समुद्रोल्लंघन कर #म्लेच्छदेशगमन कर चुके बालशुक गोपेश आदि वृन्दावनिये पाखंडी कथाकारों की #शास्त्रीय आलोचना -
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सूतसंहिता का वचन है कि विधि का पालन भले ही न करो किन्तु निषिद्ध से तो अवश्य निवृत्त हो - " अकुर्वन्नपि विध्युक्तं निषिद्धं परिवर्जयेत् | निषिद्धपरिहारेण विहिते लभते मतिम् "
यह वचन चन्द्रशेखर भारती जी ने विवेकचूड़ामणि भाष्य में उद्धृत किये और स्वामी निश्चलानंद जी ने भी कहा -
" एक विधि हैं, अगर आपके मन में श्रद्धा हैं तो आप उसे मानिये | पर जहाँ शास्त्र में निषेध हैं, वहाँ मानो ख़तरा ही ख़तरा हैं | "
अतः स्पष्ट है कि निषेध की अवमानना करने पर तत्कर्मजन्य अदृष्ट से दूषित होकर प्राणी न केवल आत्मनाश को प्राप्त होता है, वरन् वह परम्परानुगमक लोक के लिये भी तत्तत्कर्मों में अनादर्श होता है , जो उन-उन निषिद्धकर्मसम्बद्ध शास्त्र की फलश्रुतियों के प्रभाव की परिधि में आते हैं ।
इस दृष्टि से योग्यता का विभाजन दो भागों में किया जा सकता है -
१. विहितयोग्यता ।
२.प्रतिषिद्धयोग्यता ।
विहितयोग्यता से तात्पर्य है , उन उन योग्यताओं से , जिनका विधान धर्मशास्त्रों द्वारा स्फुटित है तथा उनको एक कथाकार स्वयं में धारण कर कथाकारों की श्रेणी में अग्रगण्य बनता है ।
प्रतिषिद्धयोग्यता से अभिप्राय है, ऐसी योग्यता , जिनका निषेध धर्मशास्त्रों द्वारा स्फुटित है तथा उनको एक कथाकार स्वयं में धारण कर कथाकारों की श्रेणी में अधम दशा का भागी बनता है ।
श्रीमद्भागवतम्, श्री ब्रह्मवैवर्तपुराणम् इत्यादि सनातनधर्म के परम पवित्र परम्परागत धर्मशास्त्रों का कथानुष्ठान करने से पूर्व अथवा उन उन शास्त्रों के व्यासपीठ से प्रवाचनार्थ व्यासपीठाधिरोहण हेतु विहित आधिकारिकताओं का शास्त्रीय विचार करने की शृंखला में विहित योग्यताओं का विचार करने पर प्रतिषिद्धयोग्यता का विचार विशेष रूप से अवश्यमेव करना चाहिये ।
क्योंकि विहितयोग्यता का न्यूनातिरेक तत्कर्मजन्य अदृष्ट -लाभ का ही साधक-बाधक होता है, किन्तु प्रतिषिद्धयोग्यता का न्यूनातिरेक तत्कर्मजन्य अदृष्ट- हानि का साधक-बाधक होकर प्रकट होता है ।
अतः यह अत्यन्त विचारणीय है कि कथानुष्ठान हेतु वेदादि आर्ष शास्त्रों की दृष्टि से विषेष प्रतिषिद्ध हो चुके कथाकारों को आर्यावर्त की पवित्र भूमि में खुलकर प्रायोजित करना कितना धर्मसम्मत कृत्य है ?
।। जय श्री राम ।।
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