Friday, 29 September 2017

क्या स्त्री किसी को गुरु बना सकती है ?

*क्या स्त्री किसीको गुरु बना सकती है ?*
उत्तरᅳस्त्रीको कोई गुरु नहीं बनाना चहिये । अगर बनाया हो तो छोड़ देना चहिये । स्त्रीको पति ही उसका गुरु है । शास्त्रोंमें आया हैᅳ
*गुरुरग्निर्द्विजातीनां   वर्णानां   ब्राह्मणो  गुरुः ।*
*पतिरेव गुरुः स्त्रीणां  सर्वस्याऽभ्यागतो गुरुः ॥*
                                          *(पद्मपुराण स्वर्ग॰ ५१/५१, ब्रह्मपुराण ८०/४७)*
‘अग्नि द्विजातियोंका गुरु है, ब्राह्मण चारों वर्णोंका गुरु है, एकमात्र पति ही स्त्रियोंका गुरु है और अतिथि सबका गुरु है ।’
*वैवाहिको विधिः स्त्रीणां संस्कारो वैदिकः स्मृतः ।*
*पतिसेवा  गुरौ    वासो    गृहार्थोऽग्निपरिक्रिया ॥*
                                                       *(मनुस्मृति २/६७)*
‘स्त्रियोंके  वैवाहिक विधिका पालन ही वैदिक-संस्कार (यज्ञोपवीत), पतिकी सेवा ही गुरुकुलवास और गृह-कार्य ही अग्निहोत्र कहा गया है ।’
स्त्रीको पतिके सिवाय किसी भी पुरुषसे किसी भी प्रकारका भी सम्बन्ध नहीं जोड़ना चाहिये । स्त्रियोंसे प्रार्थना है कि वे कभी किसी साधुके फेरमें न पड़ें । आजकल बहुत ठगी, दम्भ, पाखण्ड हो रहा है । मेरे पास ऐसे पत्र भी आते हैं और भुक्तभोगी स्त्रियाँ भी आकर अपनी बात सुनाती हैं, जिससे ऐसा लगता है की वर्तमान समयमें स्त्रीके लिये गुरु बनाना अनर्थका मूल है ।
साधुको भी चाहिये कि वह किसी स्त्रीको चेली न बनाये । दीक्षा देते समय गुरुको शिष्यके हृदय आदिका स्पर्श करना पड़ता है, जबकि संन्यासीके लिये स्त्रीके स्पर्शका कड़ा निषेध है । श्रीमद्भागवतमें आया है कि हाड़-मांसमय शरीरवाली स्त्रीका तो कहना ही क्या है, लकड़ीकी बनी हुई स्त्रीका भी स्पर्श न करे और हाथसे स्पर्श करना तो दूर रहा, पैरसे भी स्पर्श न करेᅳ
*पदापि युवतीं भिक्षुर्न स्पृशेद् दारवीमपि ।*
                              *(श्रीमद्भागवत ११/८/१३)*
शास्त्रोंमें यहाँतक कहा गया हैᅳ
*मात्रा स्वस्त्रा दुहित्रा वा न विविक्तासनो भवेत् ।*
*बलवानिद्रियग्रामो  विद्वांसमपि  कर्षति ॥*
                                                *(मनु॰ २/२१५)*
‘मनुष्योंको चाहिये कि अपनी माता, बहन अथवा पुत्रीके साथ भी कभी एकान्तमें न रहें; क्योंकि इन्द्रियाँ बड़ी प्रबल होती हैं, वे विद्वान मनुष्यको भी अपनी तरफ खींच लेती हैं ।’
*संग न कुर्यात्प्रमदासु  जातु   योगस्य  पारं  परमारुरुक्षुः ।*
*मत्सेवया प्रतिलब्धात्मलाभो वदन्ति या निरयद्वारमस्य ॥*
                                                     *(श्रीमद्भागवत ३/३१/३९)*
‘जो पुरुष योगके परम पदपर आरूढ़ होना चाहता हो अथवा जिसे मेरी सेवाके प्रभावसे आत्मा-अनात्माका विवेक हो गया हो, वह स्त्रियोंका संग कभी न करे; क्योंकि उन्हें ऐसे पुरुषके लिये नरकका खुला द्वार बताया गया है ।’
*‒‘क्या गुरु बिना मुक्ति नहीं ?’* पुस्तकसे

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