Wednesday, 12 December 2018

अद्वैत में भक्ति

अद्वैत में भक्ति

जैसे एक बिद्ध काँटा को निकलने के लिए किसी अन्य काँटा का उपयोग होता है, वैसे मायाधीन या अविद्यावान होनेका भ्रम निवारण हेतु मायाधीश के भक्तिरूपी भ्रम अन्तःकरण के मल-विक्षेप निवारण द्वारा सहायक हैं ।

अपरोक्षानुभूति से पहले शुद्धसत्त्व-उपाहित चैतन्य का ही बोध संभव हैं --- जैसे प्रत्यक्षतः सूर्यदर्शन करने का सामर्थ न हो तो स्वच्छ दर्पण में प्रतिबिंबित सूर्य देखना संभव हैं ।

सम-सत्ताक वस्तु में बाध्य-बाधक भाव होना प्रसिद्ध है - स्वप्न में जल से स्वप्नगत तृष्णानिवृत्ति होती है । संसार एवं भक्ति सम-सत्ताक है, अतः संसार-निवृत्ति हेतु भक्ति सहायक होनेमें आश्चर्य क्या है !

आत्मज्ञान के उपरान्त भी प्रारब्धभोग काल तक द्वैताभास रह जाता है ।  अधिष्ठान का अवभास एवं द्वैताभास - इस स्थिति में आरुढ़ आत्मज्ञानी अविद्यालेशप्रयुक्त भक्तिद्वैत में लीन रहते है - इसे पराभक्ति भी कहा जाता है -

सत्यपि भेदापगमे नाथ तवाहं न मामकीनस्त्वम् ।
सामुद्रो हि तरंगः क्वचन समुद्रो न तारंगः ॥

~ श्री शंकराचार्य

तस्यैवाहं ममैवासौ स एवाहमिति त्रिधा ।
भगवच्छरणत्वं स्यात् साधनाभ्यास पाकतः ।।

~ न्यायरत्नावली अष्टम श्लोक

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