Tuesday, 17 September 2019

सर्वरोग हरने का मन्त्र

सर्वरोगहर अच्युतानंदगोविंदनामजप विधिः। संकल्प - विष्णवे नमः विष्णवे नमः विष्णवे नमः  (अपने स्वयं के लिए "मम" अथवा जिसके लिए जप करना हो उसके नाम के पीछे --- पुरुष हो तो "रुग्णस्य", स्त्री हो तो "रुग्णायाः" पढे) इह जन्मजन्मांतरीय शरीरवाङ्गमनः संभूतनानाविध दुरितोदर्क कर्मविपाक-निदानभूत वातपित्तकफादि , अन्यतमप्रकोपजन्य व्याध्युपशमपूर्वं जीवच्छरीर अविरोधेन सद्यः शरीरे आरोग्यावाप्त्यर्थं समस्त दुस्तर व्याधि संघध्वंसक्षमस्य अच्युतानंतगोविंद इति श्री मद्भगवतोनामत्रयस्य अद्यप्रभृति (जप ब्राह्मण द्वारा करवाना हो तो "ब्राह्मणद्वारा" स्वयं करना चाहे तो "अहं" पढे) लक्षाऽयुताष्टाधिकसहस्र = ११८००० संख्याकजपाख्यं कर्म करिष्ये। गणेशं अभ्यर्च्य [(अपनी सामर्थ्यतानुसार गणपतिजी का पूजन करे, ब्राह्मण द्वारा जप करवाना हो तो ब्राह्मण का वरण और पूजन करे-- जिस ब्राह्मण की वरण(नियुक्ति) की जाय वही ब्राह्मण जप पूर्ण होनेतक जप करे उसके बदले में अन्य नहीं -- सविशेष यदि यजमान अथवा ब्राह्मण के घर जननमरण-सूतक आजावें तो अनुष्ठान विराम नहीं होगा न ब्राह्मण व यजमान को सूतक लगेगा , यदि यजमान वा ब्राह्मण अपने सूतकीगृह का पका अन्न खाएगा तो सूतक लगेगा, जिस यजमान ने संकल्प किया हो उसकी पत्नी किसी सूतकी के स्पर्श किए हुए अन्नादि से भोजनपचनक्रिया न करे ऐसा करने से सूतक लगेगा अतः अनुष्ठान के प्रारम्भपूर्व ही अपनी भोजन की व्यवस्था निश्चित्त कर ले। यदि यजमान अनुपवीत हो, वैश्य हो ,व्रात्य हो , पतित हो तो उसके घर ब्राह्मण भोजन न करे केवल प्राकृत्तिक फल,गाय ,महिषी का परिक्षण किया हुआ दूध व इसकी सामग्री जिसमें कुछ अन्नादिमिश्र न हुआ हो वे ले सकते हैं - दूध,दही,छाछ,घृत,फल,मठा, कन्द(सूरण) , आदि ले परंतु मुन्यन्न(राजगरा) न ले )]

जप विनियोग - अस्य श्री नामत्रयीमहामंत्रस्य कश्यपात्रिभरद्वाजाऋषयः श्री महाविष्णुर्देवता अनुष्टुप् छंदः सांकल्पिकहेतु सिद्ध्यर्थे न्यासे विनियोगः -
कश्यपात्रिभरद्वाजर्षये नमः शिरसि। अनुष्टुप् छंदसे नमो मुखे। श्री महाविष्णुर्देवतायै नमः हृदये। श्री महाविष्णुप्रीत्यर्थे जपे विनियोगः --->
अच्युताय अंगुष्ठाभ्यां नमः
अनंताय तर्जनीभ्यां नम:

सर्वरोग हरने का मन्त्र

सर्वरोगहर अच्युतानंदगोविंदनामजप विधिः। संकल्प - विष्णवे नमः विष्णवे नमः विष्णवे नमः  (अपने स्वयं के लिए "मम" अथवा जिसके लिए जप करना हो उसके नाम के पीछे --- पुरुष हो तो "रुग्णस्य", स्त्री हो तो "रुग्णायाः" पढे) इह जन्मजन्मांतरीय शरीरवाङ्गमनः संभूतनानाविध दुरितोदर्क कर्मविपाक-निदानभूत वातपित्तकफादि , अन्यतमप्रकोपजन्य व्याध्युपशमपूर्वं जीवच्छरीर अविरोधेन सद्यः शरीरे आरोग्यावाप्त्यर्थं समस्त दुस्तर व्याधि संघध्वंसक्षमस्य अच्युतानंतगोविंद इति श्री मद्भगवतोनामत्रयस्य अद्यप्रभृति (जप ब्राह्मण द्वारा करवाना हो तो "ब्राह्मणद्वारा" स्वयं करना चाहे तो "अहं" पढे) लक्षाऽयुताष्टाधिकसहस्र = ११८००० संख्याकजपाख्यं कर्म करिष्ये। गणेशं अभ्यर्च्य [(अपनी सामर्थ्यतानुसार गणपतिजी का पूजन करे, ब्राह्मण द्वारा जप करवाना हो तो ब्राह्मण का वरण और पूजन करे-- जिस ब्राह्मण की वरण(नियुक्ति) की जाय वही ब्राह्मण जप पूर्ण होनेतक जप करे उसके बदले में अन्य नहीं -- सविशेष यदि यजमान अथवा ब्राह्मण के घर जननमरण-सूतक आजावें तो अनुष्ठान विराम नहीं होगा न ब्राह्मण व यजमान को सूतक लगेगा , यदि यजमान वा ब्राह्मण अपने सूतकीगृह का पका अन्न खाएगा तो सूतक लगेगा, जिस यजमान ने संकल्प किया हो उसकी पत्नी किसी सूतकी के स्पर्श किए हुए अन्नादि से भोजनपचनक्रिया न करे ऐसा करने से सूतक लगेगा अतः अनुष्ठान के प्रारम्भपूर्व ही अपनी भोजन की व्यवस्था निश्चित्त कर ले। यदि यजमान अनुपवीत हो, वैश्य हो ,व्रात्य हो , पतित हो तो उसके घर ब्राह्मण भोजन न करे केवल प्राकृत्तिक फल,गाय ,महिषी का परिक्षण किया हुआ दूध व इसकी सामग्री जिसमें कुछ अन्नादिमिश्र न हुआ हो वे ले सकते हैं - दूध,दही,छाछ,घृत,फल,मठा, कन्द(सूरण) , आदि ले परंतु मुन्यन्न(राजगरा) न ले )]

जप विनियोग - अस्य श्री नामत्रयीमहामंत्रस्य कश्यपात्रिभरद्वाजाऋषयः श्री महाविष्णुर्देवता अनुष्टुप् छंदः सांकल्पिकहेतु सिद्ध्यर्थे न्यासे विनियोगः -
कश्यपात्रिभरद्वाजर्षये नमः शिरसि। अनुष्टुप् छंदसे नमो मुखे। श्री महाविष्णुर्देवतायै नमः हृदये। श्री महाविष्णुप्रीत्यर्थे जपे विनियोगः --->
अच्युताय अंगुष्ठाभ्यां नमः
अनंताय तर्जनीभ्यां नम:

वेद किसे कहतें हैं ? दयानन्दभ्रमभंग

दयानन्दीयभ्रान्तिगिरिभङ्ग , पृष्ठ १,  वेदों के भाग मन्त्र और ब्राह्मण
                                                                                                                                                  वैदिक सनातन धर्म में मन्त्र और ब्राह्मण इन दोनों को “ वेद ”-नाम से कहा गया है—

“ मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम् ”—कात्यायन+आपस्तम्ब |

  ब्राह्मण शब्द की व्युत्पत्ति है—“ ब्रह्मणो—मन्त्रात्मकस्य वेदस्य इदम्—यज्ञक्रियादितद्बोधक

मन्त्र व्याख्यानस्वरूपप्रतिपादकं प्रवचनं ब्राह्मणम् “ | ब्रह्म अर्थात मन्त्रामक जो संहिता भाग है

उससे सम्बद्ध अर्थात् यज्ञादि कर्मों एवं उनके बोधक मन्त्रों  के व्याख्यानात्मक स्वरूप का

प्रतिपादक प्रवचन ब्राह्मण कहा जाता है |


ब्रह्म का अर्थ “ मन्त्र ” वेद से ही ज्ञात होता है—ब्रह्म वै मन्त्रः—शतपथ ब्राह्मण-७/१/१/५,

भट्टभास्कर जैसे भाष्यकार कहते हैं कि जिस ग्रन्थ में यज्ञादि कर्म और उनसे सम्बद्ध मन्त्रों

का व्याख्यान हो उसे ब्राह्मण कहते हैं—

“ ब्राह्मणं नाम कर्मणस्तन्मन्त्राणांच व्याख्यानग्रन्थः “—तै०सं०—१/५/१,


       अब प्रकृत में आयें | स्वामी दयानंद ब्राह्मण भाग के वेदत्व का खंडन करने के लिए लिखते हैं

—“लौकिकास्तावद् गौरश्वः पुरुषो हस्ती शकुनिर्मृगो ब्राह्मण इति |वैदिकाः खल्वपि “ शन्नो

देवीरभीष्टये , इषे त्वोर्जे वा ,अग्निमीले पुरोहितम्,अग्न आयाहि वीतये इति | यदि

ब्राह्मणभागस्यापि वेदासंज्ञाsभीष्टाभूत्तर्हि तेषामप्युदाहणणमदाद् महाभाष्यकारः |-

-“ किन्तु यानि गौरश्व इत्यादीनि लौकिकोदाहरणानि दत्तानि तानि ब्राह्मणादिग्रन्थेष्वेव घटन्ते,

कुतः? तेष्वीदृशशब्दव्यवहारदर्शनात् “|

--------------ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका—वेदसंज्ञाविचारप्रकरण, 


     स्वामी जी यहाँ कह रहे हैं कि महाभाष्यकार पतंजलि ब्राह्मण भाग को वेद नही मानते ,क्योंकि

उन्होंने लिखा है कि लौकिक लोग गौः, अश्वः, पुरुषः, हस्ती, शकुनिः,मृगः,ब्राह्मणः—ऐसा प्रयोग

करते हैं और वैदिक लोग –“ शन्नो देवी---वीतये “ ऐसा प्रयोग |


यदि महाभाष्यकार को ब्राह्मणभाग की वेदसंज्ञा अभीष्ट होती तो उसका भी उदाहरण ऋग्वेद

आदि के मन्त्रों की तरह देते, किन्तु दिए नही, अतः महाभाष्यकार को मन्त्रभाग की ही वेदसंज्ञा

अभिमत है,इसीलिये उन्होंने मन्त्रभाग के ही प्रथम मंत्र के प्रतीक को लेकर उदाहरण के रूप में

प्रस्तुत किया |



आचार्य सियारामदास नैयायिक—वाह स्वामी जी ! आपकी तर्कोपस्थापनकला अद्भुत है और

महाभाष्य का अध्ययन भी गजब | क्योंकि “ महाभाष्य के पस्पशाह्निक में ही महाभाष्यकार

ब्राह्मणभाग के उन वाक्यों को प्रस्तुत करते हैं जिन पर आप जैसे महामनीषी की दृष्टि ही नही

गयी—


“ वेदे खल्वपि –‘ पयोव्रतो ब्राह्मणः-यवागूव्रतो राजन्यः-आमिक्षाव्रतो वैश्यः ‘ इत्युच्यते |---बैल्वः

खादिरो वा यूपः स्यात् |--अग्नौ कपालान्यधिश्रित्याभिमन्त्रयते “|--

    यहाँ भगवान भाष्यकार ने “ वेदे “ इस शब्द से वेद का नाम लेकर “ पयोव्रतो ब्राह्मणः—इत्यादि

से जिन वाक्यों को प्रस्तुत किया है वे ब्राह्मणभाग के ही तो हैं | मन्त्रभाग में तो उनका दर्शन ही

दुर्लभ है |और स्वामी जी ! आपकी पुस्तक “ संस्कार विधि “ के पृष्ठ ७९ के अनुसार “ पयोव्रतः "

शतपथ ब्राह्मण का वचन है | “ बैल्वाः खादिरो वा “—ऐतरेय ब्राह्मण की द्वितीय पंचिका के

आरम्भ में है |

यदि ब्राह्मणभाग महाभाष्यकार को वेद मान्य नही होता, तो वे वेद का नाम लेकर ब्राह्मणभाग के

वाक्यों को क्यों उद्धृत करते ? ऐसे ही अनेक स्थलों में महाभाष्यकार ने ब्राह्मणभाग के वाक्यों को

उद्धृत किया है, हम “ स्थालीपुलाक ” न्याय से एक स्थल को दिखाकर आगे बढ़ेंगे-–

आचारे नियमः—आचारे पुनर्ऋषिर्नियमं वेदयते –“ तेsसुरा हेलयो हेलय इति कुर्वन्तः पराबभूवुः “

इति |--पस्पशाह्निक,

    यहाँ ऋषिः का अर्थ महावैयाकरण कैयट वेद लिखते हैं –ऋषिः –वेदः—प्रदीप |  और यह वाक्य

आप कहीं भी मन्त्रभाग में नहीं दिखा सकते | ऐसे बहुत से ब्राह्मणभाग के वाक्य महाभाष्यकार

द्वारा वेदत्वेन उल्लिखित हैं | अतः महाभाष्यकार भी ब्राह्मणभाग को वेद मानते हैं |


     स्वामी दयानन्द पर आपत्ति—आपने ब्राह्मणभाग के वेदत्व का खण्डन करते हुए जो यह लिखा—

“ किन्तु यानि गौरश्व इत्यादीनि लौकिकोदाहरणानि दत्तानि तानि ब्राह्मणादिग्रन्थेष्वेव घटन्ते, कुतः?


तेष्वीदृशशब्दव्यवहारदर्शनात् “ |-- जो गौः अश्वः इत्यादि लौकिक उदाहरण दिए गए हैं वे ब्राह्मण

आदि ग्रन्थों में ही घटते हैं, क्योंकि उन्ही में ऐसे शब्दप्रयोग देखे जाते हैं |


यहाँ “ तानि ब्राह्मणादिग्रन्थेष्वेव घटन्ते “—वाक्य में एवकार का प्रयोग आपके मानसिक इलाज की

और संकेत कर रहा है , क्योंकि महाभाष्यकार ने जिन ७ गौः आदि प्रयोगों का नाम लिया है क्या उतने

ही  लोक में प्रयुक्त होते हैं? या उससे अधिक ?

    प्रथम कल्प अंगीकार्य नही हो सकता ,क्योंकि उनसे भिन्न घटः, पटः,राजा

,रक्षान्सि,पिशाचाः,इन्द्रः,हव्यवाहम्,आदि बहुत से प्रयोग हैं जो लोक में प्रयुक्त होते हैं |


   यदि द्वितीय पक्ष स्वीकार करें,तो उनका प्रयोग मन्त्रभाग में भी प्रचुर मात्रा में मिलने से

“ तानि ब्राह्मणादिग्रन्थेष्वेव घटन्ते, कुतः? तेष्वीदृशशब्दव्यवहारदर्शनात् “ कथन की धज्जी उड़

जायेगी |

    देखें उनकी कुछ झलक-- “ रक्षांसि,पिशाचाः—अथर्ववेद—१/६/३४/२,इन्द्रः-ऋग्वेद—

५/७/९/१,हव्यवाहम्—ऋग्वेद-८/१/१२,  ,हिरण्यम्,दुहिता—शुक्ल यजुर्वेद-१९/४, आदि --

ये प्रयोग मन्त्रभाग में भी मिलते हैं |


इतना ही नही महाभाष्यकार द्वारा प्रदर्शित सभी लौकिक प्रयोग मन्त्रभाग में मिलते हैं |

देखें—गौः+अश्वः –ये दोनो शब्द यजुर्वेद में आये है | पुरुषः+ब्राह्मण—शब्द यजुर्वेद, हस्ती शब्द

–अथर्ववेद-३/४/२२/३,, शकुनि+मृग--शब्द–ऋग्वेद, अतः केवल अहंकार से आक्रान्त आपके

अनुसार अब तो मन्त्रभाग भी वेद नही कहा जा सकता क्योंकि वे प्रयोग यहाँ भी मिल रहे हैं |

    चले थे ब्राह्मणभाग के वेदत्व  का खंडन करने, उलटे संहिताभाग के वेदत्व से ही हाथ धो बैठे—

“ चौबे गए छब्बे बनने दुबे बनकर लौटे “ कहावत चरितार्थ हो गयी |

>>>>>जय श्रीराम, जय वैदिक सनातन धर्म<<<<<

  --ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका का क्रमशः खण्डन-- आचार्य सियारामदास नैयायिक

Friday, 13 September 2019

प्रत्येक ब्राह्मण को ये ११ चीजें पता होनी चाहिए

प्रत्येक सनातनधर्मलम्बी को अपनी कुल परम्परा का सम्पूर्ण परिचय निम्न  ११ (एकादश) बिन्दुओं के माध्यम से ज्ञात होना चाहिए -

[१ ]  गोत्र ।

[२ ]  प्रवर ।

[३ ]  वेद ।

[४]  उपवेद ।

[५]  शाखा ।

[६]  सूत्र ।

[७]  छन्द ।

[८]  शिखा ।

[९]  पाद  ।

[१०]  देवता ।

[११]  द्वार ।

  [१] गोत्र - गोत्र का अर्थ है कि वह कौन से ऋषिकुल का है या उसका जन्म किस ऋषिकुल से सम्बन्धित है । किसी व्यक्ति की वंश-परम्परा जहां से प्रारम्भ होती है, उस वंश का गोत्र भी वहीं से प्रचलित होता गया है। हम सभी जानते हें की हम किसी न किसी ऋषि की ही संतान है, इस प्रकार से जो जिस ऋषि से प्रारम्भ हुआ वह उस ऋषि का वंशज कहा गया । इन गोत्रों के मूल ऋषि – विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ, कश्यप- इन सप्तऋषियों और आठवें ऋषि अगस्त्य की संतान गोत्र कहलाती है। यानी जिस व्यक्ति का गौत्र भारद्वाज है, उसके पूर्वज ऋषि भारद्वाज थे और वह व्यक्ति इस ऋषि का वंशज है। इन गोत्रों के अनुसार इकाई को । इस प्रकार कालांतर में ब्राह्मणो की संख्या बढ़ते जाने पर पक्ष ओर शाखाये बनाई गई । इस तरह इन सप्त ऋषियों पश्चात उनकी संतानों के विद्वान ऋषियों के नामो से अन्य गोत्रों का नामकरण हुआ यथा पाराशर गोत्र वशिष्ट गोत्र से ही संबंधित है।

[२ ] प्रवर -

प्रवर का अर्थ हे 'श्रेष्ठ" । अपनी कुल परम्परा के पूर्वजों एवं महान ऋषियों को प्रवर कहते हें । अपने कर्मो द्वारा ऋषिकुल में प्राप्‍त की गई श्रेष्‍ठता के अनुसार उन गोत्र प्रवर्तक मूल ऋषि के बाद होने वाले व्यक्ति, जो महान हो गए वे उस गोत्र के प्रवर कहलाते हें। इसका अर्थ है कि आपके कुल में आपके गोत्रप्रवर्त्तक मूल ऋषि के अनन्तर तीन अथवा पाँच आदि अन्य ऋषि भी विशेष महान हुए थे ।

[३ ] वेद -

वेदों का साक्षात्कार ऋषियों ने लाभ किया है , इनको सुनकर  कंठस्थ किया जाता है , इन वेदों के उपदेशक गोत्रकार ऋषियों के जिस भाग का अध्ययन, अध्यापन, प्रचार प्रसार, आदि किया, उसकी रक्षा का भार उसकी संतान पर पड़ता गया इससे उनके पूर्व पुरूष जिस वेद ज्ञाता थे तदनुसार वेदाभ्‍यासी कहलाते हैं। प्रत्येक  का अपना एक विशिष्ट वेद होता है , जिसे वह अध्ययन -अध्यापन करता है ।

[४] उपवेद -

प्रत्येक वेद  से  सम्बद्ध  विशिष्ट  उपवेद  का  भी  ज्ञान  होना  चाहिये  ।

[५]  शाखा -

वेदो के विस्तार के साथ ऋषियों ने प्रत्येक एक गोत्र के लिए एक वेद के अध्ययन की परंपरा डाली है , कालान्तर में जब एक व्यक्ति उसके गोत्र के लिए निर्धारित वेद पढने में असमर्थ हो जाता था तो ऋषियों ने वैदिक परम्परा को जीवित रखने के लिए शाखाओं का निर्माण किया। इस प्रकार से प्रत्येक गोत्र के लिए अपने वेद की उस शाखा का पूर्ण अध्ययन करना आवश्यक कर दिया। इस प्रकार से उन्‍होने जिसका अध्‍ययन किया, वह उस वेद की शाखा के नाम से पहचाना गया।

[६]  सूत्र -

प्रत्येक वेद के अपने 2 प्रकार के सूत्र हैं।श्रौत सूत्र और ग्राह्य सूत्र।यथा  शुक्ल यजुर्वेद का कात्यायन श्रौत सूत्र और पारस्कर ग्राह्य सूत्र है।

[७]  छन्द  -

उक्तानुसार ही प्रत्येक ब्राह्मण को  अपने परम्परासम्मत   छन्द का  भी  ज्ञान  होना  चाहिए  ।

[८]  शिखा -

अपनी कुल परम्परा के अनुरूप शिखा को दक्षिणावर्त अथवा वामावार्त्त रूप से बांधने  की परम्परा शिखा कहलाती है ।

[९]  पाद -

अपने-अपने गोत्रानुसार लोग अपना पाद प्रक्षालन करते हैं । ये भी अपनी एक पहचान बनाने के लिए ही, बनाया गया एक नियम है । अपने -अपने गोत्र के अनुसार ब्राह्मण लोग पहले अपना बायाँ पैर धोते, तो किसी गोत्र के लोग पहले अपना दायाँ पैर धोते, इसे ही पाद कहते हैं ।

[१०]  देवता - 

प्रत्येक वेद या शाखा का पठन, पाठन करने वाले उसी शाखा के वेद का आराध्य ही  किसी विशेष देव की आराधना करते है वही उनका कुल देवता  विष्णु, शिव , दुर्गा ,सूर्य इत्यादि  देवों में से कोई एक ] उनके आराध्‍य देव है ।

[११]  द्वार - 

यज्ञ मण्डप में अध्वर्यु (यज्ञकर्त्ता )  जिस दिशा अथवा द्वार से प्रवेश करता है अथवा जिस दिशा में बैठता है, वही उस गोत्र वालों की द्वार या दिशा  कही जाती है।

श्रोत स्मार्त हमारी मूल वैदिक परंपरा हे ।
शैव , वैष्णव , शाक्त विगेरे इष्टदेव प्राधान्य दर्शाता है , मगर स्वधर्म स्वशाखा में ही हे , इष्ट पांच में से एक हो शकते है मगर परंपरा तो स्मार्त ही है जो मूल वैदिक है । पंथवादि,  मतवादी , में फस कर हिंदू बिखर गये हे , स्मार्त सब को एक जुठ बनाता हे ।

स्वशाखा के ग्रंथों पर पठन मनन चिंतन आचरण और उन पर कहे सुने प्रवचन व्याख्या और वित्सार ही सत्संग हे ।

सनातन संस्कृति की चार पीठ मूल वैदिक पीठ है वो सिर्फ शांकर पीठ नही , मूल वैदिक पीठ है ये चारों पीठ ही हमारी मुख्य धारा है हम सब उनकी शाखा ।

।। महादेव ।।

माघ मास में गाय के प्रसव होने पर शान्ति

*#सिंहगते_सूर्ये_गोप्रसवजनित #विघ्नहर_विधानम्=->*

माघ मास में बुधवार को महिषी, श्रावण में दिन को घोड़ी, सिंहसंक्रान्ति में गाय की प्रसूति हो तो पालक-स्वामि को निश्चित्त मरणतुल्य पीड़ा प्राप्त होती हैं | तद्दोष परिहार के लिए विधान( गणपतिपूजन, पुण्याहवाचन, मातृकापूजन, नान्दीश्राद्ध, आचार्यादि वरण, प्रधान पटल अनुसार देवतास्था०पूजा०, उक्त-सूक्तादि पाठ-जप(सौर सूक्तपाठ), अग्निस्थापन, ग्रहस्थापन, रुद्रकलशार्चन, रुद्रसूक्तजप, ग्रहहोम, प्रधानादि होम,अभिषेक,पूर्णाहुति, आज्यावलोकन आदि उचितशांतिविधानानुसार)पूर्वक प्रधान होम सूर्य की तुष्टि हेतु सौरसूक्त से सहस्र संख्यामें तिल,घृत,पायस,शर्करा प्रत्येक द्रव्य से १०००/१००० आहुतियाँ बुद्धिमान् व्यक्ति देकर अष्टमहादान अथवा आठों की पृथक् पृथक् निष्क्रयी दान करने से किसी भी प्रकार का विघ्न नहीं रहता ----->

#माघे_बुधे_च_महिषी_श्रावणे_वडवा_दिवा | #सिंहे_गावः_प्रसूयन्ते_स्वामिनो_मरणं_ध्रुवम् || #विधानं_तत्र_कर्तव्यं_नरेण_हितमिच्छता | #सौरैः_सूक्तैः_प्रकर्तव्यो_होमः_सूर्यस्य_तुष्टये || #प्रधानं_तिलसर्पीषि_पायसं_शर्करायुतम् | #सहस्रं_हवनं_प्रोक्तं_दानान्यष्टौ_यथाविधि | #सहस्रकिरण(सूर्य)#प्रीत्यै_कर्तव्यानि_च_धीमता || #एवं_कृते_विधाने_च_विघ्नः_कोऽपि_न_जायते ||

विधानमालायां विघ्नहर विधानम् -- दशरात्रव्यतितायां द्वादशे-दिनेकार्यम् --> (अजा गावो महिष्यश्च ब्राह्मणी च प्रसूतिका | दशरात्रेण शुद्ध्यन्ति भूमिस्थं च नवोदकम् ||) वा शुभे अग्निवास सहिते मुर्हूते ....|

#अष्टदानानि--> *(तिलं लोहं हिरण्यं च कार्पासं लवणं तथा | सप्तधान्यं क्षितिर्गाव एकैकं पावनं स्मृतम् ||गरु०२/४/३९||)* रुद्रदैवतां गां,  विष्णुदैवतां भूमिं, प्रजापति दैवतं तिलान्, हिरण्यमग्निदैवतं, प्रजापति दैवतं धान्यं, सोम दैवतं लवणं, वनस्पति दैवतं कार्पासं, महाभैरवदैवतं लौहम्...|

#सप्तधान्यानि ----> जौ, गेहूँ, धान, तिल, टाँगुन,साँवा, चना ---> *(यवगोधूमधान्यानि तिलाः कङ्कुस्तथैव च / श्यामाकं चीनकश्चैव सप्तधान्यमुदाहृतम् ||षट्त्रिंशन्मत||)*
शस्यं क्षेत्रगतं प्राहुः सतुषं धान्यमुच्यते || आमान्नं वितुषं प्रोक्तं सिद्धमन्नं प्रकीर्तितम् ||
(२) जौ,धान, तिल, कँगनी, मूँग, चना और साँवा ----->
*(यवधान्यतिलाः कंगुमुद्ग चणकश्यामकाः / एतानि सप्तधान्यानि सर्वकार्येषु योजयेत् ||)*

ॐस्वस्ति || पु ह शास्त्री उमरेठ ||

पूजा आदि में सिर नहीं ढंका चाहिए

शास्त्र प्रमाण:- उष्णीषो कञ्चुकी चात्र मुक्तकेशी गलावृतः ।  प्रलपन् कम्पनश्चैव तत्कृतो निष्फलो जपः ॥ अर्थात् - पगड़ी पहनकर, कुर्ता पहनकर, नग...