Wednesday, 27 September 2017

पुराणमतरक्षण

पण्डितप्रवर श्री प्रज्ञान शर्मा द्वारा पुृुराण मतरक्षण

आक्षेप
पौराणिकों को अपनी माँ और बहन से कैसा व्यवहार करना चाहिये ?

या तु ज्ञानमयी नारी वृणेद्यं पुरुषं शुभम् ।
कोऽपि पुत्रः पिता भ्राता स च तस्याः पतिर्भवेत् ।।२६।।
स्वकीयां च सुतां ब्रह्मा विष्णुदेवः स्वमातरम् ।
भगिनीं भग्वाञ्छम्भुर्गृहीत्वा श्रेष्ठतामगात् ।।२७।।
इति श्रुत्वा वेदमयं वाक्यं चादितिसम्भवः ।
विवस्वान् भ्रातृजां गृहीत्वा श्रेष्ठवानभूत् ।।२८।।
( भविष्यपुराण बम्बई छापा प्रतिसर्ग ख० ४ अ०१८ )

जो ज्ञानवाली स्त्री हो वह चाहे किसी भी शुभ पुरुष को वर ले । वह चाहे उसका पुत्र , पिता , वा भाई कोई भी हो वही उसका पति हो जाता है । ब्रह्माजी ने अपनी पुत्री को, विष्णुजी ने अपनी माँ को और महादेव ने अपनी बहन को पत्नि ग्रहण करके श्रेष्ठता प्राप्त की और इस ज्ञान को सुनकर सूर्य भगवान ने अपनी भतीजी से विवाह करके श्रेष्ठता को प्राप्त किया ।

पौराणिकों अपनी मां बहन से ये सब कर पाओगे ?

प्रज्ञान शर्मा : देखो किसी भी पुराणोंक्त संस्कृत  श्लोक  का अर्थ निर्णय करने की एक शास्त्रीय पद्धति होती है जिसे षड्विध तात्पर्य ग्राहकलिंग कहा जाता है , इसका लक्षण यह है -

उपक्रमोपसंहार अभ्यासोsपूर्वताफलम् ।
अर्थवादोपपत्तिश्च लिंगं तात्पर्यनिर्णये ।।

जिसे इस शास्त्रीय पद्धति का ज्ञान नही होता , वह ऐसा ही अशुद्ध और विपरीत अर्थ निर्णय करता है , जैसा कि उक्त पोस्टकर्ता ने किया है । यह जो श्लोक वादी ने उद्धृत किया है , सर्वप्रथम इसका मूल उपक्रम देखना चाहिये , कि जिस प्रसंग में यह श्लोक अभिहित हुआ है , उसका उपक्रम क्या है ।  जिसे अभी आपको आगे हम सप्रमाण दिखाने जा रहे हैं । इस अध्याय का उपक्रम आरम्भ  है अश्विनीकुमारों की गाथा से ,  जैसा कि सूत जी स्पष्ट कह रहे हैं -

इत्युक्त्वा तान् सुरान् देवो भगवान् बृहतां पतिः ।
अश्विनौ च समालोक्य तयोर्गाथामवर्णयत् ।।

( भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व , खण्ड ०४/, अध्याय १८ ,श्लोक ०१ )
यहॉ अश्विनौ कुमार कौन हैं , इसका ज्ञान ज्ञातव्य है , क्योंकि उपक्रम उनकी गाथा अभिहित कर रहा है । पौराणिक सिद्धान्त. के अनुसार अश्विनौ कुमार देववैद्यों का नाम है , जो  आयुर्वेद की सीमा में किसी की भी देह को किसी भी रूप में परिवर्तित कर सकते हैं । इसके उपरान्त विश्वकर्मा को  अभिहित किया गया है , जैसा कि -

वैवस्वतेsन्तरेपूर्वं विश्वकर्मा विचित्रकृत् ।
चित्रगुप्तश्रियं दृष्ट्वा चित्रलेखा विनिर्मिताम् ।। 

( भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व , खण्ड ०४/, अध्याय १८ ,श्लोक ०२ )
यहॉ विश्वकर्मा  कौन हैं , ये भी ज्ञातव्य है ,  पौराणिक सिद्धान्त के अनुसार विश्वकर्मा वे  देवशिल्पी विशेष हैं , जो किसी भी पॉचभौतिक वस्तुविशेष का निर्माण कर सकते हैं । ये जो पोस्टकर्ता ने श्लोक उद्धृत किये हैं, इन श्लोकों से पूर्व स्पष्ट रूप से यह कहा जा चुका है कि -

वीरभुक्ता सदा नारी स्त्रीरत्नं मुनिभिः स्मृतिः ।
चतुर्द्धा प्रकृतिर्देवी गुणभिन्ना गुणैकिका ।।

( भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व , खण्ड ०४ , अध्याय १८ , श्लोक २४)

ध्यान दो -यहॉ पर  गुणात्मक दृष्टि से चार प्रकार की प्रकृति देवी की चर्चा आरम्भ हुई है ।
यहॉ पुराण ने कहा कि नारी जाति  सदैव वीरों से भुक्त है , वीर किसे कहते हैं ?  आर्यसमाजियों को तो बलात्कार करने वाला ही वीर लगेगा  किन्तु शास्त्र कहता है कि इन्द्रियाणां जये शूरः ० अर्थात् शूरवीर वह होता है जो अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करता है । पुराण स्वयं में क्योंकि एक शास्त्र है , ऐसे में शास्त्र का अभिप्राय शास्त्रान्तरीय सीमा में ही समझा जायेगा , मनमुखीपने में नही । याने कि स्पष्ट है कि पुराण इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखने वाले के लिये ही नारी के योग्य व्यक्ति समझता है । ये पहले ही पुराण ने स्वयं स्पष्ट कर दिया है । इसी श्लोक ने ये भी पहले ही स्पष्ट कर दिया है - स्त्रीरत्नं मुनिभिः स्मृतिः अर्थात्  पौराणिक मुनियों ने  स्त्री को रत्न की तरह सम्मान्या माना है । जैसे रत्न कीटानुविद्ध भी हो जाये तो भी वह रत्न ही रहता है , ऐसे ही यदि नारी का कोई बलात्कार भी कर दे तो भी नारी का मूल्य  समाप्त नही हो जाता , इतनी महान् दृष्टि स्त्रियों के प्रति इस श्लोक ने पहले ही स्पष्ट प्रतिपादित कर दी है । नारी के प्रति ऐसे महान् सम्मान को देने वाले भविष्य पुराण पर इतने ओछेपन के आरोप लगाने वाले किस स्तर के हैं , मुझे कुछ कहने की आवश्यकता नहीं । जिस व्यक्ति ने सांख्यदर्शन का गहन अध्ययन नही किया होगा , वो मूर्ख इस उक्त श्लोक का कुछ भी अर्थ नही समझेगा । यहॉ सांख्यदर्शन की उपस्थापना की गयी है , जहॉ प्रकृति को नारी के रूप में कहा जाता है। उसी सांख्योक्त प्रकृति की यहॉ पर चर्चा आरम्भ हुई है, कि सांख्यदर्शन की जो मूल प्रकृति है वह सत्य , रज और तं इन तीन गुणों से ही अलग अलग अभिहित हो जाती है , इस मूल प्रकृति के कार्यात्मक सत्त्वगुण  को ही यहॉ भगिनी अर्थात् बहन  कहा गया है और रजोगुण को गेहिनी अर्थात् पत्नी ।और मूल प्रकृति को  माता  के रूप में अभिहित किया गया है । पोस्टकर्ता का छल -
इस पोस्ट कर्ता ने २६ वॉ  श्लोक  बदल दिया है , और २६ वें के स्थान पर सीधे २८ वॉ श्लोक २६ वॉ कहकर प्रकट किया है । जिसे आगे हम सप्रमाण दिखाने जा रहे हैं । तमोभूता च सा कन्या तस्यै देव्यै नमो नमः ।
बहवः पुरुषायेवै निर्गुणश्चैकरूपिणी ।।
( भविष्य पुराण प्रतिसर्ग पर्व खण्ड ०४ अध्याय १८ , श्लोक २६)

इस श्लोक से भी स्पष्ट रूप से सांख्यदर्शन के प्रकृति पुरुषों को ही पुत्री और पुरुषों के रूप में पहले ही स्पष्ट कर दिया गया है , ताकि किस विषय  में क्या कहा जा रहा है , ये स्पष्ट हो जाये । पोस्ट बनाने वाले ने ये सब सच्चाई आप सभी के सम्मुख नही रखी और अपना मत सिद्ध करने के लिये  पूर्वापर  के प्रसंग से अत्यन्त विरुद्ध  अर्थ करके श्लोंको के साथ  अनर्थ कर डाला । इसके बाद २७ वें श्लोक कहता है कि लोक  में  कोई भी चेतना जो अज्ञानवान् है , वह प्रकृति से ही सम्भव अर्थात् उत्पन्न है , वह तृण से लेकर ब्रह्मा पर्यन्त चाहे कोई क्यों न  हो , -
चैतन्याज्ञानवन्तश्च  लोके प्रकृतिसम्भवाः ।
अलोके पापजास्सर्वे देवब्रह्मसमुद्भवाः ।। ( भविष्य पुराण प्रतिसर्ग पर्व खण्ड ०४ अध्याय १८ श्लोक २७ )
इसके उपरान्त ही  पुराण ने कहा है कि -

या तु ज्ञानमयी नारी वृणोद्यं पुरुषं शुभम् ।
कोsपि पुत्रः पिता भ्राता स च तस्याः पतिर्भवेत् ।। ( भविष्य पुराण प्रतिसर्ग पर्व , खण्ड ०४,  अध्याय १८,  श्लोक २८)

इसका अभिप्राय है कि जो ज्ञानरूपा नारी अर्थात् सांख्योक्त बुद्धि   किसी  शुभ पुरुष अर्थात्  सांख्योक्त पुरुषों को   ग्रहण करती है ,  वह उसका पति  अर्थात् भोक्ता  होता है ,वह चाहे लोक में पुत्र हो , चाहे पिता हो या भ्राता आदि । सांख्यदर्शन में प्रकृति को भोग्या और पुरुष( जीव) को भोक्ता कहा गया है  ।  उसी प्रकृति की विकृति ज्ञानमयी नारी अर्थात् बुद्धि होती है । स्वकीयां च सुतां ब्रह्मा विष्णुदेवः स्वमातरम् ।
भगिनीं भगवांछम्भुर्गृहीत्वा श्रेष्ठतामगात् ।। ( भविष्य पुराण,  प्रतिसर्गपर्व , खण्ड ०४ , अध्याय १८ श्लोक २९ )
अर्थात् पूर्व श्लोक में सुता, माता व भगिनीरूपेण अभिहित कार्यात्मक सत्त्वगुण,  रजोगुण व  तमोगुण को ग्रहण करके भी  ब्रह्मा,  विष्णु और शम्भु श्रेष्ठता को प्राप्त हुए ।
।। जय श्री राम ।।

No comments:

Post a Comment

पूजा आदि में सिर नहीं ढंका चाहिए

शास्त्र प्रमाण:- उष्णीषो कञ्चुकी चात्र मुक्तकेशी गलावृतः ।  प्रलपन् कम्पनश्चैव तत्कृतो निष्फलो जपः ॥ अर्थात् - पगड़ी पहनकर, कुर्ता पहनकर, नग...