबाहूरूपज्जानां ० १/८७
-मुख ,बाहू आदि से ही उत्पन्न कह रहे हैं ।
अब अगला प्रमाण -
शुक्लयजुर्वेदकी काण्व शाखा के शतपथब्राह्मणका अङ्ग है बृहदारण्यकोपनिषद् ,इसके १ अध्याय ४ ब्राह्मणमें स्पष्ट कहा है -
#ब्रह्म_वा_इदमग्र_आसीदेकमेव (१/४/११)
अर्थात् सबसे पहले ब्राह्मण वर्ण ही था ।
#सृजत_क्षत्रं_यान्येतानि ०(१/४/११)
अर्थात् -अस्तु उसने क्षत्रिय वर्णका सृजन किया ।"
#स_नैव_व्यभवत्_स_विशमसृजति ०(१/४/१२)
अर्थात् -वह ब्रह्म (ब्राह्मण) क्षत्रिय का सृजन करने के बाद भी अपनी वृद्धिमें सक्षम नही हुआ ,तब उसने वैश्य वर्ण का सृजन किया । "
#स_नैव_व्यभवत्स_शौद्रंवर्णम_सृजत ०(१/४/१३)
अर्थात् -इसके अनन्तर (अर्थात् क्षत्रिय और वैश्यकी रचनाके बाद )भी वह ब्रह्म प्रवृद्ध न हो सका ,तब उसने शूद्र वर्णकी रचना की ।"
ये तो सिद्ध ही है सभी वर्ण भगवान् से उत्पन्न हुए अब इन वर्णों का विभाग सुनिए ! इन वर्णोंमें जन्म कैसे होता है इस विषय में भगवान् कहते हैं -
गुणकर्मविभागशः (४/१३)
अर्थात् -जन्मांतरमें किये गए कर्मों और सञ्चित गुणोंके द्वारा विभाग करके ही भगवान् चारों वर्णोंमें जन्म देते हैं !
#वर्णा_आश्रमाश्च_स्वकर्मनिष्ठा: #प्रेत्य_कर्मफलमनुभूय_तत: #शेषेण_विशिष्टदेशजातिकुलधर्मायु: #श्रुतिवृत्तवित्तसुखमेधसो_जन्म_प्रतिपद्यन्ते "(आ०स्मृति०२/२/२/३)
अर्थात् अपने कर्मोंमें तत्पर हुए वर्णाश्रमावलम्बी मरकर,परलोकमें कर्मोंका फल भोगकर,बचे हुए कर्मफलके अनुसार श्रेष्ठ देश ,काल,जाति, कुल,धर्म,आयु,विद्या,आचार,धन,सुख और मेधा आदिसे युक्त,जन्म ग्रहण करते हैं " ये शास्त्र प्रमाण है ।
गुण कर्मों से ही ऊँच-नीच योनियाँ प्राप्त होती हैं
स्वयं भगवान् कहते हैं
#कारणं_गुणसङ्गोऽस्य_सदद्योनिजन्मसु !!(भगवद्गीता १३/२१)
-गुणोंमें जो आसक्ति है वही इस भोक्ता पुरुषके अच्छी -बुरी योनियोंमें जन्म लेने का कारण है ।
#ऊर्ध्वं_गच्छन्ति_सत्त्वस्था_मध्ये_तिष्ठन्ति_राजसा:!
#जघन्यगुणवृत्तस्था_अधो_गच्छन्ति_तापसा: (भगवद्गीता१४/१८)
सत्वगुण से ऊर्ध्वलोक यानी देवयोनि प्राप्त होती है ,रजोगुणसे मध्यम योनि अर्थात् मनुष्ययोनि प्राप्त होती है और तमोगुणसे अधोगति अर्थात् तिर्यग् योनि की प्राप्ति होती है ।
जिस प्रकार गुणोंके विभागसे तीन भिन्न गतियोंकी प्राप्ति होती है इसी प्रकार मरने पर गुणोंके द्वारा ही चारों वर्णों में जन्म होता है । सत्वगुणसे ब्राह्मण ,सत्व-रज से क्षत्रिय ,रज-तम से वैश्य और तम से शूद्रकी ।मनुस्मृति (१२/४२-५०)
अब स्पष्ट हो गया श्रीमद्भगवद्गीता के ४/१३ श्लोक में भगवान् जन्मसे ही वर्ण व्यवस्था का वर्णन कर रहे हैं ।
"जन्मांतर में किये गए कर्मों और सञ्चित गुणोंके विभाग द्वारा मैंने चारों वर्णोंको उत्पन्न किया ।
कर्मसे वर्ण मानने वाले अनेक दलीलें देते हैं उनमे एक है निरुक्तिकार यास्क का वचन
"जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात् भवेत द्विजः।
वेद पाठात् भवेत् विप्रःब्रह्म जानातीति ब्राह्मणः।।
अर्थात - व्यक्ति जन्मतः शूद्र है।
संस्कार से वह द्विज बन सकता है।
वेदों के पठन-पाठन से विप्र हो सकता है।
ब्रह्म को जानने वाला ब्राह्मण होता हैं।"
इसके आधार पर कहते हैं वर्ण कर्म के द्वारा कोई भी बदल सकता है । किन्तु इस श्लोक का ये अर्थ बिल्कुल भी नहीं है ।
#जन्मना_जायते_शूद्र:० से ये नहीं हो जाता कि जन्मसे सभी शूद्रहैं ;इसका अर्थ है जन्मसे सभी शूद्रवत हैं ,अर्थात् वेद के अनधिकारी हैं किन्तु संस्कार होने से द्विज वेद का अधिकारी होता है ।
मनु महाराज कहते हैं -
"#नाभिव्याहारयेद्_ब्रह्म_स्वधानिनयनादृते ।
#शूद्रेण_हि_समस्तावद्यावद्वेदे_न_जायते ।। (मनु २/१७२)
अर्थात् -श्राद्ध में पढ़े जाने वाले वेद मन्त्रोंको छोड़कर (अनुपनीत द्विज)वेद मन्त्र का उच्चारण न करे ,क्योंकि जब तक वेदारम्भ न हुआ हो जावे तब तक शूद्रके समान होता है अर्थात् वेदका अनधिकारी होता है ।
इसका ये अर्थ कदापि नहीं कि जन्मसे सभी शूद्र होते हैं और अपनी इच्छासे कोई भी अपना वर्ण बदल सकता है ।
यदि #जन्मना_जायते_शूद्र० का अर्थ जन्मसे सभी मनुष्यको शूद्र होता है तब तो आचार्य कौटल्य का वचन देखिए -
#येषां_विद्या_न_तपो_न_दानं_ज्ञानं_न_शीलं_न_गुणो_न_धर्म: !
#ते_मर्त्यलोके_भुवि_भारभूता_मनुष्यरूपेण_मृगाश्चरन्ति !!(चाणक्य नीति द०१०/७)
चाणक्यके अनुसारतो विद्या ,तप,ज्ञान,गुण और शील रहित मनुष्य पशुतुल्य है अन्यथा इसका अर्थ भी वास्तविक पशु ही बना देंगे ।
अत्रिजी का वचन है-
#जन्मना_ब्राह्मणो_ज्ञेय: #संस्कारैर्द्विज_उच्यते ।
#विद्यया_याति_विप्रत्वं_श्रोतियस्त्रिभिरेव_च ।।
श्रीभगवान् का वचन देखिए -
#ब्राह्मणो_जन्मना_श्रेयान्_सर्वेषां_प्राणिनामिह ।
#तपसा_विद्यया_तुष्ट्या_किमु_मत्कलया_युतः ।।(श्रीमद्भागवत १०/८७/५३)
अर्थात् -श्रुतिदेव ! जगत् में ब्राह्मण जन्मसे ही सब प्राणियोंमें श्रेष्ठ है ,यदि वह तपस्या ,विद्या,सन्तोष और मेरी उपासना-मेरी भक्तिसे युक्त हो तब तो कहना ही क्या है ?
भगवान् मनु का वचन है -
#ब्राह्मण: #सम्भवेनैव_देवानामपि_दैवतम् ।
#प्रमाणं_चैव_लोकस्य_ब्रह्मात्रेव_हि_कारणम् !!(मनु ११/८४)
अर्थात् -जन्मसे ही ब्राह्मण देवताओंका भी देवता होता है और लोक में उसका प्रमाण माना जाता है इसमें वेद ही कारण हैं ।
#एतद्धि_जन्मसाफल्यं_ब्राह्मणस्य_विशेषतः !
#प्राप्यैतत्कृतकृत्यो_हि_द्विजो_भवति_नान्यथा !!(मनु०१२/९३)
अर्थात् -विशेषकर ब्राह्मण के जन्म लेने की सफलता इसी में है । इसको पाकर द्विज कृतकृत्य होता है,अन्यथा नहीं ।
भगवान् पतञ्जलि का वचन है -
#तपः #श्रुतं_च_योनिश्चेत्येतद्_ब्राह्मणकारणम् !(महाभाष्य २/२/६)
अर्थात् -सिद्धांत जो ब्राह्मण से ब्राह्मणी में उत्पन्न और उपनयनपूर्वक वेदाध्यन ,तप,विद्यादिसे युक्त होता है ,वही मुख्य ब्राह्मण होता है !
#तप: #श्रुताभ्यां_यो_हीनो_जातिब्राह्मण_एव_स: (महाभाष्य ५/१/१५)
अर्थात् -जो तप और विद्यासे हीन है वह जाति ब्राह्मण होता है । "
महर्षि हारीत का वचन है -
#न_शूद्रसमा: #स्त्रिय: ! #नहि_शूद्र_योनौ_ब्राह्मणक्षत्रियवैश्या_जायन्ते_तस्माच्छन्दसा_स्त्रिय: #संस्कार्या: !!
अर्थात् -स्त्रियाँ शूद्रोंके समान नहीं हो सकतीं । शूद्र योनि से भला ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्यकी उत्पत्ति किस प्रकार हो सकती है ? इस लिए स्त्रियोंको वेदके द्वारा संस्कृत करना चाहिए ।
एक और आधार कर्म आधारित वर्ण का
#शूद्रो_ब्राह्मणतामेति_ब्राह्मणश्चेति_शूद्रताम् ।
#क्षत्रियाज्जातमेव_तु_विद्याद्वैश्यात्तथैव_च !!(मनु १०/६५).
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अर्थात्- जैसे शूद्र ब्राह्मणत्व को और ब्राह्मण शूद्रताको प्राप्त होता है उसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य से उत्पन्न भी शूद्र,क्षत्रिय और वैश्यत्व को प्राप्त होता है ।
इस श्लोक में कर्मके आधार पर नहीं कहा है ,ये श्लोक वर्णसङ्कर प्रकरण का है जो मिश्रित वर्णों से होता है ।
इस श्लोकसे पहले का श्लोक है
#शूद्रयां_ब्राह्मणाज्जात: #श्रेयसा_चेत्प्रजायते ।
#अश्रेयान्_श्रेयसीं_जातिं_गच्छत्यासप्तमाद्युगात् !!(मनु १०/६४)
अर्थात् -ब्राह्मण से शूद्रा(शूद्र जाति की स्त्रीमें)उत्पन्न कन्या यदि ब्राह्मणके साथ व्याही जाय और आगे भी यही क्रम रहे तो वह अपनी सातवीं पीढ़ीमें अपनी शूद्र योनि से उद्धार पाकर ब्राह्मण हो जाती है ।
इसी क्रम को अगले श्लोक में क्षत्रिय और वैश्य जातिके लिए कहा है यहाँ कर्म का तो कोई प्रसङ्ग ही नहीं है ।
कर्मके आधार पर वर्ण व्यवस्था सिद्ध करनेके लिए महाभारत-रामायण-पुराणोंसे एक दीर्घ सूची भी प्रस्तुत करते हैं कि कर्मसे ये वर्ण बदल गए तो कर्मही आधार है वर्ण व्यवस्थाका । जैसेके -अपराधीपुत्र ऐतरेय ब्राह्मण बन गए । दासीपुत्र सत्यकाम ब्राह्मण बन गए । क्षत्रियसे विश्वामित्र ब्राह्मण बन गए । मुद्गल क्षत्रियसे ब्राह्म
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