शबरी जी कदापि शूद्रा न थीं ~
(१) आक्षेप : परिचारिणी थीं, अतः शूद्रा हैं -
समाधान : परिचारिणी शब्द के आधार पर शूद्रा समझे जाने पर राम के अर्घ्य पाद्य गन्धानुलेपन विशेषणरूप आतिथ्य सत्कार तथा मतंगमुनि-आश्रमवास आदि से विरोध होगा ।
छान्दोग्योपनिषद् की जबाला भी परिचारिणी थीं (चरन्ती परिचारिणी यौवने) , किन्तु त्रिकालदर्शी महर्षि गौतम उनके पुत्र की परीक्षा करके ब्राह्मण ही बताते हैं और समिधं सोम्याssहर कहकर उनका उपनयन संस्कार भी करते हैं । जाबाल मुनि के लिये ब्रह्मवैवर्तपुराण में वेदाङ्गवेदज्ञः विशेषण है, ये विशेषण उनको शूद्र समझने वालों का भी भ्रान्तिहरण कर रहा है ।
परिचर्या का अभिप्राय उपासना (सेवा) है । सेवा शूद्र का स्वाभाविक कर्म अवश्य है , किन्तु शूद्र ही सेवाचित्त वाला हो सकता है , ये नियम नहीं है । लोक में ब्राह्मणी भी अपने पति की , अतिथि की , विदुषी ब्राह्मणियों की , सन्तों की , ईश्वर की सेवा करती है ।
(२) आक्षेप : राम के चरण पकड़तीं हैं ,अतः शूद्रा हैं -
समाधान : लोकाचार की दृष्टि से ब्राह्मणी होकर क्षत्रिय अतिथि के चरण पकड़ने का आचार ब्राह्मणी न होने का भले ही पोषण करे , किन्तु ब्राह्मणी नहीं थीं, तो शूद्रा ही थीं , ऐसा भी एकान्त निर्णय नहीं करता , क्योंकि राम शुद्ध क्षत्रिय जाति के थे , ऐसी स्थिति में अनुलोम संकर क्षत्रिय , वैश्य आदि जातियों को भी चरण पकड़ने का अवकाश प्राप्त है । हीनजातिसमुद्भवा, अधमजन्मा विशेषणों का समाधान पूर्व वक्तव्य में हम कर आये हैं ।
अकथित अंश से असम्भव होने की सिद्धि नहीं हुआ करती , फलतः राम द्वारा नमन करने का प्रसंग प्राप्त न होना , उनके द्वारा नमन न करने की भी सिद्धि नहीं करता ।
शबरी जी के ब्राह्मणी पक्ष में - // दृष्ट्वा तु तदा सिद्धा समुत्थाय कृतांजलिः । पादौ जग्राह..// यहॉ चरण पकड़ने वाली शबरी के लिये #सिद्धा विशेषण उनके ब्राह्मणीपक्ष की रक्षा कर रहा है । क्योंकि लोक में सिद्ध प्राणियों में आचारमर्यादा का अतिरेक दीखने पर भी उनमें दोषप्राप्ति नहीं होती । (समरथ को नहिं दोष गोंसाई। रवि पावक सुरसरि की नाई।।) । वे मतंग मुनि की शिष्या रहीं , उनके आश्रम में वास करतीं थीं , वहीं उन्होंने तपस्या साधना की ( जैसा कि राम के तपस्या , आहारादि विषयक प्रश्नों से स्पष्ट है ) अतः शूद्रा नहीं कहा जा सकता ।
।। श्रीरामस्य जयोsस्तु ।।