Tuesday, 31 March 2020

शबरी शूद्रा नहीं थी

शबरी जी कदापि शूद्रा न थीं ~

(१) आक्षेप : परिचारिणी थीं, अतः शूद्रा हैं -

समाधान :  परिचारिणी शब्द के आधार पर शूद्रा समझे जाने पर राम के  अर्घ्य पाद्य गन्धानुलेपन विशेषणरूप आतिथ्य सत्कार  तथा मतंगमुनि-आश्रमवास आदि से विरोध होगा ।

छान्दोग्योपनिषद् की जबाला भी परिचारिणी  थीं (चरन्ती परिचारिणी यौवने) ,   किन्तु त्रिकालदर्शी महर्षि गौतम उनके पुत्र की  परीक्षा करके  ब्राह्मण ही बताते हैं  और समिधं सोम्याssहर कहकर उनका उपनयन संस्कार भी करते हैं । जाबाल मुनि के लिये ब्रह्मवैवर्तपुराण में वेदाङ्गवेदज्ञः विशेषण है, ये विशेषण उनको शूद्र समझने वालों का भी भ्रान्तिहरण कर रहा है ।

परिचर्या  का अभिप्राय उपासना (सेवा)  है । सेवा शूद्र का  स्वाभाविक कर्म अवश्य  है , किन्तु शूद्र ही सेवाचित्त वाला  हो सकता है , ये नियम नहीं है । लोक में ब्राह्मणी भी अपने पति की , अतिथि की ,  विदुषी ब्राह्मणियों की , सन्तों की , ईश्वर की सेवा करती है ।  

(२) आक्षेप : राम के चरण पकड़तीं हैं ,अतः शूद्रा हैं -

समाधान :  लोकाचार की दृष्टि से  ब्राह्मणी होकर क्षत्रिय अतिथि के  चरण पकड़ने का आचार ब्राह्मणी न होने का भले ही पोषण करे , किन्तु ब्राह्मणी नहीं थीं, तो शूद्रा ही थीं , ऐसा भी  एकान्त निर्णय नहीं करता , क्योंकि   राम शुद्ध  क्षत्रिय जाति के थे , ऐसी स्थिति में अनुलोम संकर क्षत्रिय , वैश्य आदि जातियों को भी चरण पकड़ने का  अवकाश प्राप्त है । हीनजातिसमुद्भवा, अधमजन्मा विशेषणों का समाधान पूर्व वक्तव्य  में हम कर आये हैं ।
अकथित अंश  से असम्भव होने की सिद्धि नहीं हुआ करती  , फलतः राम द्वारा नमन करने का प्रसंग प्राप्त न होना , उनके द्वारा  नमन न करने की भी सिद्धि नहीं करता ।

  शबरी जी के ब्राह्मणी पक्ष में - // दृष्ट्वा तु तदा सिद्धा समुत्थाय कृतांजलिः । पादौ जग्राह..// यहॉ  चरण पकड़ने वाली शबरी के लिये #सिद्धा विशेषण उनके   ब्राह्मणीपक्ष की रक्षा कर रहा है ।  क्योंकि लोक में सिद्ध प्राणियों में  आचारमर्यादा का अतिरेक दीखने पर भी उनमें  दोषप्राप्ति नहीं होती ।  (समरथ को नहिं दोष गोंसाई। रवि पावक सुरसरि की नाई।।) । वे  मतंग मुनि की शिष्या रहीं , उनके आश्रम में वास करतीं थीं ,  वहीं उन्होंने तपस्या साधना की ( जैसा कि राम के तपस्या , आहारादि विषयक  प्रश्नों से स्पष्ट है ) अतः शूद्रा नहीं कहा जा सकता । 

।। श्रीरामस्य जयोsस्तु ।।

Sunday, 29 March 2020

जाति और वर्ण एक ही अर्थ में प्रयुक्त हुए है

#प्रश्न - वर्ण और जाति - दोनों एक ही (समानार्थक)  शब्द हैं या अलग अलग ?

#उत्तर -   दोनों एक ही  हैं ।  वर्ण कहो  या जाति - एक ही बात है । 

ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य और शूद्र - ये चार  वर्ण मानव   की  प्रधान  जातियॉ हैं ।

श्री ब्रह्माजी नामक  ब्रह्मलोक के महान् देवता  के  दिव्य  मुखादि  अंगों से  सृष्टि के आरम्भ में   पैदा हुए - इसलिये इनको #जाति कहते हैं, परमात्मा  ने इन जीवों को इनके पूर्वजन्मों के  गुण -कर्मों से चुना था , इसलिये ये #वर्ण कहलाते हैं । 

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#प्रश्न -इन दोनों शब्दों का एकार्थ किस रीति  सिद्ध है , क्योंकि  वर्णऔर जाति  शब्द  तो अलग अलग हैं ?

#उत्तर - जैसे, -

#कानन  और #अरण्य    -ये परस्पर     पर्यायवाची शब्द है ।  दोनों शब्द जिस  वन  का  बोध कराते हैं, वो  बोध  एक ही है ।

इसी प्रकार, -

वर्ण और जाति - ये पर्यायवाची शब्द हैं । दोनों शब्द जिस  ब्राह्मणादि  का बोध कराते हैं, वो एक ही है ।

जैसे , -

कानन का अर्थ कस्य ब्रह्मणः  आननम्    इस प्रकार  ब्रह्ममुख आदि  भी  किया जा सकता है,  अथवा कं जलम् अननं जीवनम् अस्य इस प्रकार अन्यार्थ भी प्रयोग किये जा सकते हैं,

इसी प्रकार, -

वर्ण शब्द के अन्य भी अनेक अर्थ हो सकते हैं , किन्तु इन सब विविधार्थों के मध्य  अरण्य या वन अर्थ भी कानन का होता है, इसी प्रकार वर्ण शब्द का अर्थ जाति  होता है, इसमें  किसी भी प्रकार की  कोई विप्रतिपत्ति नहीं है ।

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#प्रश्न - तो फिर  हिन्दू धर्म की  जाति व्यवस्था का  तरह तरह  प्रकारों से  लोग विरोध क्यों करते हैं आजकल ?

#उत्तर -  सुनिये, -

जिनके बाप -दादे  अपने पुरखों की शुद्ध जाति परम्परा से गिर कर म्लेच्छ हो  गये हैं, ऐसे कुछ   स्वधर्मभ्रष्ट परिवारों  की सन्तानें  कहती हैं कि जाति व्यवस्था   हिन्दू धर्म का  कोई भी  अंग नहीं है ।

किन्तु जिनके बाप दादे अपने पुरखों की शुद्ध जाति परम्परा को सम्भालते हुए आये , ऐसे तपस्वियों की सन्तानें कहती हैं जाति व्यवस्था हिन्दू धर्म की आधारशिला है ।

धार्मिक जाति व्यवस्था का विरोध करना  वस्तुतः लोगों की  व्यक्तिगत / पारिवारिक समस्या की पहचान है ।

।। जय श्री राम ।।

शबरी का झूठे वेर खिलाने का खण्ड

हमने भी पर्याप्त  जंगली बेर खाये हैं, लेकिन चख के पता कभी नहीं करना पड़ा , रंग देख कर ही पता चल जाता है कि कैसा होगा ।

हो सकता है त्रेतायुग में कईं प्रजातियॉ रही होंगी, लेकिन प्रजाति का स्वाद  पता करने के लिये तो स्थालीपुलाकन्याय से  एक बार का एक ही बेर पर्याप्त है ।  वो भी उस स्त्री के लिये जिसने पूरा जीवन जंगल में ही काटा हो !

ये क्या कि मुंह के जूठे बेर काट काट के अतिथि देवता को खिलाये जायें ? चलो दुर्जनतोषन्याय से  हम तो फिर भी आपका कहा मान लेते हैं वो मतंगशिष्या  जंगली गंवार थी, पर क्या राम भी अनपढ़ थे क्या , जो किसी का जूठा खा लें ? वो राम , जो गुरुगृह गये पढ़न रघुराई । अन्तकाल विद्या सब पाई ।।

नोच्छिष्टं कस्यचिद् दद्यात् ।

उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम् ।

श्रुति स्मृति का उल्लंघन करने वाला न तो मेरा भक्त है, न  वैष्णव , ऐसा कहने वाले भगवान् ने स्वयं श्रौत- स्मार्ताचार को ताक पर रखकर भक्ति के नाम पर  जूठे बेर खा लिये - कितना झूठ फैला दिया गया ।

।। श्रीरामस्य जयोsस्तु ।।

शवरी ब्राह्मणी थी

शबरी जी :  शंका समाधान ----

अध्यात्म रामायण में शबरी जी के विषय में दो विशेषण हैं - 
(१) हीनजातिसमुद्भवा
(२) अधमजन्मा

और शबरी के  आचारकर्म के भी दो ध्यातव्य विशेषण हैं -

(१) अर्घ्यादिभिरादृता
  (२) सुगन्धैः सानुलेपनैः (सम्पूज्य)

अर्थात् शबरी हीन जाति में पैदा हुईं थीं , वे अधमजन्मा थीं  और उन्होंने अर्घ्य, पाद्य  से पूजन करके भगवान् राम को तिलक भी लगाया ।

अब जो लोग शबरी को शूद्रा समझते हैं , उनका विरोध अर्घ्य, तिलकादि पूजन कर देते हैं , क्योंकि शूद्रा स्त्री को क्षत्रिय को अर्घ्य , पाद्य देने और  स्पर्श करते हुए  गन्ध लेपन करने का कितना शास्त्रीय अधिकार है , ये सर्वविदित है ।

ऐसे में प्रश्न ये है कि फिर शबरी जी के लिये प्रयुक्त दो   जातिपरक  विशेषणों का क्या भाव है ?  इसका समाधान यह है कि शबरी जी के उक्त दो विशेषण  या तो उनकी स्त्री जाति होने के कारण ही प्रयुक्त हुए हैं (ब्राह्मणी पक्ष में) क्योंकि   जाति शब्द केवल वर्णगत ही नहीं प्रयोग  हुआ करता , वरन् योनिगत भी प्रयुक्त होता है , जैसे - मनुष्य जाति , पशु जाति , पक्षी जाति , स्त्री जाति , पुरुष जाति आदि । पुरुष जाति के सापेक्ष स्त्री जाति के  अवर होने के कारण ही उक्त दो विशेषणों का होना संगत है ।  शास्त्रानुसार स्त्री जाति को पापयोनि कहा गया है । ( मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येsपि स्युः पापयोनयः । स्त्रियो वैश्यस्तथा शूद्रास्तेsपि यान्ति परां गतिम् ।। )  अतः शबरी जी का स्वयं के स्त्री जाति होने के कारण ही स्वयं को हीनजातिसमुद्भवा कहा गया । यही संगत है ।
तभी तो गोस्वामी जी ने शबरीमुख से कहलवाया भी है - अधम ते अधम अधम अति नारी । तिन्ह मंह मैं मतिमन्द अघारी ।।
अथवा क्षत्रिय जाति से अवर जाति - अनुलोम संकर क्षत्रिय, वैश्य जाति आदि के कारण प्रयुक्त हुए   ।

श्री धर्मसम्राट् करपात्री जी महाराज ने रामायण मीमांसा ग्रन्थ में शबरी जी को ब्राह्मणी बताया है । 

कृतातिथ्य रघुश्रेष्ठम् - शबरी जी ने रघुकुल के राम चन्द्र का आतिथ्य किया था । कहा जाता है , भरत के अनुमोदन पर गिरि काननरूप  अरण्यभाग का शासन  राम ही कर रहे थे । राजा आतिथ्य का अधिकारी है । ऐसी स्थिति में शबरी जी का आचार शास्त्रोचित ही था ।
मर्यादा पुरुषोत्तम राम भला शास्त्रविरुद्ध आचार को अनुमोदन कर भी कैसे सकते थे !

राम वशिष्ठ ऋषि से शिक्षा पाये थे, वशिष्ठ धर्मसूत्र , वशिष्ठ स्मृति जन्मना वर्णव्यवस्था की ही पोषक है ।  स्वयं राम के पूर्वज महाराज मनु की मनुस्मृति जन्मना वर्णव्यवस्था का ही अनुमोदन करती है । अतः राम अपने गुरु , पिता - पूर्वजों के ही मार्ग पर चले थे, उन्हीं की मान्य आचार परम्परा को पोषित किये थे , ये सिद्ध है ।

।। श्रीरामस्य जयोsस्तु ।।

पूजा आदि में सिर नहीं ढंका चाहिए

शास्त्र प्रमाण:- उष्णीषो कञ्चुकी चात्र मुक्तकेशी गलावृतः ।  प्रलपन् कम्पनश्चैव तत्कृतो निष्फलो जपः ॥ अर्थात् - पगड़ी पहनकर, कुर्ता पहनकर, नग...