============== स्मार्त प्रतीकोपासना मोक्षप्रद है ==============
स्मार्त प्रतीक अथवा प्रतिमा अवलंबन कर जो उपासना होती है, उसमें साधक शास्त्रनिर्दिष्ट आकृतिविशेष प्रतिमा में आरोपित करते है, यथा - शालग्राम में सवितृमण्डलमध्यवर्ती नारायण, शिवलिंग में रजतगिरिनिभ महेश्वर के आरोप इत्यादि ।
इस प्रकार आरोपद्वारा ध्यान श्रुति में भी विहित है -
// हिरण्मयः पुरुषः दृश्यते // ~ छान्दोग्य उप. १.६.६, इत्यादि ।
परमेश्वर एतादृश आकाररूप उपाधि अवलंबन कर उपासना करनेवाले जीव को दर्शनदानकरतः कृतार्थ करते है - यह भी श्रुति में प्रसिद्ध है, यथा -
// स्त्रियमाजगाम बहुशोभमानामुमां हैमवतीं // ~ केन उप. ३.१२, इत्यादि ।
प्रवर्तक साधक प्रतिमादि प्रतीकावलंबन कर उपासना में प्रवृत्त हो तो प्रथमावस्था में उक्त प्रतिमारूप प्रतीक ही प्रधान रहता है, उसके बिना वह ईश्वरचिंतन करने में असमर्थ है । यही अधिष्ठानप्रधान #अध्यासोपासना है ।
चक्षु में अञ्जन प्रयुक्त होनेपर जैसे सूक्ष्मवस्तु प्रत्यक्ष करने का सामर्थ्य मिलता है -
// यथाग्निना हेम मलं जहाति ध्मातं पुनः स्वं भजते च रूपम् । आत्मा च कर्मानुशयं विधूय मद्भक्तियोगेन भजत्यथो माम् ॥ २५ ॥ //
~ श्रीमद्भागवत ११.१४.२५-२६
तद्रूप उक्त प्रकार से उपासना द्वारा साधक के चित्त क्रमशः सूक्ष्मवस्तु की धारणा करने में समर्थ बनता है -
// जपस्तु त्रिविधः प्रोक्तो वाचिकोपांशुमानसः ।। त्रिविधेऽपि च विप्रेन्द्र पूर्वात्पूर्वात्परो वरः ।। ३३-९२ ।। मंत्रस्योच्चारणं सम्यक्स्फुटाक्षरपदं यथा ।।जपस्तु वाचिकः प्रोक्तः सर्वयज्ञफलप्रदः ।। ३३-९३ ।। मंत्रस्योच्चारणे किंचित्पदात्पदविवेचनम् । स तूपांशुर्जपः प्रोक्तः पूर्वस्माद्द्विगुणोऽधिकः ।। ३३-९४ ।। विधाय ह्यक्षरश्रेण्यां तत्तदर्थविचारणम् ।। स जपोमानसः प्रोक्तो योगसिद्धिप्रदायकः ।। ३३-९५ ।। जपेन देवता नित्यं स्तुवतः संप्रसीदति । //
~ नारदपुराण, पूर्वार्ध, अध्याय ३३, श्लोक ९२-९५
साधक के बाह्य जप क्रमशः मानस जप एवं बाह्य पूजा मानस पूजा में परिणत होती है । इसमें यह प्रमाण है -
// योगाज्जितेंद्रियग्रामस्तानि हृत्वा दृढं हृदि ।। आत्मानं परमं ध्यायेत्सर्वधातारमच्युतम् ।। ३३-३३ ।। //
~ नारदपुराण, पूर्वार्ध, अध्याय ३३, श्लोक १३३-१३६
// प्रत्यक्षीकृत्य हृदये हृदिस्थां पूजयेच्छिवाम् । // ~ मुण्डमाला तन्त्र
// अन्तःपूजा महेशानि बाह्यात् कोटिगुणं भवेत् // ~ भूतशुद्धि तन्त्र
// नित्यान्तर्यजनं कृत्वा साक्षाद्ब्रह्ममयो भवेत् // ~ शाक्तानन्दतरंगिनी, इत्यादि
उपरोक्त अवस्था में उपनीत साधक देवता के तत्-तत् रूपविशेष का ध्यान में निविष्ट रहते है ; तब आरोप्य देवतारूप ही उनके निकट प्रधान एवं प्रतीक अप्रधान होता है । यही है आरोप्यप्रधान #सम्पदुपासना ।
इस तरह अंतर्यजन में प्रवृत्त साधक क्रमशः बाह्य प्रतिमादि प्रतीकनिरपेक्ष होकर स्वीय ह्रदयस्थ देवता के मानसयजन में तन्मय रहता है, बाह्य पूजा का पर्यवसान नाममात्र में होती है एवं वह उपासक के स्वान्तस्थः देवता का स्मारक एवं उद्दीपकरूप में ही अवस्थान करती है । तब वह -
// अष्टारे हृत्सरोजे तु द्वादशांगुलविस्तृते ।। ध्यायेदात्मानमव्यक्तं परात्परतरं विभुम् ।। ३३-३७ ।। श्रीवत्सवक्षसं देवं सुरासुरनमस्कृतम् ।। ३३-३६ ।। //
~ नारदपुराण, पूर्वार्ध, अध्याय ३३, श्लोक ९२-९५
स्वीय इष्टदेवता के -
// हृत्पद्मं आसनं दद्यात् , सहस्राराच्यूतामृतैः पाद्यं चरणयोः दद्यात् //
~ महानिर्वाणतन्त्र ५.१४३,
इत्यादि रीति से मानसपूजा में ही तन्मय रहते है । इस अवस्था में उपनीत साधक #प्रतीकोपासना_के_स्तर_का_अतिक्रमण करते है । तब -
// लोहमाकर्षको यथा // ~ विष्णु पुराण ६.७.३०
- चुम्बक जैसे लौह को आकर्षण करता है, तद्रूप साधक के चित्त सर्वतोभाव से स्वान्तस्थ देवता के प्रति आकृष्ट होता है ।
इस प्रकार परम प्रेमाष्पद के प्रति धावितचित्त साधक -
// तस्यैवाहं ममैवासौ स एवाहमिति त्रिधा । भगवच्छरणत्वं स्यात् साधनाभ्यास पाकतः ।। //
~ न्यायरत्नावली अष्टम श्लोक
इत्यादि शास्त्रप्रतिपादित रीति से सर्वप्रथम " हम उनके है ", अतःपर साधनाभ्यास की परिपक्क्वतावशतः " वह मेरा है " एवं अभ्यास और भी परिपक्क्व होनेपर अंत में " वह ही मैं और मैं ही वह " - इस प्रकार से श्रीभगवान् में ही निविष्टचित्त हो जाते है ।
शेषोक्त अवस्था में उपनीत साधक के प्रति शास्त्र #अहंग्रहोपासना का विधान करता है ।
यथा - // अहमेव परो विष्णुः मत्सर्वमिदं जगत् इति यः सततं पश्येत्तं विद्यादुत्तमोत्तमम् //
~ न्यायरत्नावली अष्टम श्लोक में उद्धृत बृहन्नारदीय पुराणवचन
तद्विषयक अन्य शास्त्रवाक्य यह है -
// यदा च धारणा तस्मिन्न् अवस्थानवती ततः। किरीटकेयूरमुखैर्भूषणै रहितं स्मरेत्॥ तदैकावयवं देवं सोऽहं चेति पुनर्बुधः। कुर्यात् ततोह्यsहमिति प्रणिधानपरो भवेत्॥ //
~ विष्णुपुराणम् , ६.७.८६-८८
यही अहंग्रहोपासना है इस साधना के अंत में साधक -
// भवेन्निरन्तरं ध्यानादभेदप्रतिपादनम् ।। ३३-४२ ।। //
~ नारदपुराण, पूर्वार्ध, अध्याय ३३, श्लोक १४२
- इस प्रकार से स्वीय इष्टदेवता के साथ स्वीय अभिन्नता का अनुभव करते है । भगवद्कृपा के प्रभाव से इस प्रकार के ध्यानसिद्ध साधक ही साधना में सिद्धिलाभ कर सकता है ।
शास्त्र में सिद्धावस्था का वर्णन इस प्रकार है -
// ब्रजतोस्तिष्ठतोऽन्यद् वा स्वेच्छया कर्म कुर्वतः। नापयाति यदा चित्तं सिद्धां मन्येत तां तदा //
~ विष्णुपुराणम् ६.७.७७.८५
एतादृश सिद्ध साधक की श्रौत दहरादि अहंग्रहोपासकों की तरह सायूज्यमुक्ति, देवयानमार्ग से ब्रह्मलोक में गति और क्रममुक्ति लब्ध होती है, क्योंकि श्रुतिमें अहंग्रहोपासकों के लिए ही इस प्रकार की गति कहा है ।
ध्यान देना चाहिए - ' #साधनाधिक्य_से_फलाधिक्य ' नियम युक्तिसंगत होनेसे सगुणपरब्रह्म की अहंग्रहोपासना ही ईश्वरसायूज्यद्वार से क्रममुक्ति में हेतु है ;
अतएव अपरिपक्क्व एवं न्यूनगुणयोग में अभ्यस्त श्रौत दहरादि उपासना के फलस्वरुप जिस प्रकार सालोक्यादि मुक्ति लब्ध होती है, सख्यदास्यादि भेदभावावगाही स्मार्त उपासना के फलस्वरुप उसी प्रकार सालोक्यादि मुक्ति ही लब्ध होगी, सायूज्य एवं क्रममुक्ति नहीं ।
इस प्रकार से प्रतीकावलंबनात्मक उपासना आरब्ध होनेपर भगवद्कृपा से साधक को ईश्वरसायूज्य एवं क्रममुक्ति लब्ध होती है । और निर्गुणब्रह्मविज्ञान का उदय होकर सद्योमुक्ति का लाभ भी हो सकता है - यह विष्णुपुराण ६.७.९२-९६, बृहन्नारदीय पुराण ३१.१४२-१४८ इत्यादि स्थलों पर द्रष्टव्य ।
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