Saturday, 9 May 2020

शास्त्रीय सार सिद्धान्त

शास्त्रीय सार सिद्धान्त --------->

(१) कर्म जाति का अधिष्ठान है तथा जाति जन्म का अधिष्ठान है ।
            जन्म
               ^
               |
            जाति
               ^
               |
             कर्म
अतः जाति कर्ममूलक होती है तथा जन्म जातिमूलक होता है । क्रियमाण कर्म से जाति का निर्माण इसलिये नहीं हो सकता क्योंकि क्रियमाण कर्म जब तक संचित होकर प्रारब्धोन्मुख नहीं हो जाते , वे निष्फल ही रहते हैं ।

(२) समस्त वैदिक शास्त्रों का प्रतिपाद्य  सारमत पंचायतनसिद्धान्त है, जिसके अनुयायी स्मार्त कहलाते हैं  । पञ्चायतन सिद्धान्त का अर्थ है कि एक ही निर्गुण परमात्मा गणेश, दुर्गा, सूर्य , शिव तथा विष्णु के रूप में सगुण साकार हैं ।

(३) समस्त शास्त्रों का परम  प्रतिपाद्य सिद्धान्त केवलाद्वैत(अद्वैत) सिद्धान्त है ।  श्री आद्य शंकराचार्य भी इसी सिद्धान्त  के एक मुख्य प्रचारक रहे । इस कलियुग में अद्वैत संन्यास परम्परा के परम संरक्षक एवं स्वयं भगवान् शिव के अवतार होने से वे  कलियुग के जगद्गुरु हैं ।

(४)  रामानन्द सम्प्रदाय को अग्रिम चार वैष्णव सम्प्रदायों (क)  रामानुज सम्प्रदाय (ख)  माध्व सम्प्रदाय  (ग) वल्लभ सम्प्रदाय (घ)  निम्बार्क सम्प्रदाय   --  इनमें से  रामानुज सम्प्रदाय के स्थान पर  गिनकर स्वीकार करना न्यायसंगत नहीं है ।

(५) समुद्रपार विदेश यात्रा सर्वथा अशास्त्रीय है । ऐसा  यात्री प्रायश्चित्त के उपरान्त भी  इस लोक में ' पतित ' ही बना रहता है ।

(६) गुरुवंश पुराण को महर्षि वेदव्याससम्पादित  अष्टादश पुराणों के तुल्य कदापि नहीं समझा जा सकता , ना ही उसकी फलश्रुति को ही प्रामाणिक समझा जा सकता है ।

(७) पुराणों से स्मृतियों के प्रमाण प्रबल होते हैं । स्मृतियों में श्री मनुस्मृति के प्रमाण सबसे प्रबल हैं ।

(८) कर्म और ज्ञान - ये दो ही  सनातन मार्ग हैं । कर्म मार्ग के अन्तर्गत उपासना होती है तथा ज्ञान मार्ग के अन्तर्गत भक्ति होती है । भक्ति उपासना का ही परिपक्व स्वरूप है । कर्म मार्ग ही  प्रवृत्ति मार्ग है । ज्ञान मार्ग ही निवृत्ति मार्ग है ।

(९) अंगहीन को न कर्म के अनुष्ठान  में अधिकार है , न दण्ड संन्यास में ।
वह मृत्युभय उपस्थित होने पर  केवल आतुर संन्यास मात्र ले सकता है , कदाचित् भय टल गया तो एक बार संन्यास का संकल्प कर चुकने के कारण  वह फिर आगे अलिंग संन्यासी के रूप में जीवन यापन करता है । दण्डसंन्यास का फिर भी वह अधिकारी नहीं होता ।

(१०) सोलह वर्ष से पूर्व की अवस्था वाले ब्राह्मण  को बालक  कहा जा सकता है , उसका सलिंगसंन्यास में अधिकार न होना केवल अनातुर (मृत्युसंकट न आना)  दशा में ही समझना चाहिये । एक बार  आतुर संन्यास (प्राण निकलने की दशा विशेष में लिया जाने वाला संन्यासविशेष)  लेने के उपरान्त वह बालक  यदि जीवित बच जाये  तो  यदि अंगहीन नहीं  है तो सलिंग अन्यथा अलिंग संन्यास का ही  वह अधिकारी होता है ।

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