हमने भी पर्याप्त जंगली बेर खाये हैं, लेकिन चख के पता कभी नहीं करना पड़ा , रंग देख कर ही पता चल जाता है कि कैसा होगा ।
हो सकता है त्रेतायुग में कईं प्रजातियॉ रही होंगी, लेकिन प्रजाति का स्वाद पता करने के लिये तो स्थालीपुलाकन्याय से एक बार का एक ही बेर पर्याप्त है । वो भी उस स्त्री के लिये जिसने पूरा जीवन जंगल में ही काटा हो !
ये क्या कि मुंह के जूठे बेर काट काट के अतिथि देवता को खिलाये जायें ? चलो दुर्जनतोषन्याय से हम तो फिर भी आपका कहा मान लेते हैं वो मतंगशिष्या जंगली गंवार थी, पर क्या राम भी अनपढ़ थे क्या , जो किसी का जूठा खा लें ? वो राम , जो गुरुगृह गये पढ़न रघुराई । अन्तकाल विद्या सब पाई ।।
नोच्छिष्टं कस्यचिद् दद्यात् ।
उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम् ।
श्रुति स्मृति का उल्लंघन करने वाला न तो मेरा भक्त है, न वैष्णव , ऐसा कहने वाले भगवान् ने स्वयं श्रौत- स्मार्ताचार को ताक पर रखकर भक्ति के नाम पर जूठे बेर खा लिये - कितना झूठ फैला दिया गया ।
।। श्रीरामस्य जयोsस्तु ।।
No comments:
Post a Comment