अखादन्ननुमोदांश्च ० - इस श्लोक में यज्ञातिरिक्त हिंसा का निषेध किया गया है , यज्ञीय बलिकर्म का नहीं क्योंकि वह न तो हिंसा कहलाता है ना ही अधर्म । यही सर्वशास्त्रसम्प्रदा़यसिद्ध सर्वमान्य सिद्धान्त है ।
इसी प्रकार इज्यायज्ञश्रुतिकृतैर्यो० इत्यादि स्थलों पर भी शास्त्र स्वयं कह रहा है - यः = जो , अबुधः = ( धर्म के ) बोध से हीन , मांसगृध्नुः = मांस का लालची , इज्यायज्ञश्रुतिकृतैः मार्गैः = वेदप्रतिपादित ( पशुहिंसा प्रधान) यज्ञ रूपी मार्गों के द्वारा, जन्तून् = जन्तुओं को , हन्यात् = वध करे , .....
अर्थात् यहॉ वचन भी यही शिक्षा दे रहा है कि वेदप्रतिपादित जो पशुहिंसा प्रधान यज्ञ हैं , उन्हें मांस के लोभ में नहीं करना चाहिये , अपितु देवतोद्दिष्ट भावना से धर्मपालन के निमित्त ही करना चाहिये , अन्यथा नरकगमनादि फल की प्राप्ति होती है।
जैसा कि श्रीमद्भगवद्गीता में भी श्री भगवान् ने प्रतिपादित किया है -
इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः।। (३|१२)
अर्थात् वेदप्रतिपादित यज्ञ द्वारा बढ़ाये हुए संतुष्ट किये हुए देवता लोग तुम लोगों को स्त्री पशु पुत्र आदि इच्छित भोग देंगे। उन देवों द्वारा दिये हुए भोगों को उन्हें न देकर केवल अपने शरीर और इन्द्रियोंको ही तृप्ति को उद्देश्य में रखकर खाता है , वह देवताओं के स्वत्वको हरण करनेवाला चोर ही है।
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