Saturday, 8 December 2018

स्मार्त प्रतीकोपासना की सिद्धि

स्मार्त प्रतीकोपासना की सिद्धि :-

=========== 👉 पञ्चदशी एवं वेदान्तसिद्धान्तमुक्तावली से  👈 ===========

आक्षेप :- मूर्ति के प्रति ईश्वरज्ञान करना भ्रम है, अतः मूर्तिपूजक अज्ञानी है ।

उत्तर :- ' तुष्यतु दुर्जन ' न्याय से हम यह आपत्ति स्वीकार करते है । इससे क्या निर्णय होगा ?

आक्षेप :- भगवदुपासना का फल - भगवद्प्राप्ति, मुक्ति इत्यादि नहीं मिलेगी ।

उत्तर :- यह कहना मूर्खतापूर्ण है, क्योंकि भ्रम दो प्रकार के है - संवादि भ्रम एवं विसंवादि भ्रम ।

संवादि भ्रम से वस्तुसिद्धि लोक में प्रसिद्ध ही है -

मणि की प्रभा को मणिज्ञान करना भ्रम है । किन्तु मणिप्रभा में भ्रम से मणिज्ञान कर उसे प्राप्त करनेकी इच्छा से धाबित हुई व्यक्ति को अन्त में मणि की प्राप्ति होती है । किसी ने किसी देश में वाष्प [भाप] को भ्रम से धूमज्ञान कर उस देश में अंगारों का अनुमान किया और वहाँ से अग्नि को लेने चल पड़ा । अब यदि दैवगति से उसे वहां अग्नि मिल जाय तो उसका वाष्प को धूमज्ञान करना संवादि भ्रम कहलाता है ।

शास्त्र में इसका प्रमाण मिलता है -

१. प्रतीकोपासना - // आश्रयान्तरप्रत्ययस्य आश्रयान्तरे प्रक्षेपः // किसी एक अवलंबनविषयक मनोवृत्ति की अन्य किसी अवलंबन पर प्रक्षेप करनेका नाम प्रतीकोपासना है । यथा - आदित्यादि ब्रह्मप्रतीक की ब्रह्मदृष्टि से उपासना - " आदित्यो ब्रह्मेत्यादेशः " ~ छान्दोग्य ३.१९.१, इत्यादि ।

चार प्रकार के प्रतीकोपासना है, जिसका लक्षण पद्मपुराणान्तर्गत शिवगीता में कहा गया -

सम्पदुपासना :-

अल्पगुणयुक्त वस्तु को अधिक गुणयुक्त ज्ञान कर चिन्तन का नाम है सम्पदुपासना -

अल्पस्य चाधिकत्वेन गुणयोगाद्विचिन्तनम् ॥
अनन्तं वै मन इति संपद्विधिरुदीरितः ॥

~ शिवगीता, अध्याय १२, श्लोक ११

यथा - किसी एक काल में किसी एक विषयमात्र पर व्याप्त होनेका सामर्थ्ययुक्त मन को अनन्तविषयक ज्ञान कर चिंतन - " मनोब्रह्मेत्युपासीत " ~ छान्दोग्य ३.१८.१ इत्यादि ।

आरोप उपासना :-

अंग में अंगी के संबंध का आरोप करना आरोपविधि है, इस विधि का आश्रय  लेकर उपासना का नाम आरोप उपासना है -

विधावारोप्य योपासा सारोपः परिकिर्तितः ॥
यद्वदोंकारमुद्‌गीथमुपासीतेत्युदाह्रतः ॥

~ शिवगीता, अध्याय १२, श्लोक १२

यथा - सामवेद के उद्गीथ नामक भक्ति अथवा अंश में प्रणव स्थित है - इस संबंध को लेकर प्रणव को उद्गीथ मानकर उपासना का नाम आरोप उपासना है ।

अध्यास उपासना :-

प्रत्यक्षजनित बाधज्ञान होनेपर भी शास्त्रोपदिष्ट अध्यासबुद्धिपूर्वक उपासना करने की विधि का नाम अध्यास उपासना है -

आरोपो बुद्धिपूर्वेण य उपासाविधिश्च सः ॥
योषित्यग्निमतिर्यत्तदध्यासः स उदाह्रतः ॥

~ शिवगीता, अध्याय १२, श्लोक १३

यथा - अभिगम्या नारी अग्नि नहीं है ऐसा प्रत्यक्षज्ञान के उपरान्त भी उसमें रेतःसेकरूप आहुति करनेके लिए शास्त्रोपदिष्ट अग्निबुद्धिकरण अर्थात् उसकी आवृत्ति अध्यासोपासनाविधि है ।

संवर्गोपासना :-

उपास्यवस्तु की क्रियासहित उसकी उपासना करनेका नाम संवर्गोपासना है -
क्रियायागेन चोपासविधिः संवर्ग उच्यते ॥
संह्रत्य वायुः प्रलये भूतान्येकोऽवसीदति ॥

~ शिवगीता, अध्याय १२, श्लोक १४

यथा - प्रलयकाल में जैसे संवर्ग वायु अन्य किसी वायु की सहायता के बिना ही समग्र भूतों को विनष्ट करते है, वैसे एकमात्र प्राणवायु अन्तःकरण एवं वहिःकरणरूप सभी इन्द्रियों को अपना वश में लाते है । इस प्रकार प्राण वायु को संवर्त वायु की वशीकरण क्रिया के साथ उपासना करने का नाम संवर्गोपासना है ।

उपरोक्त चार प्रकार की उपासना गुण, संबंध, शास्त्रोपदेश एवं क्रिया का ज्ञान के साथ होती है । इसलिए प्रतीकोपासना बाह्य है ।

अब आन्तर सगुण अहंग्रहोपासना का वर्णन करते है -

उपसंगम्य बुद्ध्या यदासनं देवतात्मना ॥
तदुपासनमन्तः स्यात्तद्वहिः संपदादयः ॥

~ शिवगीता, अध्याय १२, श्लोक १५

उपास्य देवता के साथ गुरुपलब्धज्ञान के बलपर अभेद / तादात्म्यचिंतन करते हुए उस सगुण देवता के स्वरुप में स्थिति का नाम आन्तर अहंग्रहोपासनाविशेष है -

ज्ञानान्तरानन्तरितसजातिज्ञानसंहतेः ॥
सम्पन्नदेवतात्मत्वमुपासनमुदीरितम् ॥

~ शिवगीता, अध्याय १२, श्लोक १६

इसका पर्यवसान निर्गुण अहंग्रहोपासना में होता है, जो मुमुक्षु की साक्षात् उपयोगी है ।

शास्त्रसिद्ध पुण्यतोया गोदावरी जल शुद्धिकारक माने जाते है । जो गोदावरीजल को भ्रमवशतः गंगाजल समझ कर उससे शुद्ध होनेके लिए प्रोक्षण करता है, वह भी शुद्ध हो जाता है । गोदावरी के जल को गंगाजल समझना यहाँ संवादि भ्रम है ।

ज्वरग्रस्त रोगी यदि रोगविकारवशतः नारायण का स्मरण भ्रम से भी करने लगे, तो वह मरण के बाद स्वर्गप्राप्त होता है । इसपर प्रमाण है -

हरिर्हरति पापानि दुष्टचितैरपिस्मृतः।
अनिच्छयाऽपि संस्पृष्टो दहत्येव हि पावकः॥

~ श्रीधरस्वामीकृत भागवत टीका ६.२.२९ में उद्धृत विष्णुधर्मोत्तर पुराणवचन

गोप्यः कामात् भयात् कंसः द्वेषात् चैद्यादयो नृपाः ।
सम्बन्धात् वृष्णयः स्नेहात् यूयं भक्त्या वयं विभो ॥

~ श्रीमद्भागवत, स्कंध ७, अध्याय १, श्लोक ३०

इसप्रकार प्रत्यक्ष, अनुमान तथा शास्त्रों में उक्त प्रकार के अनन्त संवादि भ्रम पाये जाते है । इसे स्वीकार न करनेपर उपनिषदविहित उपासनादि, यथा - " योषा वा अग्निर्गौतम " ~ बृहदारण्यक ६.२.१३ इत्यादि संगत कैसे हो सकता है ?

शास्त्रोपदिष्ट अथवा शास्त्रोनुपदिष्ट अयथार्थ वस्तुविज्ञान (वस्तु विषयक विपरीत ज्ञान) से अभीष्टफल की प्राप्ति काकतालीयन्याय (दैवगतिवशतः) से प्रसिद्ध है, तब यही संवादि भ्रम कहलाता है ।

आक्षेप :- शास्त्रलब्ध शालिग्राम इत्यादि में विष्णुमूर्ति इत्यादि विषयक ज्ञान का जब तक भावना के प्रभाव से इन्द्रियगोचरत्व न हो तब तक यह ज्ञान परोक्ष ही रहता है और परोक्षज्ञान मिथ्याअर्थात् भ्रम है ।

उत्तर - ज्ञान की परोक्षतामात्र से ज्ञान में कभी भ्रान्तिरूपता नहीं होती, अपितु विषय की असत्यता से ही भ्रान्तिज्ञान होता है । प्रमाणरूप शास्त्रद्वारा यथार्थरूप विष्णु इत्यादि की मूर्ति अवभासित होनेसे यह परोक्षज्ञान भ्रम नहीं है ।

आस्तिक पुरुष के लिए प्रतिमादि में पाषाणत्व, मृन्मयत्व इत्यादि का अपरोक्षज्ञान, परोक्ष ईश्वरज्ञान के प्रति बाधक नहीं बनता । विचार की अपेक्षा किये बिना ही शास्त्रोपदेश से शालिग्रामादि में विष्णुरूप परोक्षज्ञान का उदय होता है ।

आक्षेप :- नास्तिक पुरुष प्रतिमा में विष्णुत्व आदि लेकर विवाद करते है ?

उत्तर - श्रद्धावान पुरुषमात्र का ही वैदिक कर्म में अधिकार है, श्रद्धाहीन (नास्तिक) का नहीं । आप्तवाक्य में आस्तिक्यबुद्धि एवं उसका कार्य विश्वास - फलावश्यंभावनिश्चय - तद्रहित पुरुष के दृष्टान्त अग्राह्य है ।

इस प्रकार शास्त्रीय रीति से स्मार्त प्रतीकोपासक अधिकारी भेद अनुसार क्रमशः अध्यासोपासना, सम्पदुपासना, सगुण अहंग्रहोपासना, निर्गुण उपासना इत्यादि स्तर का अतिक्रमण करते हुए अन्त में सालोक्यादि, सायूज्य, क्रममुक्ति एवं निर्गुण ब्रह्मविज्ञान का उदय होकर सद्योमुक्ति भी लाभ करते है ।

यह पहले ही सविस्तार प्रतिपादन किया गया - https://www.facebook.com/photo.php?fbid=1967993659942934&set=a.251918044883846&type=3&theater

वेदान्त का सिद्धान्तानुसार ईश्वरचैतन्य जगत् का अभिन्न निमित्तोपादानकारण हैं, अतः सर्वव्यापी हैं । विचार करनेपर घटादि प्रत्येक जड़ वस्तु स्वयंप्रकाश निर्विशेष चैतन्यस्वरुप सिद्ध होता हैं ।

स्वयंज्योतिस्वभाव आनन्दघन असंग उदासीन आत्मचैतन्य ही अज्ञान के सम्बन्ध से द्वैताकार प्रतीत हो रहा हैं - यह #वेदान्तसिद्धान्तमुक्तावलीकार श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्य प्रकाशानन्द स्वामी ने तर्क द्वारा सिद्ध करते हैं ।
' अचेतन मूर्ति की पूजा ' - कहकर आक्षेप करनेवाले लोग क्या करते हैं ?

सर्वव्यापी ईश्वरचैतन्य में अज्ञान से मृन्मयत्वादि धर्मों का आरोप !

वास्तव में तो ' मूर्तिपूजा ' कभी होती ही नहीं, केवल चिन्मय भगवान् की पूजा होती हैं सर्वत्र । अग्नि सूक्ष्मतत्त्व के रूप में सर्वत्र वर्तमान होते हुए भी काष्ठादि में उनकी दाह्यशक्ति का विशेष प्राकट्य हैं, वैसे ही ईश्वर सर्वत्र समान रूप से व्याप्त होकर भी शास्त्रीय विधि से पूजित मूर्ति आदि में उनकी शक्ति की विशेष अभिव्यक्ति होती हैं ।

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