Tuesday, 17 September 2019

वेद किसे कहतें हैं ? दयानन्दभ्रमभंग

दयानन्दीयभ्रान्तिगिरिभङ्ग , पृष्ठ १,  वेदों के भाग मन्त्र और ब्राह्मण
                                                                                                                                                  वैदिक सनातन धर्म में मन्त्र और ब्राह्मण इन दोनों को “ वेद ”-नाम से कहा गया है—

“ मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम् ”—कात्यायन+आपस्तम्ब |

  ब्राह्मण शब्द की व्युत्पत्ति है—“ ब्रह्मणो—मन्त्रात्मकस्य वेदस्य इदम्—यज्ञक्रियादितद्बोधक

मन्त्र व्याख्यानस्वरूपप्रतिपादकं प्रवचनं ब्राह्मणम् “ | ब्रह्म अर्थात मन्त्रामक जो संहिता भाग है

उससे सम्बद्ध अर्थात् यज्ञादि कर्मों एवं उनके बोधक मन्त्रों  के व्याख्यानात्मक स्वरूप का

प्रतिपादक प्रवचन ब्राह्मण कहा जाता है |


ब्रह्म का अर्थ “ मन्त्र ” वेद से ही ज्ञात होता है—ब्रह्म वै मन्त्रः—शतपथ ब्राह्मण-७/१/१/५,

भट्टभास्कर जैसे भाष्यकार कहते हैं कि जिस ग्रन्थ में यज्ञादि कर्म और उनसे सम्बद्ध मन्त्रों

का व्याख्यान हो उसे ब्राह्मण कहते हैं—

“ ब्राह्मणं नाम कर्मणस्तन्मन्त्राणांच व्याख्यानग्रन्थः “—तै०सं०—१/५/१,


       अब प्रकृत में आयें | स्वामी दयानंद ब्राह्मण भाग के वेदत्व का खंडन करने के लिए लिखते हैं

—“लौकिकास्तावद् गौरश्वः पुरुषो हस्ती शकुनिर्मृगो ब्राह्मण इति |वैदिकाः खल्वपि “ शन्नो

देवीरभीष्टये , इषे त्वोर्जे वा ,अग्निमीले पुरोहितम्,अग्न आयाहि वीतये इति | यदि

ब्राह्मणभागस्यापि वेदासंज्ञाsभीष्टाभूत्तर्हि तेषामप्युदाहणणमदाद् महाभाष्यकारः |-

-“ किन्तु यानि गौरश्व इत्यादीनि लौकिकोदाहरणानि दत्तानि तानि ब्राह्मणादिग्रन्थेष्वेव घटन्ते,

कुतः? तेष्वीदृशशब्दव्यवहारदर्शनात् “|

--------------ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका—वेदसंज्ञाविचारप्रकरण, 


     स्वामी जी यहाँ कह रहे हैं कि महाभाष्यकार पतंजलि ब्राह्मण भाग को वेद नही मानते ,क्योंकि

उन्होंने लिखा है कि लौकिक लोग गौः, अश्वः, पुरुषः, हस्ती, शकुनिः,मृगः,ब्राह्मणः—ऐसा प्रयोग

करते हैं और वैदिक लोग –“ शन्नो देवी---वीतये “ ऐसा प्रयोग |


यदि महाभाष्यकार को ब्राह्मणभाग की वेदसंज्ञा अभीष्ट होती तो उसका भी उदाहरण ऋग्वेद

आदि के मन्त्रों की तरह देते, किन्तु दिए नही, अतः महाभाष्यकार को मन्त्रभाग की ही वेदसंज्ञा

अभिमत है,इसीलिये उन्होंने मन्त्रभाग के ही प्रथम मंत्र के प्रतीक को लेकर उदाहरण के रूप में

प्रस्तुत किया |



आचार्य सियारामदास नैयायिक—वाह स्वामी जी ! आपकी तर्कोपस्थापनकला अद्भुत है और

महाभाष्य का अध्ययन भी गजब | क्योंकि “ महाभाष्य के पस्पशाह्निक में ही महाभाष्यकार

ब्राह्मणभाग के उन वाक्यों को प्रस्तुत करते हैं जिन पर आप जैसे महामनीषी की दृष्टि ही नही

गयी—


“ वेदे खल्वपि –‘ पयोव्रतो ब्राह्मणः-यवागूव्रतो राजन्यः-आमिक्षाव्रतो वैश्यः ‘ इत्युच्यते |---बैल्वः

खादिरो वा यूपः स्यात् |--अग्नौ कपालान्यधिश्रित्याभिमन्त्रयते “|--

    यहाँ भगवान भाष्यकार ने “ वेदे “ इस शब्द से वेद का नाम लेकर “ पयोव्रतो ब्राह्मणः—इत्यादि

से जिन वाक्यों को प्रस्तुत किया है वे ब्राह्मणभाग के ही तो हैं | मन्त्रभाग में तो उनका दर्शन ही

दुर्लभ है |और स्वामी जी ! आपकी पुस्तक “ संस्कार विधि “ के पृष्ठ ७९ के अनुसार “ पयोव्रतः "

शतपथ ब्राह्मण का वचन है | “ बैल्वाः खादिरो वा “—ऐतरेय ब्राह्मण की द्वितीय पंचिका के

आरम्भ में है |

यदि ब्राह्मणभाग महाभाष्यकार को वेद मान्य नही होता, तो वे वेद का नाम लेकर ब्राह्मणभाग के

वाक्यों को क्यों उद्धृत करते ? ऐसे ही अनेक स्थलों में महाभाष्यकार ने ब्राह्मणभाग के वाक्यों को

उद्धृत किया है, हम “ स्थालीपुलाक ” न्याय से एक स्थल को दिखाकर आगे बढ़ेंगे-–

आचारे नियमः—आचारे पुनर्ऋषिर्नियमं वेदयते –“ तेsसुरा हेलयो हेलय इति कुर्वन्तः पराबभूवुः “

इति |--पस्पशाह्निक,

    यहाँ ऋषिः का अर्थ महावैयाकरण कैयट वेद लिखते हैं –ऋषिः –वेदः—प्रदीप |  और यह वाक्य

आप कहीं भी मन्त्रभाग में नहीं दिखा सकते | ऐसे बहुत से ब्राह्मणभाग के वाक्य महाभाष्यकार

द्वारा वेदत्वेन उल्लिखित हैं | अतः महाभाष्यकार भी ब्राह्मणभाग को वेद मानते हैं |


     स्वामी दयानन्द पर आपत्ति—आपने ब्राह्मणभाग के वेदत्व का खण्डन करते हुए जो यह लिखा—

“ किन्तु यानि गौरश्व इत्यादीनि लौकिकोदाहरणानि दत्तानि तानि ब्राह्मणादिग्रन्थेष्वेव घटन्ते, कुतः?


तेष्वीदृशशब्दव्यवहारदर्शनात् “ |-- जो गौः अश्वः इत्यादि लौकिक उदाहरण दिए गए हैं वे ब्राह्मण

आदि ग्रन्थों में ही घटते हैं, क्योंकि उन्ही में ऐसे शब्दप्रयोग देखे जाते हैं |


यहाँ “ तानि ब्राह्मणादिग्रन्थेष्वेव घटन्ते “—वाक्य में एवकार का प्रयोग आपके मानसिक इलाज की

और संकेत कर रहा है , क्योंकि महाभाष्यकार ने जिन ७ गौः आदि प्रयोगों का नाम लिया है क्या उतने

ही  लोक में प्रयुक्त होते हैं? या उससे अधिक ?

    प्रथम कल्प अंगीकार्य नही हो सकता ,क्योंकि उनसे भिन्न घटः, पटः,राजा

,रक्षान्सि,पिशाचाः,इन्द्रः,हव्यवाहम्,आदि बहुत से प्रयोग हैं जो लोक में प्रयुक्त होते हैं |


   यदि द्वितीय पक्ष स्वीकार करें,तो उनका प्रयोग मन्त्रभाग में भी प्रचुर मात्रा में मिलने से

“ तानि ब्राह्मणादिग्रन्थेष्वेव घटन्ते, कुतः? तेष्वीदृशशब्दव्यवहारदर्शनात् “ कथन की धज्जी उड़

जायेगी |

    देखें उनकी कुछ झलक-- “ रक्षांसि,पिशाचाः—अथर्ववेद—१/६/३४/२,इन्द्रः-ऋग्वेद—

५/७/९/१,हव्यवाहम्—ऋग्वेद-८/१/१२,  ,हिरण्यम्,दुहिता—शुक्ल यजुर्वेद-१९/४, आदि --

ये प्रयोग मन्त्रभाग में भी मिलते हैं |


इतना ही नही महाभाष्यकार द्वारा प्रदर्शित सभी लौकिक प्रयोग मन्त्रभाग में मिलते हैं |

देखें—गौः+अश्वः –ये दोनो शब्द यजुर्वेद में आये है | पुरुषः+ब्राह्मण—शब्द यजुर्वेद, हस्ती शब्द

–अथर्ववेद-३/४/२२/३,, शकुनि+मृग--शब्द–ऋग्वेद, अतः केवल अहंकार से आक्रान्त आपके

अनुसार अब तो मन्त्रभाग भी वेद नही कहा जा सकता क्योंकि वे प्रयोग यहाँ भी मिल रहे हैं |

    चले थे ब्राह्मणभाग के वेदत्व  का खंडन करने, उलटे संहिताभाग के वेदत्व से ही हाथ धो बैठे—

“ चौबे गए छब्बे बनने दुबे बनकर लौटे “ कहावत चरितार्थ हो गयी |

>>>>>जय श्रीराम, जय वैदिक सनातन धर्म<<<<<

  --ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका का क्रमशः खण्डन-- आचार्य सियारामदास नैयायिक

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