Friday, 29 September 2017

क्या स्त्री किसी को गुरु बना सकती है ?

*क्या स्त्री किसीको गुरु बना सकती है ?*
उत्तरᅳस्त्रीको कोई गुरु नहीं बनाना चहिये । अगर बनाया हो तो छोड़ देना चहिये । स्त्रीको पति ही उसका गुरु है । शास्त्रोंमें आया हैᅳ
*गुरुरग्निर्द्विजातीनां   वर्णानां   ब्राह्मणो  गुरुः ।*
*पतिरेव गुरुः स्त्रीणां  सर्वस्याऽभ्यागतो गुरुः ॥*
                                          *(पद्मपुराण स्वर्ग॰ ५१/५१, ब्रह्मपुराण ८०/४७)*
‘अग्नि द्विजातियोंका गुरु है, ब्राह्मण चारों वर्णोंका गुरु है, एकमात्र पति ही स्त्रियोंका गुरु है और अतिथि सबका गुरु है ।’
*वैवाहिको विधिः स्त्रीणां संस्कारो वैदिकः स्मृतः ।*
*पतिसेवा  गुरौ    वासो    गृहार्थोऽग्निपरिक्रिया ॥*
                                                       *(मनुस्मृति २/६७)*
‘स्त्रियोंके  वैवाहिक विधिका पालन ही वैदिक-संस्कार (यज्ञोपवीत), पतिकी सेवा ही गुरुकुलवास और गृह-कार्य ही अग्निहोत्र कहा गया है ।’
स्त्रीको पतिके सिवाय किसी भी पुरुषसे किसी भी प्रकारका भी सम्बन्ध नहीं जोड़ना चाहिये । स्त्रियोंसे प्रार्थना है कि वे कभी किसी साधुके फेरमें न पड़ें । आजकल बहुत ठगी, दम्भ, पाखण्ड हो रहा है । मेरे पास ऐसे पत्र भी आते हैं और भुक्तभोगी स्त्रियाँ भी आकर अपनी बात सुनाती हैं, जिससे ऐसा लगता है की वर्तमान समयमें स्त्रीके लिये गुरु बनाना अनर्थका मूल है ।
साधुको भी चाहिये कि वह किसी स्त्रीको चेली न बनाये । दीक्षा देते समय गुरुको शिष्यके हृदय आदिका स्पर्श करना पड़ता है, जबकि संन्यासीके लिये स्त्रीके स्पर्शका कड़ा निषेध है । श्रीमद्भागवतमें आया है कि हाड़-मांसमय शरीरवाली स्त्रीका तो कहना ही क्या है, लकड़ीकी बनी हुई स्त्रीका भी स्पर्श न करे और हाथसे स्पर्श करना तो दूर रहा, पैरसे भी स्पर्श न करेᅳ
*पदापि युवतीं भिक्षुर्न स्पृशेद् दारवीमपि ।*
                              *(श्रीमद्भागवत ११/८/१३)*
शास्त्रोंमें यहाँतक कहा गया हैᅳ
*मात्रा स्वस्त्रा दुहित्रा वा न विविक्तासनो भवेत् ।*
*बलवानिद्रियग्रामो  विद्वांसमपि  कर्षति ॥*
                                                *(मनु॰ २/२१५)*
‘मनुष्योंको चाहिये कि अपनी माता, बहन अथवा पुत्रीके साथ भी कभी एकान्तमें न रहें; क्योंकि इन्द्रियाँ बड़ी प्रबल होती हैं, वे विद्वान मनुष्यको भी अपनी तरफ खींच लेती हैं ।’
*संग न कुर्यात्प्रमदासु  जातु   योगस्य  पारं  परमारुरुक्षुः ।*
*मत्सेवया प्रतिलब्धात्मलाभो वदन्ति या निरयद्वारमस्य ॥*
                                                     *(श्रीमद्भागवत ३/३१/३९)*
‘जो पुरुष योगके परम पदपर आरूढ़ होना चाहता हो अथवा जिसे मेरी सेवाके प्रभावसे आत्मा-अनात्माका विवेक हो गया हो, वह स्त्रियोंका संग कभी न करे; क्योंकि उन्हें ऐसे पुरुषके लिये नरकका खुला द्वार बताया गया है ।’
*‒‘क्या गुरु बिना मुक्ति नहीं ?’* पुस्तकसे

क्या स्त्री किसी को गुरु बना सकती है ?

*क्या स्त्री किसीको गुरु बना सकती है ?*
उत्तरᅳस्त्रीको कोई गुरु नहीं बनाना चहिये । अगर बनाया हो तो छोड़ देना चहिये । स्त्रीको पति ही उसका गुरु है । शास्त्रोंमें आया हैᅳ
*गुरुरग्निर्द्विजातीनां   वर्णानां   ब्राह्मणो  गुरुः ।*
*पतिरेव गुरुः स्त्रीणां  सर्वस्याऽभ्यागतो गुरुः ॥*
                                          *(पद्मपुराण स्वर्ग॰ ५१/५१, ब्रह्मपुराण ८०/४७)*
‘अग्नि द्विजातियोंका गुरु है, ब्राह्मण चारों वर्णोंका गुरु है, एकमात्र पति ही स्त्रियोंका गुरु है और अतिथि सबका गुरु है ।’
*वैवाहिको विधिः स्त्रीणां संस्कारो वैदिकः स्मृतः ।*
*पतिसेवा  गुरौ    वासो    गृहार्थोऽग्निपरिक्रिया ॥*
                                                       *(मनुस्मृति २/६७)*
‘स्त्रियोंके  वैवाहिक विधिका पालन ही वैदिक-संस्कार (यज्ञोपवीत), पतिकी सेवा ही गुरुकुलवास और गृह-कार्य ही अग्निहोत्र कहा गया है ।’
स्त्रीको पतिके सिवाय किसी भी पुरुषसे किसी भी प्रकारका भी सम्बन्ध नहीं जोड़ना चाहिये । स्त्रियोंसे प्रार्थना है कि वे कभी किसी साधुके फेरमें न पड़ें । आजकल बहुत ठगी, दम्भ, पाखण्ड हो रहा है । मेरे पास ऐसे पत्र भी आते हैं और भुक्तभोगी स्त्रियाँ भी आकर अपनी बात सुनाती हैं, जिससे ऐसा लगता है की वर्तमान समयमें स्त्रीके लिये गुरु बनाना अनर्थका मूल है ।
साधुको भी चाहिये कि वह किसी स्त्रीको चेली न बनाये । दीक्षा देते समय गुरुको शिष्यके हृदय आदिका स्पर्श करना पड़ता है, जबकि संन्यासीके लिये स्त्रीके स्पर्शका कड़ा निषेध है । श्रीमद्भागवतमें आया है कि हाड़-मांसमय शरीरवाली स्त्रीका तो कहना ही क्या है, लकड़ीकी बनी हुई स्त्रीका भी स्पर्श न करे और हाथसे स्पर्श करना तो दूर रहा, पैरसे भी स्पर्श न करेᅳ
*पदापि युवतीं भिक्षुर्न स्पृशेद् दारवीमपि ।*
                              *(श्रीमद्भागवत ११/८/१३)*
शास्त्रोंमें यहाँतक कहा गया हैᅳ
*मात्रा स्वस्त्रा दुहित्रा वा न विविक्तासनो भवेत् ।*
*बलवानिद्रियग्रामो  विद्वांसमपि  कर्षति ॥*
                                                *(मनु॰ २/२१५)*
‘मनुष्योंको चाहिये कि अपनी माता, बहन अथवा पुत्रीके साथ भी कभी एकान्तमें न रहें; क्योंकि इन्द्रियाँ बड़ी प्रबल होती हैं, वे विद्वान मनुष्यको भी अपनी तरफ खींच लेती हैं ।’
*संग न कुर्यात्प्रमदासु  जातु   योगस्य  पारं  परमारुरुक्षुः ।*
*मत्सेवया प्रतिलब्धात्मलाभो वदन्ति या निरयद्वारमस्य ॥*
                                                     *(श्रीमद्भागवत ३/३१/३९)*
‘जो पुरुष योगके परम पदपर आरूढ़ होना चाहता हो अथवा जिसे मेरी सेवाके प्रभावसे आत्मा-अनात्माका विवेक हो गया हो, वह स्त्रियोंका संग कभी न करे; क्योंकि उन्हें ऐसे पुरुषके लिये नरकका खुला द्वार बताया गया है ।’
*‒‘क्या गुरु बिना मुक्ति नहीं ?’* पुस्तकसे

Wednesday, 27 September 2017

पुराणमतरक्षण

पण्डितप्रवर श्री प्रज्ञान शर्मा द्वारा पुृुराण मतरक्षण

आक्षेप
पौराणिकों को अपनी माँ और बहन से कैसा व्यवहार करना चाहिये ?

या तु ज्ञानमयी नारी वृणेद्यं पुरुषं शुभम् ।
कोऽपि पुत्रः पिता भ्राता स च तस्याः पतिर्भवेत् ।।२६।।
स्वकीयां च सुतां ब्रह्मा विष्णुदेवः स्वमातरम् ।
भगिनीं भग्वाञ्छम्भुर्गृहीत्वा श्रेष्ठतामगात् ।।२७।।
इति श्रुत्वा वेदमयं वाक्यं चादितिसम्भवः ।
विवस्वान् भ्रातृजां गृहीत्वा श्रेष्ठवानभूत् ।।२८।।
( भविष्यपुराण बम्बई छापा प्रतिसर्ग ख० ४ अ०१८ )

जो ज्ञानवाली स्त्री हो वह चाहे किसी भी शुभ पुरुष को वर ले । वह चाहे उसका पुत्र , पिता , वा भाई कोई भी हो वही उसका पति हो जाता है । ब्रह्माजी ने अपनी पुत्री को, विष्णुजी ने अपनी माँ को और महादेव ने अपनी बहन को पत्नि ग्रहण करके श्रेष्ठता प्राप्त की और इस ज्ञान को सुनकर सूर्य भगवान ने अपनी भतीजी से विवाह करके श्रेष्ठता को प्राप्त किया ।

पौराणिकों अपनी मां बहन से ये सब कर पाओगे ?

प्रज्ञान शर्मा : देखो किसी भी पुराणोंक्त संस्कृत  श्लोक  का अर्थ निर्णय करने की एक शास्त्रीय पद्धति होती है जिसे षड्विध तात्पर्य ग्राहकलिंग कहा जाता है , इसका लक्षण यह है -

उपक्रमोपसंहार अभ्यासोsपूर्वताफलम् ।
अर्थवादोपपत्तिश्च लिंगं तात्पर्यनिर्णये ।।

जिसे इस शास्त्रीय पद्धति का ज्ञान नही होता , वह ऐसा ही अशुद्ध और विपरीत अर्थ निर्णय करता है , जैसा कि उक्त पोस्टकर्ता ने किया है । यह जो श्लोक वादी ने उद्धृत किया है , सर्वप्रथम इसका मूल उपक्रम देखना चाहिये , कि जिस प्रसंग में यह श्लोक अभिहित हुआ है , उसका उपक्रम क्या है ।  जिसे अभी आपको आगे हम सप्रमाण दिखाने जा रहे हैं । इस अध्याय का उपक्रम आरम्भ  है अश्विनीकुमारों की गाथा से ,  जैसा कि सूत जी स्पष्ट कह रहे हैं -

इत्युक्त्वा तान् सुरान् देवो भगवान् बृहतां पतिः ।
अश्विनौ च समालोक्य तयोर्गाथामवर्णयत् ।।

( भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व , खण्ड ०४/, अध्याय १८ ,श्लोक ०१ )
यहॉ अश्विनौ कुमार कौन हैं , इसका ज्ञान ज्ञातव्य है , क्योंकि उपक्रम उनकी गाथा अभिहित कर रहा है । पौराणिक सिद्धान्त. के अनुसार अश्विनौ कुमार देववैद्यों का नाम है , जो  आयुर्वेद की सीमा में किसी की भी देह को किसी भी रूप में परिवर्तित कर सकते हैं । इसके उपरान्त विश्वकर्मा को  अभिहित किया गया है , जैसा कि -

वैवस्वतेsन्तरेपूर्वं विश्वकर्मा विचित्रकृत् ।
चित्रगुप्तश्रियं दृष्ट्वा चित्रलेखा विनिर्मिताम् ।। 

( भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व , खण्ड ०४/, अध्याय १८ ,श्लोक ०२ )
यहॉ विश्वकर्मा  कौन हैं , ये भी ज्ञातव्य है ,  पौराणिक सिद्धान्त के अनुसार विश्वकर्मा वे  देवशिल्पी विशेष हैं , जो किसी भी पॉचभौतिक वस्तुविशेष का निर्माण कर सकते हैं । ये जो पोस्टकर्ता ने श्लोक उद्धृत किये हैं, इन श्लोकों से पूर्व स्पष्ट रूप से यह कहा जा चुका है कि -

वीरभुक्ता सदा नारी स्त्रीरत्नं मुनिभिः स्मृतिः ।
चतुर्द्धा प्रकृतिर्देवी गुणभिन्ना गुणैकिका ।।

( भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व , खण्ड ०४ , अध्याय १८ , श्लोक २४)

ध्यान दो -यहॉ पर  गुणात्मक दृष्टि से चार प्रकार की प्रकृति देवी की चर्चा आरम्भ हुई है ।
यहॉ पुराण ने कहा कि नारी जाति  सदैव वीरों से भुक्त है , वीर किसे कहते हैं ?  आर्यसमाजियों को तो बलात्कार करने वाला ही वीर लगेगा  किन्तु शास्त्र कहता है कि इन्द्रियाणां जये शूरः ० अर्थात् शूरवीर वह होता है जो अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करता है । पुराण स्वयं में क्योंकि एक शास्त्र है , ऐसे में शास्त्र का अभिप्राय शास्त्रान्तरीय सीमा में ही समझा जायेगा , मनमुखीपने में नही । याने कि स्पष्ट है कि पुराण इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखने वाले के लिये ही नारी के योग्य व्यक्ति समझता है । ये पहले ही पुराण ने स्वयं स्पष्ट कर दिया है । इसी श्लोक ने ये भी पहले ही स्पष्ट कर दिया है - स्त्रीरत्नं मुनिभिः स्मृतिः अर्थात्  पौराणिक मुनियों ने  स्त्री को रत्न की तरह सम्मान्या माना है । जैसे रत्न कीटानुविद्ध भी हो जाये तो भी वह रत्न ही रहता है , ऐसे ही यदि नारी का कोई बलात्कार भी कर दे तो भी नारी का मूल्य  समाप्त नही हो जाता , इतनी महान् दृष्टि स्त्रियों के प्रति इस श्लोक ने पहले ही स्पष्ट प्रतिपादित कर दी है । नारी के प्रति ऐसे महान् सम्मान को देने वाले भविष्य पुराण पर इतने ओछेपन के आरोप लगाने वाले किस स्तर के हैं , मुझे कुछ कहने की आवश्यकता नहीं । जिस व्यक्ति ने सांख्यदर्शन का गहन अध्ययन नही किया होगा , वो मूर्ख इस उक्त श्लोक का कुछ भी अर्थ नही समझेगा । यहॉ सांख्यदर्शन की उपस्थापना की गयी है , जहॉ प्रकृति को नारी के रूप में कहा जाता है। उसी सांख्योक्त प्रकृति की यहॉ पर चर्चा आरम्भ हुई है, कि सांख्यदर्शन की जो मूल प्रकृति है वह सत्य , रज और तं इन तीन गुणों से ही अलग अलग अभिहित हो जाती है , इस मूल प्रकृति के कार्यात्मक सत्त्वगुण  को ही यहॉ भगिनी अर्थात् बहन  कहा गया है और रजोगुण को गेहिनी अर्थात् पत्नी ।और मूल प्रकृति को  माता  के रूप में अभिहित किया गया है । पोस्टकर्ता का छल -
इस पोस्ट कर्ता ने २६ वॉ  श्लोक  बदल दिया है , और २६ वें के स्थान पर सीधे २८ वॉ श्लोक २६ वॉ कहकर प्रकट किया है । जिसे आगे हम सप्रमाण दिखाने जा रहे हैं । तमोभूता च सा कन्या तस्यै देव्यै नमो नमः ।
बहवः पुरुषायेवै निर्गुणश्चैकरूपिणी ।।
( भविष्य पुराण प्रतिसर्ग पर्व खण्ड ०४ अध्याय १८ , श्लोक २६)

इस श्लोक से भी स्पष्ट रूप से सांख्यदर्शन के प्रकृति पुरुषों को ही पुत्री और पुरुषों के रूप में पहले ही स्पष्ट कर दिया गया है , ताकि किस विषय  में क्या कहा जा रहा है , ये स्पष्ट हो जाये । पोस्ट बनाने वाले ने ये सब सच्चाई आप सभी के सम्मुख नही रखी और अपना मत सिद्ध करने के लिये  पूर्वापर  के प्रसंग से अत्यन्त विरुद्ध  अर्थ करके श्लोंको के साथ  अनर्थ कर डाला । इसके बाद २७ वें श्लोक कहता है कि लोक  में  कोई भी चेतना जो अज्ञानवान् है , वह प्रकृति से ही सम्भव अर्थात् उत्पन्न है , वह तृण से लेकर ब्रह्मा पर्यन्त चाहे कोई क्यों न  हो , -
चैतन्याज्ञानवन्तश्च  लोके प्रकृतिसम्भवाः ।
अलोके पापजास्सर्वे देवब्रह्मसमुद्भवाः ।। ( भविष्य पुराण प्रतिसर्ग पर्व खण्ड ०४ अध्याय १८ श्लोक २७ )
इसके उपरान्त ही  पुराण ने कहा है कि -

या तु ज्ञानमयी नारी वृणोद्यं पुरुषं शुभम् ।
कोsपि पुत्रः पिता भ्राता स च तस्याः पतिर्भवेत् ।। ( भविष्य पुराण प्रतिसर्ग पर्व , खण्ड ०४,  अध्याय १८,  श्लोक २८)

इसका अभिप्राय है कि जो ज्ञानरूपा नारी अर्थात् सांख्योक्त बुद्धि   किसी  शुभ पुरुष अर्थात्  सांख्योक्त पुरुषों को   ग्रहण करती है ,  वह उसका पति  अर्थात् भोक्ता  होता है ,वह चाहे लोक में पुत्र हो , चाहे पिता हो या भ्राता आदि । सांख्यदर्शन में प्रकृति को भोग्या और पुरुष( जीव) को भोक्ता कहा गया है  ।  उसी प्रकृति की विकृति ज्ञानमयी नारी अर्थात् बुद्धि होती है । स्वकीयां च सुतां ब्रह्मा विष्णुदेवः स्वमातरम् ।
भगिनीं भगवांछम्भुर्गृहीत्वा श्रेष्ठतामगात् ।। ( भविष्य पुराण,  प्रतिसर्गपर्व , खण्ड ०४ , अध्याय १८ श्लोक २९ )
अर्थात् पूर्व श्लोक में सुता, माता व भगिनीरूपेण अभिहित कार्यात्मक सत्त्वगुण,  रजोगुण व  तमोगुण को ग्रहण करके भी  ब्रह्मा,  विष्णु और शम्भु श्रेष्ठता को प्राप्त हुए ।
।। जय श्री राम ।।

Monday, 25 September 2017

उपनयन_का_महत्व_अधिकारी_व_कालनिर्णय


👉 व्रतबन्ध, यज्ञोवीत, जनेऊधारण, मौञ्जीबन्धन आदि इसके नाम प्रसिद्ध है।
👉 यह मुख्य व उत्तम वैदिकदीक्षा है।
👉 इस संस्कार से संस्कृत शरीर इस लोक व परलोक में क्रमश: वेदाध्ययनादि व कर्म्मफलोपयोग से पावन होता है।
👉 यह संस्कार द्विजत्व का कारण है।
👉 श्रौत स्मार्त्त कर्म प्रसाधनभूत यह कर्म है।
👉 ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य इसके अधिकारी है।
👉 शूद्र व किसी भी जाति की स्त्री को इसका अधिकार शास्त्रोक्त नहीं हैं।

#कालनिर्णय :-- "तस्य कालस्त्रिविध: - नित्य: काम्यो गौणश्च।" अर्थात् उपनयन काल तीन प्रकार का है। १. नित्य, २. काम्य, ३. गौण ।

१. #नित्यकाल :- अत्र नित्यं तावदुच्यते। विप्राणां ब्राह्मणानां गर्भाष्टमे...........।

अर्थात् ब्राह्मणों के गर्भाधान अथवा जन्मकाल से 8 वें वर्ष, क्षत्रियों के 11 वें वर्ष, तथा वैश्यों के 12 वें वर्ष #उपनयन का #नित्यकाल है।

२. #काम्यकाल :- अथ काम्यं - विप्राणामेव पञ्चमे गर्भाज्जनेर्वा वर्षे.............।

#ब्रह्मवर्चसकामस्य_कार्यं_विप्रस्य_पञ्चमे।
#राज्ञो_बलार्थिन: #षष्ठे_वैश्यस्यार्थार्थिनोsष्टमे।।
                ____ मनु २/३७
अर्थात् ब्रह्मवर्च्चस् (स्वाध्यायतप से उत्पन्न तेज )कामना करने बाले ब्राह्मण को 5वें वर्ष, बलार्थि क्षत्रिय को 6वें वर्ष, अर्थार्थि वैश्य को 8वें वर्ष उपनयन करना उचित है।

३. #गौणकाल :- निगदिते "गर्भाज्जनेर्वाष्टमे.." इत्यादिके काले तस्मिन् #द्विगुणिते....।
#आषोडशाद्ब्राह्मणस्य_सावित्री_नातिवर्त्तते।
#आद्वाविंशात्_क्षत्रबन्धोराचतुर्विंशतेर्विश:।।
                   ___ मनु २/३८
अर्थात् नित्यकाल में यदि संस्कार न हुआ हो तो उससे द्विगुणित काल में उपनयन कर ही देना चाहिए। यथा ब्राह्मण का नित्यकाल 8 है तो 16 वर्ष द्विगुणित हुआ अत: 16वें वर्ष में उपनयन विप्र को कर देना चाहिए। अन्य क्षत्रियादि में भी ऐसा ही समझे। इससे अधिक आयु में उपनयन नहीं होता।

👉 यदि उपरोक्त नित्य, काम्यादि काल में ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि का उपनयन न हुआ हो तो वह असंस्कृत सावित्रीपतित #व्रात्य होतें हैं। इन व्रात्यों के साथ वेदाध्ययनादि कार्य, कन्यादान एवं पाक-सम्बन्ध आपत्तिकाल में भी नहीं करना चाहिए। जैसे याज्ञवल्क्य ने कहा :--

#अत_ऊर्ध्व_पतन्त्येते_सर्वधर्मबहिष्कृता:।
#सावित्रीपतिता_व्रात्या_व्रात्यस्तोमादृते_क्रतो:।।

..........यदि व्रात्य उपनयनादि चाहे तो #व्रात्यस्तोम यज्ञ द्वारा यह सम्भव है। अन्यथा नहीं।
  
जय श्री राम

॥ श्री विष्णुषट्पदी स्तोत्र ॥

अनन्त श्री विभूषित श्रीमज्जगदगुरु आदि शंकराचार्य भगवत: कृतो " श्री विष्णु षटपदी स्तोत्रम " ।

                               ॥ श्री ॥

                   ॥ श्री विष्णुषट्पदी स्तोत्र ॥

अविनयमपनय विष्णो दमय मनः शमय विषय मृगतृष्णाम् । भूतदयां विस्तारय तारय संसारसागरतः ॥ १॥

भावार्थ:- हे भगव‍‍ान विष्णु ! मेरी उद्दण्डत‍‍ा दूर किजिये , मेरे मन का दमन किजिये और विषयों की मृगतृष्णा को शान्त कर दिजिये , प्राणियों के प्रति मेरा दयाभाव बढ़ाईये और इस संसार समुद्र से मुझे पार लगाईये ।

दिव्यधुनीमकरन्दे परिमलपरिभोगसच्चिदानन्दे ।  
श्रीपतिपदारविन्दे भवभयखेदच्छिदे वन्दे ॥ २॥

भावार्थ :- भगवान लक्ष्मीपति के उन चरणकमलों की वन्दना करता हूं जिनका मकरन्द गंगा और सौरभ सच्चिदान्नंद है तथा जो संसार के भय और खेद का छेदन करने वाले हैं ।

सत्यपि भेदापगमे नाथ तवाहं न मामकीनस्त्वम् ।
सामुद्रो हि तरङ्गः क्वचन समुद्रो न तारङ्गः ॥ ३॥

भावार्थ :- हे नाथ ! ( मुझमें और आप में ) भेद न‍ होने पर भी मैं ही आपका हूं , आप मेरे नहीं हैं ; क्योंकी तरंग ही समुद्र की होती है , तरंग का समुद्र कहीं नहीं होता ।

उद्धृतनग नगभिदनुज दनुजकुलामित्र मित्रशशिदृष्टे ।
दृष्टे भवति प्रभवति न भवति किं भवतिरस्कारः ॥ ४॥

भ‍ावार्थ :- हे गोवर्धनधारिन ! हे इन्द्र के अनुज ( वामन ) ,  हे राक्षसकुल के शत्रु ! हे सूर्य चन्द्ररुपी नेत्रवाले ! आप जैसे प्रभु का दर्शन होने पर क्या संसार के प्रति उपेक्षा नहीं हो जाती ? ( अपितु अवश्य ही हो जाती है ) ।

मत्स्यादिभिरवतारैरवतारवताऽवता सदा वसुधाम् ।
परमेश्वर परिपाल्यो भवता भवतापभीतोऽहम् ॥ ५॥

भावार्थ :- हे परमेश्वर ! मत्स्यादि अवतारों से अवतरित होकर पृथ्वी की सदा रक्षा करने वाले आपके द्वारा संसार के त्रिविध तापों से भयभीत हुअा मैं रक्षा करने के योग्य हूं ।

दामोदर गुणमन्दिर सुन्दरवदनारविन्द गोविन्द ।
भवजलधिमथनमन्दर परमं दरमपनय त्वं मे ॥ ६॥

भावार्थ :- हे गुणमन्दिर दामोदर ! हे मनोहर मुखारविन्द गोविन्द ! हे संसार समुद्र का मन्थन करने के लिये मन्दराचलरुप ! मेरे महान भय को आप दूर किजिये ।

नारायण करुणामय शरणं करवाणि तावकौ चरणौ ।
इति षट्पदी मदीये वदनसरोजे सदा वसतु ॥ ७॥ ॥

भावार्थ :- हे करुणामय नारायण ! मैं सब प्रकार से आपके चरणों की शरण हूं । यह पूर्वोक्त षटपदी ( छ: पदों की स्तुति रुपिणी भ्रमरी ) सर्वदा मेरे मुखकमल में निवास करे ।

इति श्रीमज्जगदगुरु आदि शंकराचार्य भगवत: विरचितं विष्णुषट्पदीस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

जय श्री जगन्नाथ , जय श्री हरि ।

॥ गायत्रीमन्त्राः ॥ सर्व गायत्री


1 सूर्य ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ॥

2 ॐ आदित्याय विद्महे सहस्रकिरणाय धीमहि तन्नो भानुः प्रचोदयात् ॥

3 ॐ प्रभाकराय विद्महे दिवाकराय धीमहि तन्नः सूर्यः प्रचोदयात् ॥

4 ॐ अश्वध्वजाय विद्महे पाशहस्ताय धीमहि तन्नः सूर्यः प्रचोदयात् ॥

5 ॐ भास्कराय विद्महे महद्द्युतिकराय धीमहि तन्न आदित्यः प्रचोदयात् ॥

6 ॐ आदित्याय विद्महे सहस्रकराय धीमहि तन्नः सूर्यः प्रचोदयात् ॥

7 ॐ भास्कराय विद्महे महातेजाय धीमहि तन्नः सूर्यः प्रचोदयात् ॥

8 ॐ भास्कराय विद्महे महाद्द्युतिकराय धीमहि तन्नः सूर्यः प्रचोदयात् ॥

9 चन्द्र ॐ क्षीरपुत्राय विद्महे महाकालाय धीमहि तन्नश्चन्द्रः प्रचोदयात् ॥

10 ॐ क्षीरपुत्राय विद्महे अमृतत्वाय धीमहि तन्नश्चन्द्रः प्रचोदयात् ॥

11 ॐ निशाकराय विद्महे कलानाथाय धीमहि तन्नः सोमः प्रचोदयात् ॥

12 अङ्गारक, भौम, मङ्गल, कुज ॐ वीरध्वजाय विद्महे विघ्नहस्ताय धीमहि तन्नो भौमः प्रचोदयात् ॥

13 ॐ अङ्गारकाय विद्महे भूमिपालाय धीमहि तन्नः कुजः प्रचोदयात् ॥

14 ॐ चित्रिपुत्राय विद्महे लोहिताङ्गाय धीमहि तन्नो भौमः प्रचोदयात् ॥

15 ॐ अङ्गारकाय विद्महे शक्तिहस्ताय धीमहि तन्नो भौमः प्रचोदयात् ॥

16 बुध ॐ गजध्वजाय विद्महे सुखहस्ताय धीमहि तन्नो बुधः प्रचोदयात् ॥

17 ॐ चन्द्रपुत्राय विद्महे रोहिणी प्रियाय धीमहि तन्नो बुधः
प्रचोदयात् ॥

18 ॐ सौम्यरूपाय विद्महे वाणेशाय धीमहि तन्नो बुधः प्रचोदयात् ॥

19 गुरु ॐ वृषभध्वजाय विद्महे क्रुनिहस्ताय धीमहि तन्नो गुरुः प्रचोदयात् ॥

20 ॐ सुराचार्याय विद्महे सुरश्रेष्ठाय धीमहि तन्नो गुरुः प्रचोदयात् ॥

21 शुक्र ॐ अश्वध्वजाय विद्महे धनुर्हस्ताय धीमहि तन्नः शुक्रः प्रचोदयात् ॥

22 ॐ रजदाभाय विद्महे भृगुसुताय धीमहि तन्नः शुक्रः प्रचोदयात् ॥

23 ॐ भृगुसुताय विद्महे दिव्यदेहाय धीमहि तन्नः शुक्रः प्रचोदयात् ॥

24 शनीश्वर, शनैश्चर, शनी ॐ काकध्वजाय विद्महे खड्गहस्ताय धीमहि तन्नो मन्दः प्रचोदयात् ॥

25 ॐ शनैश्चराय विद्महे सूर्यपुत्राय धीमहि तन्नो मन्दः प्रचोदयात् ॥

26 ॐ सूर्यपुत्राय विद्महे मृत्युरूपाय धीमहि तन्नः सौरिः प्रचोदयात् ॥

27 राहु ॐ नाकध्वजाय विद्महे पद्महस्ताय धीमहि तन्नो राहुः प्रचोदयात् ॥

28 ॐ शिरोरूपाय विद्महे अमृतेशाय धीमहि तन्नो राहुः प्रचोदयात् ॥

29 केतु ॐ अश्वध्वजाय विद्महे शूलहस्ताय धीमहि तन्नः केतुः प्रचोदयात् ॥

30 ॐ चित्रवर्णाय विद्महे सर्परूपाय धीमहि तन्नः केतुः प्रचोदयात् ॥

31 ॐ गदाहस्ताय विद्महे अमृतेशाय धीमहि तन्नः केतुः प्रचोदयात् ॥

32 पृथ्वी ॐ पृथ्वी देव्यै विद्महे सहस्रमर्त्यै च धीमहि तन्नः पृथ्वी प्रचोदयात् ॥

33 ब्रह्मा ॐ चतुर्मुखाय विद्महे हंसारूढाय धीमहि तन्नो ब्रह्मा प्रचोदयात् ॥

34 ॐ वेदात्मनाय विद्महे हिरण्यगर्भाय धीमहि तन्नो ब्रह्मा प्रचोदयात् ॥

35 ॐ चतुर्मुखाय विद्महे कमण्डलुधराय धीमहि तन्नो ब्रह्मा प्रचोदयात् ॥

36 ॐ परमेश्वराय विद्महे परमतत्त्वाय धीमहि तन्नो ब्रह्मा प्रचोदयात् ॥

37 विष्णु ॐ नारायणाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि तन्नो विष्णुः प्रचोदयात् ॥

38 नारायण ॐ नारायणाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि तन्नो विष्णुः प्रचोदयात् ॥

39 वेङ्कटेश्वर ॐ निरञ्जनाय विद्महे निरपाशाय (?) धीमहि तन्नः श्रीनिवासः प्रचोदयात् ॥

40 राम ॐ रघुवंश्याय विद्महे सीतावल्लभाय धीमहि तन्नो रामः प्रचोदयात् ॥

41 ॐ दाशरथाय विद्महे सीतावल्लभाय धीमहि तन्नो रामः प्रचोदयात् ॥

42 ॐ भरताग्रजाय विद्महे सीतावल्लभाय धीमहि तन्नो रामः प्रचोदयात् ॥

43 ॐ भरताग्रजाय विद्महे रघुनन्दनाय धीमहि तन्नो रामः प्रचोदयात् ॥

44 कृष्ण ॐ देवकीनन्दनाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि तन्नः कृष्णः प्रचोदयात् ॥

45 ॐ दामोदराय विद्महे रुक्मिणीवल्लभाय धीमहि तन्नः कृष्णः प्रचोदयात् ॥

46 ॐ गोविन्दाय विद्महे गोपीवल्लभाय धीमहि तन्नः कृष्णः प्रचोदयात् ।

47 गोपाल ॐ गोपालाय विद्महे गोपीजनवल्लभाय धीमहि तन्नो गोपालः प्रचोदयात् ॥

48 पाण्डुरङ्ग ॐ भक्तवरदाय विद्महे पाण्डुरङ्गाय धीमहि तन्नः कृष्णः प्रचोदयात् ॥

49 नृसिंह ॐ वज्रनखाय विद्महे तीक्ष्णदंष्ट्राय धीमहि तन्नो नारसिꣳहः प्रचोदयात् ॥

50 ॐ नृसिंहाय विद्महे वज्रनखाय धीमहि तन्नः सिंहः प्रचोदयात् ॥

51 परशुराम ॐ जामदग्न्याय विद्महे महावीराय धीमहि तन्नः परशुरामः प्रचोदयात् ॥

52 इन्द्र ॐ सहस्रनेत्राय विद्महे वज्रहस्ताय धीमहि तन्न इन्द्रः प्रचोदयात् ॥

53 हनुमान ॐ आञ्जनेयाय विद्महे महाबलाय धीमहि तन्नो हनूमान् प्रचोदयात् ॥

54 ॐ आञ्जनेयाय विद्महे वायुपुत्राय धीमहि तन्नो हनूमान् प्रचोदयात् ॥

55 मारुती ॐ मरुत्पुत्राय विद्महे आञ्जनेयाय धीमहि तन्नो मारुतिः प्रचोदयात् ॥

56 दुर्गा ॐ कात्यायनाय विद्महे कन्यकुमारी च धीमहि तन्नो दुर्गा प्रचोदयात् ॥

57 ॐ महाशूलिन्यै विद्महे महादुर्गायै धीमहि तन्नो भगवती प्रचोदयात् ॥

58 ॐ गिरिजायै च विद्महे शिवप्रियायै च धीमहि तन्नो दुर्गा प्रचोदयात् ॥

59 शक्ति ॐ सर्वसंमोहिन्यै विद्महे विश्वजनन्यै च धीमहि तन्नः शक्तिः प्रचोदयात् ॥

60 काली ॐ कालिकायै च विद्महे श्मशानवासिन्यै च धीमहि तन्न अघोरा प्रचोदयात् ॥

61 ॐ आद्यायै च विद्महे परमेश्वर्यै च धीमहि तन्नः कालीः प्रचोदयात् ॥

62 देवी ॐ महाशूलिन्यै च विद्महे महादुर्गायै धीमहि तन्नो भगवती प्रचोदयात् ॥

63 ॐ वाग्देव्यै च विद्महे कामराज्ञै च धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात् ॥

64 गौरी ॐ सुभगायै च विद्महे काममालिन्यै च धीमहि तन्नो गौरी प्रचोदयात् ॥

65 लक्ष्मी ॐ महालक्ष्मी च विद्महे विष्णुपत्नीश्च धीमहि तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात् ॥

66 ॐ महादेव्यै च विद्महे विष्णुपत्न्यै च धीमहि तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात् ॥

67 सरस्वती ॐ वाग्देव्यै च विद्महे विरिञ्चिपत्न्यै च धीमहि तन्नो वाणी प्रचोदयात् ॥

68 सीता ॐ जनकनन्दिन्यै विद्महे भूमिजायै च धीमहि तन्नः सीता प्रचोदयात् ॥

69 राधा ॐ वृषभानुजायै विद्महे कृष्णप्रियायै धीमहि तन्नो राधा प्रचोदयात् ॥

70 अन्नपूर्णा ॐ भगवत्यै च विद्महे माहेश्वर्यै च धीमहि तन्न अन्नपूर्णा प्रचोदयात् ॥

71 तुलसी ॐ तुलसीदेव्यै च विद्महे विष्णुप्रियायै च धीमहि तन्नो बृन्दः प्रचोदयात् ॥

72 महादेव ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि तन्नो रुद्रः प्रचोदयात् ॥

73 रुद्र ॐ पुरुषस्य विद्महे सहस्राक्षस्य धीमहि तन्नो रुद्रः प्रचोदयात् ॥

74 ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि तन्नो रुद्रः प्रचोदयात् ॥

75 शङ्कर ॐ सदाशिवाय विद्महे सहस्राक्ष्याय धीमहि तन्नः साम्बः प्रचोदयात् ॥

76 नन्दिकेश्वर ॐ तत्पुरुषाय विद्महे नन्दिकेश्वराय धीमहि तन्नो वृषभः प्रचोदयात् ॥

77 गणेश ॐ तत्कराटाय विद्महे हस्तिमुखाय धीमहि तन्नो दन्ती प्रचोदयात् ॥

78 ॐ तत्पुरुषाय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि तन्नो दन्तिः प्रचोदयात् ॥

79 ॐ तत्पुरुषाय विद्महे हस्तिमुखाय धीमहि तन्नो दन्ती प्रचोदयात् ॥

80 ॐ एकदन्ताय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि तन्नो दन्तिः प्रचोदयात् ॥

81 ॐ लम्बोदराय विद्महे महोदराय धीमहि तन्नो दन्तिः प्रचोदयात् ॥

82 षण्मुख ॐ षण्मुखाय विद्महे महासेनाय धीमहि तन्नः स्कन्दः प्रचोदयात्॥

83 ॐ षण्मुखाय विद्महे महासेनाय धीमहि तन्नः षष्ठः प्रचोदयात् ॥

84 सुब्रह्मण्य ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महासेनाय धीमहि तन्नः षण्मुखः प्रचोदयात् ॥

85 ॐ ॐ ॐकाराय विद्महे डमरुजातस्य धीमहि! तन्नः प्रणवः प्रचोदयात् ॥

86 अजपा ॐ हंस हंसाय विद्महे सोऽहं हंसाय धीमहि तन्नो हंसः प्रचोदयात् ॥

87 दक्षिणामूर्ति ॐ दक्षिणामूर्तये विद्महे ध्यानस्थाय धीमहि तन्नो धीशः प्रचोदयात् ॥

88 गुरु ॐ गुरुदेवाय विद्महे परब्रह्मणे धीमहि तन्नो गुरुः प्रचोदयात् ॥

89 हयग्रीव ॐ वागीश्वराय विद्महे हयग्रीवाय धीमहि तन्नो हंसः प्रचोदयात् ॥

90 अग्नि ॐ सप्तजिह्वाय विद्महे अग्निदेवाय धीमहि तन्न अग्निः प्रचोदयात् ॥

91 ॐ वैश्वानराय विद्महे लालीलाय धीमहि तन्न अग्निः प्रचोदयात् ॥

92 ॐ महाज्वालाय विद्महे अग्निदेवाय धीमहि तन्नो अग्निः प्रचोदयात् ॥

93 यम ॐ सूर्यपुत्राय विद्महे महाकालाय धीमहि तन्नो यमः प्रचोदयात् ॥

94 वरुण ॐ जलबिम्बाय विद्महे नीलपुरुषाय धीमहि तन्नो वरुणः प्रचोदयात् ॥

95 वैश्वानर ॐ पावकाय विद्महे सप्तजिह्वाय धीमहि तन्नो वैश्वानरः प्रचोदयात् ॥

96 मन्मथ ॐ कामदेवाय विद्महे पुष्पवनाय धीमहि तन्नः कामः प्रचोदयात् ॥

97 हंस ॐ हंस हंसाय विद्महे परमहंसाय धीमहि तन्नो हंसः प्रचोदयात् ॥

98 ॐ परमहंसाय विद्महे महत्तत्त्वाय धीमहि तन्नो हंसः प्रचोदयात् ॥

99 नन्दी ॐ तत्पुरुषाय विद्महे चक्रतुण्डाय धीमहि तन्नो नन्दिः प्रचोदयात् ॥

100 गरुड ॐ तत्पुरुषाय विद्महे सुवर्णपक्षाय धीमहि तन्नो गरुडः प्रचोदयात् ॥

101 सर्प ॐ नवकुलाय विद्महे विषदन्ताय धीमहि तन्नः सर्पः प्रचोदयात् ॥

102 पाञ्चजन्य ॐ पाञ्चजन्याय विद्महे पावमानाय धीमहि तन्नः शङ्खः प्रचोदयात् ॥

103 सुदर्शन ॐ सुदर्शनाय विद्महे महाज्वालाय धीमहि तन्नश्चक्रः प्रचोदयात् ॥

104 अग्नि ॐ रुद्रनेत्राय विद्महे शक्तिहस्ताय धीमहि तन्नो वह्निः प्रचोदयात् ॥

105 ॐ वैश्वानराय विद्महे लाललीलाय धीमहि तन्नोऽग्निः प्रचोदयात् ॥

106 ॐ महाज्वालाय विद्महे अग्निमथनाय धीमहि तन्नोऽग्निः प्रचोदयात् ॥

107 आकाश ॐ आकाशाय च विद्महे नभोदेवाय धीमहि तन्नो गगनं प्रचोदयात् ॥

108 अन्नपूर्णा ॐ भगवत्यै च विद्महे माहेश्वर्यै च धीमहि तन्नोऽन्नपूर्णा प्रचोदयात् ॥

109 बगलामुखी ॐ बगलामुख्यै च विद्महे स्तम्भिन्यै च धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात् ॥

110 बटुकभैरव ॐ तत्पुरुषाय विद्महे आपदुद्धारणाय धीमहि तन्नो बटुकः प्रचोदयात् ॥

111 भैरवी ॐ त्रिपुरायै च विद्महे भैरव्यै च धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात् ॥

112 भुवनेश्वरी ॐ नारायण्यै च विद्महे भुवनेश्वर्यै धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात् ॥

113 ब्रह्मा ॐ पद्मोद्भवाय विद्महे देववक्त्राय धीमहि तन्नः स्रष्टा प्रचोदयात् ॥

114 ॐ वेदात्मने च विद्महे हिरण्यगर्भाय धीमहि तन्नो ब्रह्मा प्रचोदयात् ॥

115 ॐ परमेश्वराय विद्महे परतत्त्वाय धीमहि तन्नो ब्रह्मा प्रचोदयात् ॥

116 चन्द्र ॐ क्षीरपुत्राय विद्महे अमृततत्त्वाय धीमहि तन्नश्चन्द्रः प्रचोदयात् ॥

117 छिन्नमस्ता ॐ वैरोचन्यै च विद्महे छिन्नमस्तायै धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात् ॥

118 दक्षिणामूर्ति ॐ दक्षिणामूर्तये विद्महे ध्यानस्थाय धीमहि तन्नो धीशः प्रचोदयात् ॥

119 देवी ॐ देव्यैब्रह्माण्यै विद्महे महाशक्त्यै च धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात् ॥

120 धूमावती ॐ धूमावत्यै च विद्महे संहारिण्यै च धीमहि तन्नो धूमा प्रचोदयात् ॥

121 दुर्गा ॐ कात्यायन्यै विद्महे कन्याकुमार्यै धीमहि तन्नो दुर्गा प्रचोदयात् ॥

122 ॐ महादेव्यै च विद्महे दुर्गायै च धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात् ॥

123 गणेश ॐ तत्पुरुषाय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि तन्नो दन्ती प्रचोदयात् ॥

124 ॐ एकदन्ताय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि तन्नो दन्ती प्रचोदयात् ॥

125 गरुड ॐ वैनतेयाय विद्महे सुवर्णपक्षाय धीमहि तन्नो गरुडः प्रचोदयात् ॥

126 ॐ तत्पुरुषाय विद्महे सुवर्णपर्णाय (सुवर्णपक्षाय) धीमहि तन्नो गरुडः प्रचोदयात् ॥

127 गौरी ॐ गणाम्बिकायै विद्महे कर्मसिद्ध्यै च धीमहि तन्नो गौरी प्रचोदयात् ॥

128 ॐ सुभगायै च विद्महे काममालायै धीमहि तन्नो गौरी प्रचोदयात् ॥

129 गोपाल ॐ गोपालाय विद्महे गोपीजनवल्लभाय धीमहि तन्नो गोपालः प्रचोदयात् ॥

130 गुरु ॐ गुरुदेवाय विद्महे परब्रह्माय धीमहि तन्नो गुरुः प्रचोदयात् ॥

131 हनुमत् ॐ रामदूताय विद्महे कपिराजाय धीमहि तन्नो हनुमान् प्रचोदयात् ॥

132 ॐ अञ्जनीजाय विद्महे वायुपुत्राय धीमहि तन्नो हनुमान् प्रचोदयात् ॥

133 हयग्रीव ॐ वागीश्वराय विद्महे हयग्रीवाय धीमहि तन्नो हंसः प्रचोदयात् ॥

134 इन्द्र, शक्र ॐ देवराजाय विद्महे वज्रहस्ताय धीमहि तन्नः शक्रः प्रचोदयात् ॥

135 ॐ तत्पुरुषाय विद्महे सहस्राक्षाय धीमहि तन्न इन्द्रः प्रचोदयात् ॥

136 जल ॐ ह्रीं जलबिम्बाय विद्महे मीनपुरुषाय धीमहि तन्नो विष्णुः प्रचोदयात् ॥

137 ॐ जलबिम्बाय विद्महे नीलपुरुषाय धीमहि तन्नस्त्वम्बु प्रचोदयात् ॥

138 जानकी ॐ जनकजायै विद्महे रामप्रियायै धीमहि तन्नः सीता प्रचोदयात् ॥

139 जयदुर्गा ॐ नारायण्यै विद्महे दुर्गायै च धीमहि तन्नो गौरी प्रचोदयात् ॥

140 काली ॐ कालिकायै विद्महे श्मशानवासिन्यै धीमहि तन्नोऽघोरा प्रचोदयात् ॥

141 काम ॐ मनोभवाय विद्महे कन्दर्पाय धीमहि तन्नः कामः प्रचोदयात् ॥

142 ॐ मन्मथेशाय विद्महे कामदेवाय धीमहि तन्नोऽनङ्गः प्रचोदयात् ॥

143 ॐ कामदेवाय विद्महे पुष्पबाणाय धीमहि तन्नोऽनङ्गः प्रचोदयात् ॥

144 कामकलाकाली ॐ अनङ्गाकुलायै विद्महे

145 ॐ दामोदराय विद्महे वासुदेवाय धीमहि तन्नः कृष्णः प्रचोदयात् ॥

146 ॐ देवकीनन्दनाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि तन्नः कृष्ण: प्रचोदयात्:

पूजा आदि में सिर नहीं ढंका चाहिए

शास्त्र प्रमाण:- उष्णीषो कञ्चुकी चात्र मुक्तकेशी गलावृतः ।  प्रलपन् कम्पनश्चैव तत्कृतो निष्फलो जपः ॥ अर्थात् - पगड़ी पहनकर, कुर्ता पहनकर, नग...