Friday, 25 October 2019

पात्रशुद्धि, कन्याभेद

अथ श्री पराशरस्मृतिः
              【 सप्तमोध्यायः】
अथातो द्रव्यशुद्धिस्तु पराशरवचो यथा ।
दारवाणां पात्राणां तक्षणाच्छुद्धिरिष्यते ।। ७.१ ।।

भस्मना शुध्यते कांस्यं ताम्रमम्लेन शुध्यति ।
रजसा शुध्यते नारी विकलं या न गच्छति ।। ७.२ ।।

नदी वेगेन शुध्येत लोपो यदि न दृश्यते ।
वापीकूपतडागेषु दूषितेषु कथंचन ।। ७.३ ।।

उद्धृत्य वै घटशतं पञ्चगव्येन शुध्यति ।
अष्टवर्षा भवेद्गौरी नववर्षा तु रोहिणी ।। ७.४ ।।

दशवर्षा भवेत्कन्या अत ऊर्ध्वं रजस्वला ।
प्राप्ते तु द्वादशे वर्षे यः कन्यां न प्रयच्छति ।। ७.५ ।।

मासि मासि रजस्तस्याः पिबन्ति पितरः स्वयम् ।
माता चैव पिता चैव ज्येष्ठो भ्राता तथैव च ।। ७.६ ।।

त्रयस्ते नरकं यान्ति दृष्ट्वा कन्यां रजस्वलाम् ।
यस्तां समुद्वहेत्कन्यां ब्राह्मणो मदमोहितः ।। ७.७ ।।

असंभाष्यो ह्यपाङ्क्तेयः स विप्रो वृषलीपतिः ।
यः करोत्येकरात्रेण वृषलीसेवनं द्विजः ।। ७.८ ।।

स भैक्षभुज्जपन्नित्यं त्रिभिर्वर्षैर्विशुध्यति ।
अस्तंगते यदा सूर्ये चण्डालं पतितं स्त्रियम् ।। ७.९ ।।

सूतिकां स्पृशतश्चैव कथं शुद्धिर्विधीयते ।
जातवेदः सुवर्णं च सोममार्गं विलोक्य च ।। ७.१० ।।

ब्राह्मणानुमतश्चैव स्नानं कृत्वा विशुध्यति ।
स्पृष्ट्वा रजस्वलान्योन्यं ब्राह्मणी ब्राह्मणी तथा ।। ७.११ ।।

तावत्तिष्ठेन्निराहारा त्रिरात्रेणैव शुध्यति ।
स्पृष्ट्वा रजस्वलान्योन्यं ब्राह्मणी क्षत्रिया तथा ।। ७.१२ ।।

अर्धकृच्छ्रं चरेत्पूर्वा पादं एकं अनन्तरा ।
स्पृष्ट्वा रजस्वलान्योन्यं ब्राह्मणी वैश्यजा तथा ।। ७.१३ ।।

पादहीनं चरेत्पूर्वा पादं एकं अनन्तरा ।
स्पृष्ट्वा रजस्वलान्योन्यं ब्राह्मणी शूद्रजा तथा ।। ७.१४ ।।

कृच्छ्रेण शुध्यते पूर्वा शूद्रा दानेन शुध्यति ।
स्नाता रजस्वला या तु चतुर्थेऽहनि शुध्यति ।। ७.१५ ।।

कुर्याद्रजो निवृत्तौ तु दैवपित्र्यादि कर्म च ।
रोगेण यद्रजः स्त्रीणां अन्वहं तु प्रवर्तते ।। ७.१६ ।।

नाशुचिः सा ततस्तेन तत्स्याद्वैकालिकं मतम् ।
साध्वाचारा न तावत्स्याद्रजो यावत्प्रवर्तते ।। ७.१७ ।।

रजोनिवृत्तौ गम्या स्त्री गृहकर्मणि चैव हि ।
प्रथमेऽहनि चण्डाली द्वितीये ब्रह्मघातिनी ।। ७.१८ ।।

तृतीये रजकी प्रोक्ता चतुर्थेऽहनि शुध्यति ।
आतुरे स्नानोत्पन्ने दशकृत्वो ह्यनातुरः ।। ७.१९ ।।

स्नात्वा स्नात्वा स्पृशेदेनं ततः शुध्येत्स आतुरः ।
उच्छिष्टोच्छिष्टसंस्पृष्टः शुना शूद्रेण वा द्विजः ।। ७.२० ।।

उपोष्य रजनीं एकां पञ्चगव्येन शुध्यति ।
अनुच्छिष्टेन शूद्रेण स्पर्शे स्नानं विधीयते ।। ७.२१ ।।

तेनोच्छिष्टेन संस्पृष्टः प्राजापत्यं समाचरेत् ।
भस्मना शुध्यते कांस्यं सुरया यन्न लिप्यते ।। ७.२२ ।।

सुरामात्रेण संस्पृष्टं शुध्यतेऽग्न्युपलेखनैः ।
गवाघ्रातानि कांस्यानि श्वकाकोपहतानि च ।। ७.२३ ।।

शुध्यन्ति दशभिः क्षारैः शूद्रोच्छिष्टानि यानि च ।
गण्डूषं पादशौचं च कृत्वा वै कांस्यभाजने ।। ७.२४ ।।

षण्मासान्भुवि निःक्षिप्य उद्धृत्य पुनराहरेत् ।
आयसेष्वायसानां च सीसस्याग्नौ विशोधनं ।। ७.२५ ।।

दन्तं अस्थि तथा भृङ्गं रूप्यं सौवर्णभाजनम् ।
मणिपाषाणपात्राणीत्येतान्प्रक्षालयेज्जलैः ।। ७.२६ ।।

पाषाणे तु पुनर्घर्षः शुद्धिरेवं उदाहृता ।
मृण्मये दहनाच्छुद्धिर्धान्यानां मार्जनादपि ।। ७.२७ ।।

वेणुवल्कलचीराणां क्षौमकार्पासवाससाम् ।
और्णनेत्रपटानां च प्रोक्षणाच्छुद्धिरिष्यते ।। ७.२८ ।।

मुञ्जोपस्करशूर्पाणां शणस्य फलचर्मणाम् ।
तृणकाष्ठस्य रज्जूणां उदकाभ्युक्षणं मतं ।। ७.२९ ।।

तूलिकाद्युपधानानि रक्तवस्त्रादिकानि च ।
शोषयित्वातपेनैव प्रोक्षणाच्छुद्धितां इयुः ।। ७.३० ।।

मार्जारमक्षिकाकीट पतङ्गकृमिदर्दुराः ।
मेध्यामेध्यं स्पृशन्तोऽपि नोच्छिष्टं मनुरब्रवीत् ।। ७.३१ ।।

महीं स्पृष्ट्वागतं तोयं याश्चाप्यन्योन्यविप्रुषः ।
भुक्तोच्छिष्टं तथा स्नेहं नोच्छिष्टं मनुरब्रवीत् ।। ७.३२ ।।

ताम्बूलेक्षुफले चैव भुक्तस्नेहानुलेपने ।
मधुपर्के च सोमे च नोच्छिष्टं धर्मतो विदुः ।। ७.३३ ।।

रथ्याकर्दमतोयानि नावः पन्थास्तृणानि च ।
मारुतार्केण शुध्यन्ति पक्वेष्टकचितानि च ।। ७.३४ ।।

अदुष्टा संतता धारा वातोद्धूताश्च रेणवः ।
स्त्रियो वृद्धाश्च बालाश्च न दुष्यन्ति कदाचन ।। ७.३५ ।।

देशभङ्गे प्रवासे वा व्याधिषु व्यसनेष्वपि ।
रक्षेदेव स्वदेहादि पश्चाद्धर्मं समाचरेत् ।। ७.३६ ।।

येन केन च धर्मेण मृदुना दारुणेन वा ।
उद्धरेद्दीनं आत्मानं समर्थो धर्मं आचरेत् ।। ७.३७ ।।

आपत्काले तु निस्तीर्णे शौचाचारं तु चिन्तयेत् ।
शुद्धिं समुद्धरेत्पश्चात्स्वस्थो धर्मं समाचरेत् ।। ७.३८ ।।

Tuesday, 15 October 2019

रामभद्राचार्य को उत्तर

किसी ने स्वामी रामभद्राचार्य के प्रश्न का उत्तर मांगा है ,  वे सुने -

मनु ने  यत्र नार्यस्तु०  यह श्लोक तीसरे अध्याय में प्रत्येक  कुल (परिवार ) के प्रसंग में कहा है  कि प्रत्येक  कुल के सदस्य अपने कुल परिवार  में स्त्रियों की यथाविधि  पूजा -आदर -सत्कार करें   किन्तु आगे चलकर नवें अध्याय में  -

नास्ति स्त्रीणां क्रिया मन्त्रैरिति धर्मे व्यवस्थितिः ।
निरिन्द्रिया ह्यमन्त्राश्च स्त्रीभ्योsनृतमिति स्थितिः  ।।

-  इस श्लोक द्वारा मनु ने उसी  स्त्री की   स्पष्ट शब्दों में शास्त्रीय मर्यादा भी स्पष्ट की कि इन स्त्रियों का जातकर्मादि संस्कार वेदोक्त मन्त्रों से नहीं होता, यह धर्मशास्त्र की मर्यादा है , धर्मप्रमाण श्रुति-स्मृति से हीन और पापनाशक ( वेदोक्त अघमर्षणादि) मन्त्रों के जप का अधिकार न होने से  पापयुक्त वे स्त्रियॉ असत्य के समान अपवित्र हैं , यह शास्त्र की मर्यादा है  - इस प्रकार मनु के ही वचन से स्पष्ट है कि  परिवार में स्त्री के पूज्यत्व के आधार पर स्त्री की  जो शास्त्र ने मर्यादा कही है, उसे न तो लांघा ही जा सकता है , ना ही स्त्री को पूज्य बताकर  शास्त्रीय मर्यादाओं की अनुचित व्याख्या करके सभ्यों  के सम्मुख स्वयं  अपना ही मुंह काला करके रख देना  विवेकशीलता है  ।

यहॉ ध्यातव्य है कि श्री आद्य शंकराचार्य का कहा हुआ द्वारं किमेकं ० वचन का तो इन उभय विषयों से ही कोई लेना देना नहीं वरन् वह तो  कुल परिवारों के पालनीय गृहस्थ धर्मों से उपरत हो चुके  एक संन्यासी के लिये नारी के प्रति कायिक मानसिक सभी   रूप से  सदैव सावधान रहने के उद्देश्य से कहा गया क्योंकि संन्यासी के लिये स्त्री के विषय में शास्त्र ने जो संन्यासी के लिये विधि निषेध कहा है, उससे स्पष्ट है कि  यदि संन्यासी अपनी   पूर्वाश्रम की स्त्री के प्रति भी कदाचित्  कायिक या मानसिक रूप से भी सम्बन्ध करता है तो , वह स्त्री शास्त्रमर्यादा लंघन रूप पाप के बल से  उसके लिये  नरक का द्वार  बने बिना नहीं रहती ।

जरा सुनो कैसे नारी नरक की द्वार है संन्यासी के लिये -

पहले नरक शब्द का अभिप्राय क्या क्या होता है , इतना सुनो , आचार्य यास्क कहते हैं - नरक का अर्थ है न्यरक अर्थात् अधोगति  अथवा नरक नामक स्थानविशेष , जिसमें थोड़ा सा भी सुखकर स्थान नहीं होता है -

नरकं न्यरकं नीचैर्गमनं नास्मिन् रमणं  स्थानमल्पमप्यस्तीति वा (निरुक्त १।३)

अब संन्यासी के प्रति शास्त्र क्या कहते हैं ----

जो संन्यासी होकर फिर से स्त्री का सेवन करता है , वह साठ हजार वर्ष तक विष्ठा का कीड़ा होकर पैदा होता है -

यस्तु प्रव्रजितो भूत्वा पुनः सेवेत मैथुनम् ।
षष्टिवर्षसहस्त्राणि विष्ठायां जायते कृमिः ।।
(वायु, भविष्य , स्कन्दादि पुराण , वशिष्ठादि ऋषियों के वचन )

कात्यायन मुनि का वचन है कि स्त्री सम्पर्क से संन्यासी पतित हो जाता है -

द्रव्यस्त्रीमांससम्पर्कान्मधुमाक्षिकलेहनात् ।
विचारस्य परित्यागाद्यतिः पतनमृच्छति ।।

यहॉ तक कि भिक्षा जैसी  पवित्र वस्तु भी हरेक  स्त्री से न ले संन्यासी,  जैसा कि क्रतु का वचन है -

भर्तुहीना तु या नारी  स्वतन्त्रा बन्धुवर्जिता ।
तदन्नं नैव भोक्तव्यं भुक्त्वा चान्द्रायणं चरेत् ।।

इस तरह के सैकड़ों वचन यत्र तत्र शास्त्रों में प्रकाशित हैं किन्तु  कहा गया है कि जिसके पास प्रज्ञा रूपी नेत्र ही न हो वे  शास्त्र से भी करेगा क्या , जैसे एक ऑख का अंधा व्यक्ति दर्पण से क्या करेगा -

यस्य नास्ति स्वयंप्रज्ञा शास्त्रं तस्य करोति किम् ।
लोचनाभ्यां विहीनस्य दर्पणः किं करिष्यति ।।

साभार - श्रीमान् आचार्यवर

।। जय श्री राम ।।

Friday, 11 October 2019

आवेश आने वाली हरेक स्त्री माता है ?

आजकल देवी मॉओं का चलन कुछ ज्यादा ही  देश में चल गया है ।  तरह तरह की स्त्रियॉ बड़ी बड़ी कारों में मातारानी बनकर घूम रही हैं ।

यद्यपि भगवती देवी किसी महिला में अवतरित हैं या फिर कोई अन्य देवशक्तियॉ अवतरित हैं तो वे महिलाविशेष देवी की उपस्थिति के कारण देवी रूप में सम्मान्य है , किन्तु  ये भी पहले स्पष्ट हो कि किस महिला में देवी का अवतरण है , किस में नहीं, इसके लिये मार्गरहता  है कि उनके कहे हुए भविष्यसूचक वचनों का   असाधारणरूप में फलित होना या फिर  आपको ही स्वयं कोई दैवीय साक्षात्कारपूर्वक इसका ज्ञान हुआ हो । अतः हिन्दुओं को बहुत सावधान इस विषय में रहने की आवश्यकता है ।

धर्मानुसार कौन है माता ?

यद्यपि समस्त स्त्रियॉ भगवती की ही विविध भेद-कलाऐं हैं ,  किन्तु हरेक स्त्री को माता  नहीं कहा जा सकता ।  सनातन हिन्दू धर्म के अनुसार   हर किसी भी वर्ण की  महिलाऐं   समाज की माता बनने का अधिकारिणी नहीं होतीं , वरन्  कुलीन ब्राह्मणी स्त्री ही  सभी  अन्य वर्णों के हिन्दुओं के लिये मातास्वरूपा है एवं अपनी माता तो सबके लिये प्रत्यक्ष माता है ही ।

इसलिये किसी को मानवीय रूप में ही  मातारानी को कुछ भेंट करने की कामना हो तो  कुलीन ब्राह्मण कुलों की महिलाओं को  अन्न- वस्त्र आदि  दान देना चाहिये ।

।। जय श्री राम ।।

पूजा आदि में सिर नहीं ढंका चाहिए

शास्त्र प्रमाण:- उष्णीषो कञ्चुकी चात्र मुक्तकेशी गलावृतः ।  प्रलपन् कम्पनश्चैव तत्कृतो निष्फलो जपः ॥ अर्थात् - पगड़ी पहनकर, कुर्ता पहनकर, नग...