Saturday, 2 September 2017

यज्ञातिरिक्त हिंसा का निषेध

अखादन्ननुमोदांश्च ० - इस श्लोक में यज्ञातिरिक्त हिंसा का निषेध किया गया है , यज्ञीय बलिकर्म का नहीं क्योंकि वह न तो   हिंसा कहलाता है ना ही अधर्म । यही सर्वशास्त्रसम्प्रदा़यसिद्ध सर्वमान्य सिद्धान्त है ।

इसी प्रकार  इज्यायज्ञश्रुतिकृतैर्यो०  इत्यादि स्थलों पर भी  शास्त्र स्वयं कह रहा है - यः = जो , अबुधः = ( धर्म के ) बोध से हीन  , मांसगृध्नुः = मांस का लालची ,  इज्यायज्ञश्रुतिकृतैः मार्गैः =  वेदप्रतिपादित ( पशुहिंसा प्रधान)  यज्ञ रूपी मार्गों के द्वारा,  जन्तून् = जन्तुओं को ,  हन्यात् = वध करे , .....

अर्थात्   यहॉ वचन भी यही शिक्षा दे रहा है कि वेदप्रतिपादित जो पशुहिंसा प्रधान यज्ञ हैं ,  उन्हें मांस के लोभ में नहीं करना चाहिये , अपितु देवतोद्दिष्ट भावना से धर्मपालन के निमित्त ही करना चाहिये , अन्यथा नरकगमनादि फल की प्राप्ति होती है।

जैसा कि श्रीमद्भगवद्गीता में भी श्री भगवान् ने प्रतिपादित किया है -

इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः।। (३|१२)

अर्थात्  वेदप्रतिपादित यज्ञ द्वारा बढ़ाये हुए संतुष्ट किये हुए देवता लोग तुम लोगों को स्त्री पशु पुत्र आदि इच्छित भोग देंगे। उन देवों द्वारा दिये हुए भोगों को उन्हें न देकर   केवल अपने शरीर और इन्द्रियोंको ही तृप्ति को उद्देश्य में रखकर खाता  है , वह देवताओं के स्वत्वको हरण करनेवाला चोर ही है।

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