========= 👉 साम्प्रदायिकता ही प्रकृत हिन्दूधर्म है 👈 =========
सम्प्रदाय का अर्थ कोई संकीर्णता / Sectarianism नहीं, अपितु ' सम्प्रदाय ' शब्द का अर्थ हैं ज्ञान, उपासना, कर्मकांड आदि की अनादि अविच्छिन्न आचार्य परम्परा ।
// सम्यक प्रदीयते // - जो भली प्रकार से शिष्य-प्रशिष्य को परीक्षा करके दिया जाये उस ज्ञान-परम्परा का नाम सम्प्रदाय है ।
हिन्दूधर्म में साम्प्रदायिकता गौरव की चीज़ हैं, लज्जा की बात नहीं -
// असम्प्रदायवित् सर्वशास्त्रविदपि मूर्खवदेव उपेक्षणीयः //
~ (गीता शांकरभाष्य १३.२)
पूर्वमीमांसा का सिद्धान्त है -
// तुल्यं च साम्प्रदायिकम् // ~ (जैमिनी सूत्र १.२.८)
- इसके अनुसार साम्प्रदायिक होने से ही ब्राह्मणभाग की मन्त्रभागवत् अपौरुषेयता, अनादिता सिद्ध की गयी हैं (शबरभाष्य द्रष्टव्य) ।
वेदाध्ययन के लिए साम्प्रदायिक होना अनिवार्य है । परमपूज्य भट्टपाद श्री कुमारिल ने भी कहा हैं -
// वेदस्याध्ययनं सर्वं गुर्वध्ययनपूर्वकम् । वेदाध्ययनसामान्यादधुनाध्ययनं यथा ।। //
~ (श्लोकबार्तिक ७.३६६)
" वेदाध्ययन गुरुमुखसे सुनकर होता हैं, जैसे तदनुसार ही इस समय अध्ययन प्रचलित हुआ हैं । "
श्री यास्काचार्य ने स्वयं सम्प्रदाय की प्रशंसा की हैं, और उसे जाननेवाले को ' पारोवर्यवित् ' कहा हैं -
// पारोवर्यवित्सु तु खलु वेदितृषु भूयोविद्यः प्रशस्यो भवति इत्युक्तं पुरस्तात् । //
~ (निरुक्त १.१६)
वेदार्थ में परम्परागत अर्थ का ज्ञान आवश्यक है, वह युक्तिसंगत होना चाहिए -
// अयं मन्त्रार्थचिन्ताsभ्यूहोsभ्यूढः । अपि श्रुतितोsपि तर्कतः । //
~ (निरुक्त १३.१२)
अर्थात् - मन्त्र का विचार परम्परागत अर्थ के श्रवण और तर्क से निरूपित किया हैं ।
यह भी कहा गया हैं कि परम्परागत ज्ञान प्राप्त करनेवालों में वह श्रेष्ठ हैं जिसने अधिक अध्ययन किया हैं ।
उत्तर मीमांसा (वेदान्त) में भी सम्प्रदाय का माहात्म्य स्वीकृत है -
// गुरुसम्प्रदायरहितानाम् अश्रुतवेदान्तानाम् अत्यन्तबहिर्विषयासक्तबुद्धीनां सम्यक्प्रमाणेषु अकृतश्रमाणाम् । //
~ (गीता शांकरभाष्य १८.५०)
// आत्महा स्वयं मूढः अन्यांश्च व्यामोहयति शास्त्रार्थसम्प्रदायरहितत्वात् //
~ (गीता शांकरभाष्य १३.२)
// तथा हि सम्प्रदायविदां वचनम् — ‘अध्यारोपापवादाभ्यां निष्प्रपञ्चं प्रपञ्च्यते’ इति । //
~ (गीता शांकरभाष्य १३.१३)
वेदान्त सम्प्रदाय के प्रवर्तक भगवान् नारायण है -
// वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् // ~ (गीता १५.१५)
// वेदान्तकृत् वेदान्तार्थसम्प्रदायकृत् इत्यर्थः // ~ (गीता शांकरभाष्य १५.१५)
// तासाम् अभ्युदयनिःश्रेयसप्राप्तिसाधनं वेदार्थसम्प्रदायमाविष्कुर्वता प्रोक्ता मया सर्वज्ञेन ईश्वरेण हे अनघ अपाप । //
~ (गीता शांकरभाष्य ३.३)
// अत्रोक्तं वेदान्तार्थ-संप्रदायविद्भिः-आचार्यैः //
~ (ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्य २.१.१९)
पातंजल योगदर्शन में भी आचार्य सम्प्रदाय का प्रवर्तक ईश्वर है -
// पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात् // ~ (योगसूत्र १.२६)
- व्यासभाष्यादि द्रष्टव्य ।
अतः शुद्ध वैदिक-सम्प्रदायवित् व्यक्ति ही हिन्दू होता हैं ।
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