किसी ने स्वामी रामभद्राचार्य के प्रश्न का उत्तर मांगा है , वे सुने -
मनु ने यत्र नार्यस्तु० यह श्लोक तीसरे अध्याय में प्रत्येक कुल (परिवार ) के प्रसंग में कहा है कि प्रत्येक कुल के सदस्य अपने कुल परिवार में स्त्रियों की यथाविधि पूजा -आदर -सत्कार करें किन्तु आगे चलकर नवें अध्याय में -
नास्ति स्त्रीणां क्रिया मन्त्रैरिति धर्मे व्यवस्थितिः ।
निरिन्द्रिया ह्यमन्त्राश्च स्त्रीभ्योsनृतमिति स्थितिः ।।
- इस श्लोक द्वारा मनु ने उसी स्त्री की स्पष्ट शब्दों में शास्त्रीय मर्यादा भी स्पष्ट की कि इन स्त्रियों का जातकर्मादि संस्कार वेदोक्त मन्त्रों से नहीं होता, यह धर्मशास्त्र की मर्यादा है , धर्मप्रमाण श्रुति-स्मृति से हीन और पापनाशक ( वेदोक्त अघमर्षणादि) मन्त्रों के जप का अधिकार न होने से पापयुक्त वे स्त्रियॉ असत्य के समान अपवित्र हैं , यह शास्त्र की मर्यादा है - इस प्रकार मनु के ही वचन से स्पष्ट है कि परिवार में स्त्री के पूज्यत्व के आधार पर स्त्री की जो शास्त्र ने मर्यादा कही है, उसे न तो लांघा ही जा सकता है , ना ही स्त्री को पूज्य बताकर शास्त्रीय मर्यादाओं की अनुचित व्याख्या करके सभ्यों के सम्मुख स्वयं अपना ही मुंह काला करके रख देना विवेकशीलता है ।
यहॉ ध्यातव्य है कि श्री आद्य शंकराचार्य का कहा हुआ द्वारं किमेकं ० वचन का तो इन उभय विषयों से ही कोई लेना देना नहीं वरन् वह तो कुल परिवारों के पालनीय गृहस्थ धर्मों से उपरत हो चुके एक संन्यासी के लिये नारी के प्रति कायिक मानसिक सभी रूप से सदैव सावधान रहने के उद्देश्य से कहा गया क्योंकि संन्यासी के लिये स्त्री के विषय में शास्त्र ने जो संन्यासी के लिये विधि निषेध कहा है, उससे स्पष्ट है कि यदि संन्यासी अपनी पूर्वाश्रम की स्त्री के प्रति भी कदाचित् कायिक या मानसिक रूप से भी सम्बन्ध करता है तो , वह स्त्री शास्त्रमर्यादा लंघन रूप पाप के बल से उसके लिये नरक का द्वार बने बिना नहीं रहती ।
जरा सुनो कैसे नारी नरक की द्वार है संन्यासी के लिये -
पहले नरक शब्द का अभिप्राय क्या क्या होता है , इतना सुनो , आचार्य यास्क कहते हैं - नरक का अर्थ है न्यरक अर्थात् अधोगति अथवा नरक नामक स्थानविशेष , जिसमें थोड़ा सा भी सुखकर स्थान नहीं होता है -
नरकं न्यरकं नीचैर्गमनं नास्मिन् रमणं स्थानमल्पमप्यस्तीति वा (निरुक्त १।३)
अब संन्यासी के प्रति शास्त्र क्या कहते हैं ----
जो संन्यासी होकर फिर से स्त्री का सेवन करता है , वह साठ हजार वर्ष तक विष्ठा का कीड़ा होकर पैदा होता है -
यस्तु प्रव्रजितो भूत्वा पुनः सेवेत मैथुनम् ।
षष्टिवर्षसहस्त्राणि विष्ठायां जायते कृमिः ।।
(वायु, भविष्य , स्कन्दादि पुराण , वशिष्ठादि ऋषियों के वचन )
कात्यायन मुनि का वचन है कि स्त्री सम्पर्क से संन्यासी पतित हो जाता है -
द्रव्यस्त्रीमांससम्पर्कान्मधुमाक्षिकलेहनात् ।
विचारस्य परित्यागाद्यतिः पतनमृच्छति ।।
यहॉ तक कि भिक्षा जैसी पवित्र वस्तु भी हरेक स्त्री से न ले संन्यासी, जैसा कि क्रतु का वचन है -
भर्तुहीना तु या नारी स्वतन्त्रा बन्धुवर्जिता ।
तदन्नं नैव भोक्तव्यं भुक्त्वा चान्द्रायणं चरेत् ।।
इस तरह के सैकड़ों वचन यत्र तत्र शास्त्रों में प्रकाशित हैं किन्तु कहा गया है कि जिसके पास प्रज्ञा रूपी नेत्र ही न हो वे शास्त्र से भी करेगा क्या , जैसे एक ऑख का अंधा व्यक्ति दर्पण से क्या करेगा -
यस्य नास्ति स्वयंप्रज्ञा शास्त्रं तस्य करोति किम् ।
लोचनाभ्यां विहीनस्य दर्पणः किं करिष्यति ।।
साभार - श्रीमान् आचार्यवर
।। जय श्री राम ।।
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