Saturday, 22 December 2018

पत्नी कैसी हो

अपने ही पति से  जिसे  निजी अहंकार समस्या (इगो प्रॉब्लम)  हो , उसे भ्रष्ट स्त्री समझना चाहिये  ।

मन्दोदरी जी का नाम हमारी संस्कृति में स्मरण किया जाता है ,  उनको  कभी रावण से  निजी अहंकार समस्या न हुई ।

///पत्नी को सीता होने की बात तब कहिये जब पति  राम हो ,  ///

-  ये इन्हीं भ्रष्ट  स्त्रियों और इन जैसे ही अन्य  मूर्खों का कुतर्क है । क्योंकि पति राम हो, ये तो अच्छी ही बात है , पर कदाचित्  न भी  हो , तब भी  पत्नी  को  मन्दोदरी अवश्य होनी चाहिये ।  ये है वैदिक संस्कृति ।

#अनृतं_साहसं_माया_मूर्खत्वमतिलोभिता।
#अशौचत्वं_निर्दयत्वं_स्त्रीणां_दोषाः_स्वभावजा:।।

स्त्री पुरुष के समानाधिकार की बातें करने वाले आजकल के  छद्म  लम्पटों को  ये अन्याय लगेगा , पर   प्राणियों के जन्मादि के मूल में  कर्मफल के सिद्धान्तों को जानने वाले , सांख्यादि विज्ञानपरक शास्त्रों के पारगामी  मनीषियों की दृष्टि में   यही न्याय संगत  तथ्य  है । 

और हॉ !
इस सिद्धान्त का ये   अभिप्राय बिल्कुल भी नहीं है कि स्त्रियों  के दमन की मानसिकता को बढ़ावा दिया गया है , नहीं ;  वरन् अभिप्राय ये है कि  स्त्रियों  से    पुरुषों के सापेक्ष  आशा  और  अपेक्षा  अधिक है ।  स्त्रियों के प्रति इससे अधिक बढ़प्पन और किस संस्कृति में मिलेगा भला ?

।। जय श्री राम ।।

Friday, 21 December 2018

विवाह फेरे कितने है ?

धर्मसम्राट स्वामी करपात्री जी महाराज
★★★★★★★★★★★★★★

        विवाह में ७ फेरे
★★★★★★★★★★★★

यह भांवर(७फेरे)केवल भ्रममात्र हैं।सार्वजनिक रुप से ४ फेरे ही होने चाहिए -आज कल विवाह में कहीं तो 7 फेरों का प्रचलन है, तो कहीं 4 का , इस विषय पर बहुत विवाद सुनने में आ रहा है। राजस्थान, गुजरात और मिथिला आदि प्रान्तों में कई स्थानों में 4 फेरों की परम्परा है और उत्तर प्रदेश आदि कुछ प्रान्तों के कतिपय स्थलों में 7 फेरों  की  परम्परा। ।

यहाँ सप्रमाण यह तथ्य प्रस्तुत हैं, कि “फेरे कितने होने चाहिए ।

यहाँ एक बात ध्यान में अवश्य रखनी है कि सभी बातें शास्त्रों में ही उपलब्ध नहीं होती हैं । जैसे — वर वधू का मंगलसूत्र पहनाना,गले में माला धारण करवाना, वर वधू के वस्त्रों में ग्रन्थि लगाना ( गांठ बांधना ),वर के हृदय पर दही आदि का लेपन, ऐसे बहुत से कार्य हैं जो गृह्यसूत्रों में उपलब्ध नही हैं ।

इन सब कार्यों में कौन प्रमाण है ?

इसका उत्तर है –”अपने अपने कुल की वृद्ध महिलायें ;क्योंकि वे अपने पूर्वजों से किये गये सदाचारों
का स्मरण रखती हैं । इसलिए विवाहादि कार्यों में इनकी बात मानने का विधान शास्त्रों ने किया है ।शुक्ल यजुर्वेद की माध्यन्दिन और काण्व शाखा इन दोनों का प्रतिनिधित्व करता है-महर्षि पारस्कर प्रणीत ” पारस्करगृह्यसूत्र”
महर्षि कहते हैं"ग्रामवचनं च कुर्युः”- ॥ 11 ॥

“विवाहश्मशानयोर्ग्रामं प्राविशतादिति वचनात् ‘ ॥ 12 ॥

“तस्मात्तयोर्ग्रामः प्रमाणमिति श्रुतेः ॥ 13 ॥

प्रथमकाण्ड, अष्टम कण्डिका । यहां 11वें सूत्र का अर्थ “हरिहरभाष्य”में किया गया है कि
“विवाह और श्मशान सम्बन्धी कार्यों में(ग्रामवचनं= स्वकुलवृद्धानां स्त्रीणां वाक्यं कुर्युः)अपने कुल की वृद्ध महिलाओं की बात मानकर कार्य करना चाहिए ।

“गदाधरभाष्यकार”भी यही अर्थ किये हैं । इनमें कुछ बातें जैसे “मंगलसूत्र आदि” इनका उल्लेख
इसी भाष्य के आधार पर मैने किया है! सूत्र 11में 'च' शब्द आया है।उससे “देशाचार,कुलाचार और जात्याचार"का ग्रहण है ।
“चकारोऽनुक्तसमुच्चयार्थकः –च शब्द जो बातें नहीं कहीं गयी हैं -उनका संकेतक माना जाता है ।

अत एव ” च शब्दाद्देशाचारोऽपि ” –ऐसा भाष्य श्रीगदाधर जी ने लिखा । यहां ” अपि ” शब्द कैमुत्यन्याय से कुलाचार और जात्याचार का बोधक है ;क्योंकि विवाहादि कार्यों में जाति और कुल के अनुसार भी आचार में भिन्नता कहीं कहीं देखने को मिलती है ।

ग्रामवचन का अर्थ “भर्तृयज्ञ ” जो कात्यायन श्रौतसूत्र के व्याख्याता हैं उन्होने लोकवचन किया है –
ऐसा गदाधर जी ने अपने भाष्य में संकेत किया है । इसे लोकमत या शिष्टाचार — सदाचार कहते हैं । यह भी हमारे यहां प्रमाणरूप से अंगीकृत है । पूर्वमीमांसा में सर्वप्रथम प्रमाणों की ही विशद चर्चा हुई है । इसलिए उस अध्याय का नाम ही "प्रमाणाध्याय “रख दिया गया है । इसमें शिष्टाचार को प्रमाण माना गया है।  शिष्ट का लक्षण वहां निरूपित है ।

” वेदः स्मृतिः सदाचारः ”      –मनुस्मृति,2/12, तथा “श्रुतिःस्मृतिः सदाचारः“ –याज्ञवल्क्य स्मृति-आचाराध्याय,7, इन दोनों में सदाचार को धर्म में प्रमाण माना है । किन्तु धर्म में परम प्रमाण भगवान् वेद ही हैं । उनसे विरुद्ध समृति या सदाचार प्रमाण नही हैं । पूर्वमीमांसा में वेदैकप्रमाणगम्य धर्म को बतलाया गया –जैमिनिसूत्र-1/1/2/2,
पुनः ” स्मृत्यधिकरण “-1/3/1/2, से वेदमूलक स्मृतियों को धर्म में प्रमाण माना गया ।

यदि कोई स्मृति वेद से विरुद्ध है तो वह धर्म में प्रमाण नही हो सकती –यह सिद्धान्त "विरोधाधिकरण" 1/3//2/3-4,से स्थापित किया गया । इसी अधिकरण में सदाचार की प्रामाणिकता को लेकर यह निश्चित किया गया कि सदाचार स्मृति से विरुद्ध होने पर प्रमाण नही है ।

जैसे दक्षिण भारत में मामा की लड़की के साथ भांजे का विवाह आदि ;क्योंकि यह सदाचार
"मातुलस्य सुतामूढ्वा मातृगोत्रां तथैव च । समानप्रवरां चैव त्यक्त्वा चान्द्रायणं चरेत् ॥
इस शातातप स्मृति से विरुद्ध है ।

भागवत के 10/61/23-25 श्लोकों द्वारा इस विवाहरूपी कार्य को अधर्म बतलाया गया है ॥
तात्पर्य यह कि सदाचार से उसकी ज्ञापक स्मृति का अनुमान किया जाता है और उस स्मृति से तद्बोधक श्रुति का अनुमान । जब आचार की विरोधिनी स्मृति बैठी है तो उससे वह बाधित हो जायेगा ।
इसी प्रकार स्मृति भी स्वतः धर्म में प्रमाण नही है अपितु वेदमूलकत्वेन ही प्रमाण है ।

स्मृति से श्रुति का अनुमान किया जाता है । जब स्मृति विरोधिनी श्रुति प्रत्यक्ष उपलब्ध है तो उससे स्मृति बाधित हो जायेगी –
"विरोधे त्वनुपेक्षं स्यादसति ह्यनुमानम् “पूर्वमीमांसा,1/3/2/3,
सदाचार से स्मृति और स्मृति से श्रुति का अनुमान होता है । इन तीनों में श्रुति से स्मृति और स्मृति से सदाचार रूपी प्रमाण दुर्बल है ।

निष्कर्ष यह कि स्मृति या वेदविरुद्ध आचार प्रमाण नही है ।

अब हम यह देखेंगे कि विवाह में जो फेरे पड़ते हैं 4 या 7,
इनमें किसको स्मृति या वेद का समर्थन प्राप्त है और कौन इनसे विरुद्ध है ?यहां यह बात ध्यान में रखनी है कि स्मृति का अर्थ केवल मनु या याज्ञवल्क्य आदि महर्षियों
से प्रणीत स्मृतियां ही नहीं अपितु सम्पूर्ण धर्मशास्त्र है"श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेयो धर्मशास्त्रं तु वै स्मृतिः" 2/10, धर्मशास्त्र के अन्तर्गत स्मृतियां ,पुराण,इतिहास,कल्पसूत्र आदि आते हैं!

यह मीमांसकों का सिद्धान्त है --स्मृत्यधिकरण,1/3/1/1-2,
इसी से 4 या 7 फेरों का निश्चय हो जायेगा । विवाह में 4 कर्म ऐसे हैं जिनसे फेरों का सम्बन्ध है । अर्थात् उन चारों का क्रमशः सम्पादन करने के बाद फेरे( परिक्रमा या भांवर ) का क्रम आता है । वे निम्नलिखित हैं !1-लाजा होम— इसमें कन्या को उसका भाई शमी के पल्लवों से मिश्रित धान के लावों को अपनी अञ्जलि से कन्या के अञ्जलि में डालता है । कन्या उस समय खड़ी रहती है । यदि कन्या के भाई न हो तो यह कार्य उसके चाचा ,मामा का लड़का ,मौसी का पुत्र या फुआ
( बुआ -फूफू अर्थात् पिता की बहन ) का पुत्र आदि भी कर सकते हैं– यह तथ्य श्रीगदाधर जी ने बहवृचकारिका को उद्धृत करके अपने भाष्य में दर्शाया है ।

पारस्करगृह्यसूत्र के प्रथम काण्ड की छठी कण्डिका में “कुमार्या भ्राता "1 में इसका कथन है ।

कन्या के अञ्जलि में लावा है । वर भी खड़ा होकर उसके दोनों हाथों से अपने हाथ लगाये रहता है
और कन्या खड़ी होकर ही उन लावों को मिली हुइ अञ्जलि से होम करती है –अर्यमणं देवं –
इत्यादि मन्त्रों से ।

ये तीनों मन्त्र बहुत महत्त्वपूर्ण हैं । अतः इनका अर्थ प्रस्तुत किया जा रहा है – 1-अर्यमणं देवं– सूर्य देव, जो ,अग्निं –अग्निस्वरूप हैं ,उनकी वरप्राप्ति के लिए, अयक्षत –पूजा की है,स–वे,अर्यमा देवः–भगवान् सूर्य, नो–हमें,इतः–इस पितृकुल से , प्रमुञ्चतु –छुड़ायें, किन्तु ,
पत्युः –पति से ,मा –न छुड़ायें , स्वाहा — इतना बोलकर कन्या होम करती है । आज इस पद्धति का विधिवत् आचरण न करने का परिणाम इतना भयंकर दिख रहा है कि पति या तो पत्नी को छोड़ देता है अथवा पत्नी पति को ।

2-मन्त्र –” आयुष्मानस्तु मे पतिरेधन्तां ज्ञातयो मम स्वाहा।
अर्थ– मे पतिः –मेरे पति, आयुष्मानस्तु –दीर्घायु हों,और मम– मेरे ,ज्ञातयो– बन्धु बान्धव,
एधन्तां –बढ़ें ,स्वाहा बोलकर पुनः होम । विवाह में इस मन्त्र के छूट जाने का पहला परिणाम “पति असमय ही किसी भी कारण से अकालमृत्यु को प्राप्त होता है।या मृत्यु जैसे कष्टकारी रोगों से आक्रान्त  हो जाता है । और पत्नी के पतिगृह पहुंचने के कुछ समय बाद ही बंटवारे की नौबत भी आ जाती है।जो आजकल का
तथाकथित सभ्य समाज भुगत रहा है ।

3 मन्त्र-"इमाँल्लाजानावपाम्यग्नौ समृद्धिकरणं तव ।मम तुभ्य च संवननं तदग्निरनुमन्यतामियं स्वाहा। हे स्वामिन् ! , तव –तुम्हारी , समृद्धिकरणं –समृद्धि करने के लिए, इमाँल्लाजान् –इन लावों को , अग्नौ –अग्नि में , आवपामि –मैं डाल रही हूं । मम तुभ्य च — हमारा और तुम्हारा , जो, संवननं – पारस्परिक प्रेम है , तत् –उसका , ये, अग्निः–अग्नि देव, अनुमन्यन्ताम्—अनुमोदन करें अर्थात् सदृढ करें , और, इयं –अग्नि की पत्नी स्वाहा भी , स्वाहा –बोलकर पुनः होम ।

इस मन्त्र से होम किया जाता है कि दाम्पत्य जीवन सदा प्रेम से संसिक्त रहे । पर आज जो पण्डित आधे घण्टे में विवाह करा दे उसे कई शहरों में बहुत अच्छा मानते हैं ।

इस मन्त्र से होम न करने का परिणाम है –दाम्पत्य जीवन का कलहमय होना । अतः विवाहोपरान्त भविष्य में आने वाले इन सभी संकटों को रोकने के लिए हमारे ऋषियों ने हमें जो कुछ दिया । उसकी अवहेलना का परिणाम आज घर घर में किसी न किसी रूप में दिख रहा है ।

अतः वेदों के इन पद्धतियों की वैज्ञानिकता और आदर्श समाज की रचना के इन अद्भुत प्रयोगों हमें पुनः अपनाना होगा ।

2-सांगुष्ठग्रहण–यह कर्म लाजा होम के बाद वर द्वारा किया जाता है । वह वधू का दांया हाथ अंगूठे सहित पकड़ता है । और"गृभ्णामि से शरदः शतम् "तक मन्त्र पढ़ता है। इस मन्त्र से वर वधू में देवत्व का आधान होता है । तथा बहुत से पुत्रों के प्राप्ति की प्रार्थना की गयी है । पुत्र वही है जो पुत् नामक नरक से तार दे -पुत् नामकात् नरकात् त्रायते इति पुत्रः ।

इस मन्त्र के छूटने का परिणाम यह है कि आज कल लड़के अपने माता पिता का जीवन नरकमय बना रहे है । तारना तो दूर की बात है ।

3-अश्मारोहण–अग्निकुण्ड के उत्तर की ओर रखे हुए "पत्थर"
( लोढ़ा आदि) के समीप जाकर
वर वधू के दायें पैर को पकड़कर उस पर रखता है। श्रीगदाधर ने अपने भाष्य मे सप्रमाण इसका उल्लेख किया है । और मिथिला मे यह आज भी वर
द्वारा किया जाता है |

इस समय वर स्वयं मन्त्र पढ़ता है–”आरोहे से लेकर पृतनायत ” तक । इस मन्त्रका अर्थ है कि कन्ये !तुम इस पत्थर पर आरूढ होकर इस प्रस्तर की भांति दृढ़ हो जाओ । और कलह चाहने वालों को दबाकर स्थिर रहो । और उन शत्रुओं को दूर हटा दो।यह कर्म कन्या द्वारा आज भी U.P आदि में देखा जाता है । कन्या उस लोढ़े को पैर के अंगूठे से प्रहार करके फेंक देती है।यह कर्म अद्भुत भाव से ओतप्रोत है । यह कन्या को हर विषम परिस्थितियों में अविचल भाव देने के साथ ही शत्रुदमन की अदम्य ऊर्जा भी प्रदान करता है ।
4-गाथागान-इसमें एक मन्त्र का गान वर करता है जिसमें नारी के उदात्त व्यक्तित्व की सुन्दर झलक है ।

5- परिक्रमा या फेरे — अब वर वधू अग्नि की परिक्रमा करते हैं । इस समय वर-"तुभ्यमग्रे से लेकर प्रजया सह ” तक 1 मन्त्र बोलता है ।

1परिक्रमा (फेरा ) अब पूर्ण हुई |

इसी प्रकार पुनः पूर्ववत् लाजाहोम, सांगुष्ठग्रहण,अश्मारोहण, गाथागान और 1 परिक्रमा करनी है।तत्पश्चात् पुनः वही लाजाहोम से लेकर 1 परिक्रमा तक पूर्वकी भांति सभी कर्म करना है । इसका संकेत प्रथम काण्ड की सप्तमी कण्डिका में शुक्लयजुर्वेद के सूत्रकार महर्षि पारस्कर अपने गृह्यसूत्रमें करते हैं "एवं द्विरपरं लाजादि ” इसका अर्थ ” हरिहरभाष्य और गदा धरभाष्य ” दोनो में यही किया गया कि
“कुमार्या भ्राता"जहां से लाजाहोम आरम्भ है वहां से परिक्रमा पर्यन्त कर्म होता है । अब यहां हमारे समक्ष लाजा होम से लेकर परिक्रमा पर्यन्त सभी कर्मों का ३ बार अनुष्ठान सम्पन्न हुआ ।

  जिनमें 9 बार लावों की आहुति पड़ी ;क्योंकि १ -१ लाजाहोम में ३ –३ बार कन्या ने पूर्वोक्त मन्त्रों से आहुति दिया है।3 बार सांगुष्ठग्रहण,3 बार अश्मारोहण,3 बार गाथागान और 3परिक्रमा (फेरे ) सम्पन्न हो चुकी है।अब चौथी बार केवल लाजा होम और परिक्रमा ही करनी है।

पर इस चौथे क्रम में पहले से कुछ भिन्नता है!महर्षि पारस्कर स्वयं सूत्र द्वारा दिखाते हैं-"चतुर्थं शूर्पकुष्ठयासर्वाँल्लाजानावपति" भगाय स्वाहेति -पारस्करगृह्यसूत्र, प्रथमकाण्ड,सप्तमीकण्डिका।

5,कन्या का भाई शूर्प में जो भी लावा बचा है वह सब सूप के कोने वाले भाग से कन्या के अञ्जलि में दे दे और कन्या सम्पूर्ण लावों को ” भगाय स्वाहा “बोलकर अग्नि में होम कर दे । इसके बाद मौन होकर वर और वधु अग्नि की परिक्रमा करते हैं –इसमें “सदाचार “ही प्रमाण है।

देखें हरिहरभाष्यकार लिखते है –"ततः समाचारात्तूष्णीं चतुर्थं परिक्रमणं वधूवरौ कुरुतः" इसे सर्वसम्मत पक्ष बतलाते हुए गदाधर भाष्य में “वासुदेव,गंगाधर,
हरिहर और रेणु दीक्षित जैसे
भाष्यकारों के नाम का उल्लेख श्रद्धापूर्वक किया गया है। –प्रथम काण्ड ,सप्तमी कण्डिका,६ इस प्रकार शुक्लयजुर्वेद के महर्षि पारस्कररचित ” पारस्करगृह्यसूत्र” के अनुसार विवाह में 4 फेरे
(परिक्रमा )ही प्रमाणसिद्ध है ।

7 फेरे केवल भ्रममात्र हैं । वाराणसी से छपी पण्डितप्रवर श्रीवायुनन्दन मिश्र जी की विवाहपद्धति तथा राजस्थान के महापण्डित चतुर्थीलाल जी की पुस्तक में भी 4 फेरों का ही उल्लेख है । और 4 फेरे कई प्रान्तों मे पहले बताये भी जा चुके हैं । अतः यही मान्य और शास्त्रसम्मत है । यदि कोई कहे कि 7 फेरों का सदाचार हमारी परम्परा में चला आ रहा है और सदाचार का प्रामाण्य सभी ने स्वीकार किया है ।              
अतः यह ठीक है । तो मैं उस व्यक्ति से यही कहूंगा कि सदाचार तभी तक प्रमाण है जब तक उसके विरुद्ध कोई स्मृति या श्रुति न हो ।
   पर यहां तो साक्षात् 4 फेरों         की  सिद्धि    शुक्लयजुर्वेद के "पारस्करगृह्यसूत्र"से ही हो रही है ।

अतः इसके विपरीत 7 फेरों वाला सदाचार प्रमाण नही है ।

Sunday, 16 December 2018

संध्यावन्दन हीन के निषिद्ध कर्म

जो उपनीत-द्विज नित्य #सन्ध्योपासना न करता हो वें सब अयाज्य अर्थात् वैदिक कर्मकांड करने करवाने के *(सन्ध्योपासनालोप प्रायश्चित किए बिना तथा पुनः नित्यसन्ध्योपासना से च्युत नहीं होंगे इस प्रकार निवृत्तिरूप निश्चय करने तक) अधिकारी नहीं - तो फिर क्यों सभी को वैदिक कर्मकांड वैदिकों करवा रहे हैं ? आजकल कुछ कर्मकांडी-पंडितों  भी सन्ध्योपासना नहीं करतें । इन्हें अमंत्रक(बिना वेदमंत्र के पुराणोक्त कर्मकांड करवायें, जब तक उचितरूप से प्रायश्चित्त करकें अधिकारी द्विज न हो।) सातदिन सन्ध्योपासना न करनेवाले द्विज को प्रायश्चित्त पूर्वक पुनरुपनयन कहा हैं क्योंकि वह द्विजकर्मों से अपना अधिकार खो चूका -- सभी द्विजों में वेदाध्ययन, सवैदिकमंत्रयज्ञ और सवैदिकमंत्रदान समानकर्म हैं तद्वद वेदाध्यापन, यज्ञ और परिग्रह तथा उपर के सभी समान तीन कर्म ब्राह्मणों के कुल छह कर्म हैं उस सब में से शास्त्रकारों ने शूद्रवद् बहिष्कृत कहा हैं --- क्योंकि इनकी गिनति मनु,हेमाद्री,देवल आदि ने भी अयाज्यों में ही कही हैं और द्विजत्व से इन्हीं कारणों के अनुसार पतित अथवा जातिमात्र ही हैं द्विजत्व समाप्त हो चूका हैं -- ( इस प्रकार पुनः यज्ञोपवीत के निमित्त कारणों को आचरने वाला भी ) द्विजत्व से हीन हैं।
(१)--- *(#न_तिष्ठति_तु_यः_पूर्वां_नोपास्ते_यश्च_पश्चिमाम्। #स_शूद्रवद्बहिष्कार्यः_सर्वस्माद्द्विजकर्मणः। २/१०३ मनुः।। तत्रैव कुल्लुकभाष्य - "" स शूद्र इव सर्वस्माद् द्विजातिकर्मणोऽतिथि सत्कारादेपि बाह्यः कार्यः।।)"*
(२) #चतुर्वर्ग_चिंतामणौ - पृष्ठ ७९८ कर्मच्युतव्रात्यः "( व्रात्यो गायत्री नाशकः।। देवलः।। तत्र हेमाद्रीः - "" सन्ध्यादि नित्यकर्माणि त्यक्त्वा सर्वदा वर्त्तयन् -इत्यर्थः।।)"

यदि वैदिक कर्मकांड करवाना चाहतें हो तो पहिले आप-ब्राह्मण  और बाद में द्विज यजमान द्विजत्व से पतित हैं कि नहीं यह ध्यान रखें, पुनरुपनयन निमित्त दोषों तथा समस्त प्रकार के अयाज्यों का याजन करनेवाला भी द्विजत्व से पतित हैं- इनको इनके दोषानुसार उचित प्रायश्चित्त के बाद पुनः द्विजत्व से पतित नहीं होगे एतदर्थरूप पश्चाताप करने वाले को पहिले उक्त विधा से शुद्धि कर पुनःउपनयन हो जाने के बाद यही पतित शुद्ध द्विज हो सकतें हैं अन्यथा ये अयाज्य ही रहेगे --इनके वैदिक कर्मकांड नहीं हो सकतें , पुराणोक्त कर्मकांड कर सकते हैं।
शास्त्रकी मर्यादा में अधिकार अनधिकार होता हैं किसी देयउपाधि के कारण अधिकार सिद्ध नहीं ।

पति जैसा पुत्र पाने का उपाय

रजस्वला चौथे दिन - गोमय,मिट्टी,भस्म मिलाकर स्नान करे, फिर स्नान कर , टिका लगाकर , पुष्प आदि से अलंकृत होकर - तीन आचमन करके पुष्पों से सूर्यनारायण का पूजन कर प्रार्थना करे "(इन्द्रं प्रभो वरं मह्यमिदानीं दातुमर्हसि।।)"
इस प्रकार इन्द्र जैसा पराक्रमी पति की कामना करें.. इस प्रकार प्रार्थना करने के बाद
ऋतुस्नाता स्नेहपूर्वक जिस पुरुष को दैखती है, तदनुरूप पुत्र को जन्म दैती हैं इसलिये अपने पति का दर्शन करें --- *(ऋतुस्नाता तु या नारी यं स्नेहान्नरमीक्षते। तादृशं जनयेत् पुत्रं पतिमेव निरीक्षयेत्।। संस्कार रत्नमाला।।)*

Thursday, 13 December 2018

ऐतरेय ब्राह्मण

ऐतरेय  ब्राह्मण  गणराज्य कला
दर्शन इतिहास

'ऐतरेय ब्राह्मण' ऋग्वेद के शाकल शाखा के सम्बद्व है। इसमें 8 खण्ड, 40 अध्याय तथा 285 कण्डिकाएं हैं। इसकी रचना 'महिदास ऐतरेय' द्वारा की गई थी, जिस पर सायणचार्य ने अपना भाष्य लिखा है। इस ग्रन्थ से यह पता चलता है कि उस समय पूर्व में विदेह जाति का राज्य था जबकि पश्चिम में नीच्य और अपाच्य राज्य थे। उत्तर में कुरू और उत्तर मद्र का तथा दक्षिण में भोज्य राज्य थां। ऐतरेय ब्राह्मण में राज्याभिषेक के नियम दिये गये हैं। इसके अन्तिम भाग में पुरोहित का विशेष महत्त्व निरूपित किया गया है।

ॠक् साहित्य में दो ब्राह्मण ग्रन्थ हैं। पहले का नाम ऐतरेय ब्राह्मण तथा दूसरे का शाख्ङायन अथवा कौषीतकि ब्राह्मण है। दोनों ग्रन्थों का अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध है, यत्र-तत्र एक ही विषय की व्याख्या की गयी है, किन्तु एक ब्राह्मण में दूसरे ब्राह्मण में विपरीत अर्थ प्रकट किया गया है। कौषीतकि ब्राह्मण में जिस अच्छे ढंग से विषयों की व्याख्या की गयी है उस ढंग से ऐतरेय ब्राह्मण में नहीं है। ऐतरेय ब्राह्मण के पिछले दस अध्यायों में जिन विषयों की व्याख्या की गयी है वे कौषीतकि में नहीं हैं, किन्तु इस अभाव को शाख्ङायन सूत्रों में पूरा किया गया है। आजकल जो ऐतरेय ब्राह्मण उपलब्ध है उसमें कुल चालीस अध्याय हैं। इनका आठ पंजिकाओं में विभाग हुआ है। शाख्ङायन ब्राह्मण में तीस अध्याय हैं।

                                                                                    विषय सूची 
1 ऐतरेय ब्राह्मण का प्रवचनकर्ता
2 ऐतरेय-ब्राह्मण का विभाग, चयनक्रम और प्रतिपाद्य
3 ऐतरेय ब्राह्मण की व्याख्या-सम्पत्ति
4 ऐतरेय ब्राह्मण की रूप-समृद्धि
5 ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विवरण
6 पुरोहित का गौरव
7 आचार-दर्शन
8 देवताविषयक विवरण
9 शुन:-शेप-आख्यान
10 शैलीगत एवं भाषागत सौष्ठव
11 वैज्ञानिक तथ्यों का समावेश
12 ऐतरेय ब्राह्मण के उपलब्ध संस्करण
13 टीका टिप्पणी और संदर्भ
14 संबंधित लेख

ऐतरेय ब्राह्मण का प्रवचन कर्ता
पारम्परिक दृष्टि से ऐतरेय ब्राह्मण के प्रवचनकर्ता ॠषि महिदास ऐतरेय हैं। षड्गुरुशिष्य ने महिदास को किसी याज्ञवल्क्य नामक ब्राह्मण की इतरा (द्वितीया) नाम्नी भार्या का पुत्र बतलाया है।

[1] ऐतरेयारण्यक के भाष्य में षड्गुरुशिष्य ने इस नाम की व्युत्पत्ति भी दी है।

[2] सायण ने भी अपने भाष्य के उपोद्घात में इसी प्रकार की आख्यायिका दी है, जिसके अनुसार किसी महर्षि की अनेक पत्नियों में से एक का का नाम 'इतरा' था। महिदास उसी के पुत्र थे। पिता की उपेक्षा से खिन्न होकर महिदास ने अपनी कुलदेवता भूमि की उपासना की, जिसकी अनुकम्पा से उन्होंने ऐतरेय ब्राह्मण के साथ ही ऐतरेयारण्यक का भी साक्षात्कार किया।

[3] भट्टभास्कर के अनुसार ऐतरेय के पिता का नाम ही ॠषि इतर था।

[4] स्कन्द पुराण में प्राप्त आख्यान के अनुसार ऐतरेय के पिता हारीत ॠषि के वंश में उत्पन्न ॠषि माण्डूकि थे।

[5] छान्दोग्य उपनिषद

[6] के अनुसार महिदास को 116 वर्ष की आयु प्राप्त हुई। शांखायन गृह्यसूत्र

[7] में भी इनके नाम का 'ऐतरेय' और 'महैतरेय' रूपों के उल्लेख हैं।

कतिपथ पाश्चात्त्य मनीषियों ने अवेस्ता में 'ॠत्विक्' के अर्थ में प्रयुक्त 'अथ्रेय' शब्द से 'ऐतरेय' का साम्य स्थापित करने की चेष्टा की है। इस साम्य के सिद्ध हो जाने पर 'ऐतरेय' की स्थिति भारोपीयकालिक हो जाती है। हॉग और खोन्दा सदृश पाश्चात्त्य विद्वानों की धारणा है कि सम्पूर्ण ऐतरेय ब्राह्मण किसी एक व्यक्ति अथवा काल की रचना नहीं है। अधिक से अधिक महिदास को ऐतरेय ब्राह्मण के वर्तमान पाठ का सम्पादक माना जा सकता है।

[8] ऐतरेय-ब्राह्मण का विभाग, चयनक्रम और प्रतिपाद्य
सम्पूर्ण ऐतरेय ब्राह्मण में 40 अध्याय हैं। प्रत्येक पाँच अध्यायों को मिलाकर एक पंचिका निष्पन्न हो जाती है जिनकी कुल संख्या आठ है। अध्याय का अवान्तर विभाजन खण्डों में है, जिनकी संख्या प्रत्येक अध्याय में पृथक्-पृथक् है। समस्त चालीस अध्यायों में कुल 285 खण्ड हैं। ऋग्वेद की प्रसिद्धि होतृवेद के रूप में है, इसलिए उससे सम्बद्ध इस ब्राह्मण ग्रन्थ में सोमयागों के हौत्रपक्ष की विशद मीमांसा की गई है।

होतृमण्डल में, जिनकी ‘होत्रक’ के नाम से प्रसिद्धि है, सात ॠत्विक होते हैं-
होता,
मैत्रावरुण,
ब्राह्मणाच्छंसी,
नेष्टा,
पोता,
अच्छावाक और
आग्नीघ्र।

ये सभी सोमयागों के तीनों सवनों में ॠङ्मन्त्रों से 'याज्या'

[9] का सम्पादन करते हैं। इनके अतिरिक्त पुरोनुवाक्याएं होती हैं, जिनका पाठ होम से पहले होता है। होता, मैत्रावरुण, ब्राह्मणाच्छंसी और अच्छावाक- ये आज्य, प्रउग प्रभृति शस्त्रों[

10] का शंसन करते हैं। इन्हीं का मुख्यता प्रतिपादन इस ब्राह्मण ग्रन्थ में है। प्रसंग वश कतिपय अन्य कृत्यों का निरूपण भी हुआ है।

होता के द्वारा पठनीय प्रमुख शस्त्र ये हैं-
आज्य शस्त्र,
प्रउग शस्त्र,
मरुत्वतीय शस्त्र,
निष्कैवल्य शस्त्र,
वैश्वदेव शस्त्र,
आग्निमारुत शस्त्र,
षोडशी शस्त्र,
पर्याय शस्त्र और
आश्विन शस्त्र आदि।

याज्या और पुरोऽनुवाक्या को छोड़कर अन्य शस्त्र प्राय: तृच होते हैं जिनमें पहली और अन्तिम (उत्तमा) ॠचा का पाठ तीन-तीन बार होता है। 'उत्तमा' ॠचा को ही 'परिधानीया' भी कहते हैं। पहली ॠचा का ही पारिभाषिक नाम 'प्रतिपद' भी है। इन्हीं के औचित्य का विवेचन वस्तुत: ऐतरेय ब्राह्मणकार का प्रमुख उद्देश्य है।

अग्निष्टोम समस्त सोमयागों का प्रकृतिभूत है, एतएव इसका सर्वप्रथम विधान किया गया है, जो पहली पंचिका से लेकर तीसरी पंचिका के पाँचवें खण्ड तक है। यह एक दिन का प्रयोग है सुत्यादिन की दृष्टि से सामान्यत: इसके अनुष्ठान में कुल पाँच दिन लगते हैं।

इसके अनन्तर अग्निष्टोम की विकृतियों उक्थ्य, क्रतु, षोडशी और अतिरात्र का वर्णन चतुर्थ पंचिका के द्वितीय अध्याय के पंचम खण्ड तक है।

इसके पश्चात सत्रयागों का विवरण है, जो ऐतरेय ब्राह्मण में ताण्ड्यादि अन्य ब्राह्मणों की अपेक्षा कुछ कम विस्तार से है। सत्रयागों में ‘गवामयन’ का चतुर्थ पंचिकागत दूसरे अध्याय के षष्ठ खण्ड से तीसरे अध्यायान्तर्गत अष्टम खण्ड तक निरूपण है। 'अङिगरसामयन' और 'आदित्यानामयन' नामक सत्रयाग भी इसी मध्य आ गये हैं।

पाँचवीं पंचिका में विभिन्न द्वादशाह संज्ञक सोमयागों का निरूपण है। इसी पंचिका में अग्निहोत्र भी वर्णित है।

छठी पंचिका में सोमयागों से सम्बद्ध प्रकीर्ण विषयों का विवेचन है। इसी पंचिका के चतुर्थ और पंचम अध्यायों में बालखिल्यादि सूक्तों की विशद प्ररोचना की गई है, जिनकी गणना खिलों के अन्तर्गत की जाती है।

सप्तम पंचिका का प्रारम्भ यद्यपि पशु-अंगों की विभक्ति-प्रक्रिया के विवरण के साथ होता है, किन्तु इसके दूसरे अध्याय में अग्निहोत्री के लिए विभिन्न प्रायश्चित्तों, तीसरे में शुन:-शेप का सुप्रसिद्ध उपाख्यान और चतुर्थ अध्याय में राजसूययाग के प्रारम्भिक कृत्यों का विवरण है।

आठवीं पंचिका के प्रथम दो अध्यायों में राजसूययाग का ही निरूपण है, किन्तु अन्तिम तीन अध्याय सांस्कृतिक और ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विवरण-ऐन्द्र महभिषेक, पुरोहित की महत्ता तथा ब्रह्मपरिमर

[11] का प्रस्तावक है। 'ब्रह्म' का अर्थ यहाँ वायु है। इस वायु के चारों ओर विद्युत, वृष्टि, चन्द्रमा, आदित्य और अग्नि प्रभृति का अन्तर्भाव मरण-प्रकार ही ‘परिमर’ है। यज्ञ की सामान्य प्रक्रिया से हटकर सोचने पर यह कोई विलक्षण वैज्ञानिक कृत्य प्रतीत होता है।
इनमें से 30 अध्यायों तक प्राच्य और प्रतीच्य उभयवुध विद्वानों के मध्य कोई मतभेद नहीं है। यह भाग निर्विवाद रूप से ऐतरेय ब्राह्मण का प्राचीनतम भाग है। इसमें भी प्रथम पाँच अध्याय तैत्तिरीय ब्राह्मण से भी पूर्ववर्त्ती माने जा सकते हैं।

[12] कीथ की इस धारणा के विपरीत विचार हार्श (V.G.L.Horch) का है, जो तैत्तिरीय की अपेक्षा इन्हें परवर्ती मानते हैं।

[13] कौषीतकि ब्राह्मण के साथ ऐतरेय की तुलनात्मक विवेचना करने के अनन्तर पाश्चात्य विद्वानों का विचार है कि सातवीं और आठवीं पंचिकाएं

[14] परवर्ती हैं। इस सन्दर्भ में प्रदत्त तर्क ये हैं:-
कौषीतकि ब्राह्मण में मात्र 30 अध्याय हैं- जबकी दोनों ही ॠग्वेदीय ब्राह्मणों का वर्ण्यविषय एक ही सोमयाग है।
राजसूययाग में राजा का यागगत पेय सोम नहीं है, जबकि ऐतरेय ब्राह्मण के मुख्य विषय सोमयाग के अन्तर्गत पेयद्रव्य सोम है।
ऐतरेय ब्राह्मण की सप्तम पंचिका का आरम्भ 'अथात:'

[15] से हुआ है, जो परवर्ती सूत्र-शैली प्रतीत होती है।
उपर्युक्त तर्कों के उत्तर में यहाँ केवल पाणिनि का साक्ष्य ही पर्याप्त है, जिन्होंने ऐतरेय ब्राह्मण के 40 अध्यायात्मक स्वरूप का संकेत से उल्लेख किया है। वे ऋग्वेद के दूसरे ब्राह्मण कौषीतकि के 30 अध्यायात्मक स्वरूप से भी परिचित थे।

[16] वस्तुत: उपर्युक्त शंकाओं

[17] का कारण ऐतरेय ब्राह्मण की विवेचन-शैली है, जो विषय को संश्लिष्ट और संहितरूप में न प्रस्तुत कर कुछ फैले-फैले रूप में निरूपित करती है। वास्तव में श्रौतसूत्रों के सदृश समवेत और संहितरूप में विषय-निरूपण की अपेक्षा ब्राह्मण ग्रन्थों से नहीं की जा सकती। यह सुनिश्चित है कि ऐतरेय ब्राह्मण पाणिनि के काल तक अपने वर्तमान स्वरूप को प्राप्त कर चुका था। मूलवेद

[18] के अस्तित्व की बात भी उठाई है, किन्तु प्रा. खोंदा जैसे मनीषियों ने उससे असाहमत्य ही प्रकट किया है।

[19] ऐतरेय ब्राह्मण की व्याख्या-सम्पत्ति
इस पर चार प्राचीन भाष्यों का अस्तित्व बतलाया जाता है- गोविन्दस्वामी,
भट्टभास्कर,
षड्गुरुशिष्य और
सायणाचार्य के भाष्य।

इनमें से अभी तक केवल अन्तिम दो का प्रकाशन हुआ है। उनमें भी अध्ययन-अध्यापन का आधार सामान्यतया सायणभाष्य ही है, जिनमें होत्रपक्ष की सभी ज्ञातव्य विशेषताओं का समावेश है।

ऐतरेय ब्राह्मण की रूप-समृद्धि
किसी कृत्यविशेष में विनियोजन मन्त्र के देवता, छन्दस इत्यादि के औचित्य-निरूपण के सन्दर्भ में ऐतरेयकार अन्तिम बिन्दु तक ध्यान रखता है। इसे वह अपनी पारिभाषिक शब्दावली में ‘रूप-समृद्धि’ की आख्या देता है- एतद्वै यज्ञस्य समृद्वं यद्रूप-समृद्वं यत्कर्म क्रियामाणं ॠगभिवदति।

[20] ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विवरण
ऐतरेय ब्राह्मण में मध्य प्रदेश का विशेष आदर पूर्वक उल्लेख किया गया है- 'ध्रुवायां मध्यमायां प्रतिष्ठायां दिशि'।

[21] पं. सत्यव्रत सामश्रमी के अनुसार इस मध्य प्रदेश में कुरु, पंचाल, शिवि और सौवीर संज्ञक प्रदेश सम्मिलित थे।

[22] महिदास का अपना निवास-स्थान भी इरावती नदी के समीपस्थ किसी जनपद में था।

[23] ऐतरेय ब्राह्मण

[24] के अनुसार उस समय भारत के पूर्व में विदेह आदि जातियों का राज्य था। दक्षिण में भोजराज्य, पश्चिम में नीच्य और अपाच्य का राज्य, उत्तर में उत्तरकुरुओं और उत्तर मद्र का राज्य तथा मध्य भाग में कुरु-पंचाल राज्य थे।

ऐन्द्र-महाभिषेक के प्रसंग में, अन्तिम तीन अध्यायों में जिन ऐतिहासिक व्यक्तियों के नाम आये हैं, वे हैं- परीक्षित-पुत्र जनमेजय, मनु-पुत्र शर्यात, उग्रसेन-पुत्र युधां श्रौष्टि, अविक्षित-पुत्र मरूत्तम, सुदास पैजवन, शतानीक और दुष्यन्त-पुत्र भरत। भरत की विशेष प्रशंसा करते हुए कहा गया है कि उसके पराक्रम की समानता कोई भी नहीं कर पाया।
महाकर्म भरतस्य न पूर्वे नापरे जना:।
दिवं मर्त्य इव हस्ताभ्यां नोदापु: पञ्च मानवा:॥

[25]
इस भरत के पुरोहित थे ममतापुत्र दीर्घतमा।
पुरोहित का गौरव
ऐतरेय ब्राह्मण के अन्तिम अध्याय में पुरोहित का विशेष महत्त्व निरूपित है। राजा को पुरोहित की नियुक्ति अवश्य करनी चाहिए, क्योंकि वह आहवनीयाग्नितुल्य होता है। पुरोहित वस्तुत: प्रजा का प्रतिनिधि है, जो राजा से प्रतिज्ञा कराता है कि वह अपनी प्रजा से कभी द्रोह नहीं करेगा।

आचार-दर्शन
ऐतरेय ब्राह्मण में नैतिक मूल्यों और उदात्त आचार-व्यवहार के सिद्धान्तों पर विशेष बल दिया गया है। प्रथम अध्याय के षष्ठ खण्ड में कहा गया है कि दीक्षित यजमान को सत्य ही बोलना चाहिए

[26] इसी प्रकार के अन्य वचन हैं- जो अहंकार से युक्त होकर बोली जाती है, वह राक्षसी वाणी है।

[27] शुन:शेप से सम्बद्ध आख्यान के प्रसंग में कर्मनिष्ठ जीवन और पुरुषार्थ-साधना का महत्त्व बड़े ही काव्यात्मक ढंग से बतलाया गया है। कहा गया है कि बिना थके हुए श्री नहीं मिलती; जो विचरता है, उसके पैर पुष्पयुक्त होते हैं, उसकी आत्मा फल को उगाती और काटती है। भ्रमण के श्रम से उसकी समस्त पापराशि नष्ट हो जाती है। बैठे-ठाले व्यक्ति का भाग भी बैठ जाता है, सोते हुए का सो जाता है और चलते हुए का चलता रहता है। कलि युग का अर्थ है मनुष्य की सुप्तावस्था, जब वह जंभाई लेता है तब द्वापर की स्थिति में होता है, खड़े होने पर त्रेता और कर्मरत होने पर सत युग की अवस्था में आ जाता है। चलते हुए ही मनुष्य फल प्राप्त करता है। सूर्य के श्रम को देखो, जो चलते हुए कभी आलस्य नहीं करता-
कलि: सयानो भवति संजिहानस्तु द्वापर:।
उत्तिष्ठंस्त्रेता भवति कृतं सम्पद्यते चरंश्चरैवेति॥
चरन्वै मधु विन्दति चरन्स्वादुमुदुम्बरम्।
सूर्यस्य पश्य श्रेमाणं यो न तन्द्रयते चरंश्चरैवेति॥

[28] देवताविषयक विवरण
ऐतरेय ब्राह्मण में कुल देवता 33 माने गए हैं- 'त्रयस्त्रिंशद् वै देवा:'। इनमें अग्नि प्रथम देवता है और विष्णु परम देवता। इन्हीं के मध्य शेष सबका समावेश हो जाता है-

[29] यहीं से महत्ता-प्राप्त विष्णु आगे पुराणों में सर्वाधिक वेशिष्ट्यसम्पन्न देवता बन गए। देवों के मध्य इन्द्र अत्यधिक ओजस्वी, बलशाली और दूर तक पार कराने वाले देवता हैं-

[30] देवताओं के सामान्यरूप से चार गुण हैं-
देवता सत्य से युक्त होते हैं,
वे परोक्षप्रिय होते हैं,
वे एक दूसरे के घर में रहते और
वे मर्त्यों को अमरता प्रदान करते हैं।

[31] शुन:-शेप-आख्यान
ऐतरेय ब्राह्मण में आख्यानों की विशाल थाती संकलित है। इनका प्रयोजन याग से सम्बद्ध देवता और उनके शस्त्रों (स्तुतियों) के छन्दों एवं अन्य उपादानों का कथात्मक ढंग से औचित्य-निरूपण है। इन आख्यानों में शुन:शेप का आख्यान, जिसे हरिश्चन्द्रोपाख्यान भी कहा जाता है, समाजशास्त्र, नेतृत्वशास्त्र एवं धर्मशास्त्र की दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण है। यह 33वें अध्याय में समाविष्ट है। राज्याभिषेक के समय यह राजा को सुनाया जाता था। संक्षिप्त रूप में आख्यान इस प्रकार है: इक्ष्वाकुवंशज राजा हरिश्चन्द्र पुत्ररहित थे। वरुण की उपासना और उनकी प्रसन्नता तथा इस शर्त पर राजा को रोहित नामक पुत्र की प्राप्ति हुई कि वे उसे वरुण को समर्पित कर देंगे; बाद में वे उसे समर्पित करन्र से टालते रहे, जिसके फलस्वरूप वरुण के कोप से वे रोगग्रस्त हो गये। अन्त में राजा ने अजीगर्त ॠषि के पुत्र शुन:-शेप को ख़रीद कर उसकी बलि देने की व्यवस्था की। इस यज्ञ में विश्वामित्र और जमदग्नि ॠत्विक् थे। शुन:-शेप की बलि के लिए इनमें से किसी के भी तैयार न होने पर अन्त में पुन: अजीगर्त्त ही लोभवश उस काम के लिये भी तैयार हो गये। बाद में विभिन्न देवी-देवताओं कि स्तुति से शुन:-शेप बन्धन-मुक्त हो गये। लोभी पिता का उन्होंने परित्याग कर दिया और विश्वामित्र ने उन्हें पुत्ररूप में स्वीकार कर लिया। शुन:-शेप का नया नामकरण हुआ देवरात विश्वामित्र।

इस आख्यायिका के चार प्रयोजन आपातत: प्रतीत होते हैं- वैदिक मन्त्रों की शक्ति और सामार्थ्य का अर्थवाद के रूप में प्रतिपादन, जिनकी सहायता से व्यक्ति वध और बन्धन से भी मुक्त हो सकता है।

यज्ञ या किसी भी धार्मिक कृत्य में नर-बलि जैसे घृणित कृत्य की भर्त्सना सम्भव है, बहुत आदिम-प्राकृत-काल में, जब यज्ञ-संस्था विधिवत गठित न हो पाई हो, नर-बलि की छिटपुट घटनाओं की यदा-कदा आवृत्ति हो जाती हो। ऐतरेय ब्राह्मण ने प्रकृत प्रसंग के माध्यम से इसे अमानवीय घोषित कर दिया है।

मानव-हृदय की, ज्ञानी होने पर भी लोभमयी प्रवृति का निदर्शन, जिसके उदाहरण ॠषि अजीगर्त हैं।
राज-सत्ता द्वारा निजी स्वार्थ के लिए प्रजा का प्रलोभनात्मक उत्पीड़न।

इस आख्यायिका के हृदयावर्जक अंश दो ही हैं-
राजा हरिश्चन्द्र के द्वारा प्रारम्भ में पुत्र-लालसा की गाथाओं के माध्यम से मार्मिक अभिव्यक्ति।
‘चरैवेति’ की प्रेरणामयी गाथाएँ।

शैलीगत एवं भाषागत सौष्ठव
ऐतरेय ब्राह्मण में रूपकात्मक और प्रतीकात्मक शैली का आश्रय लिया गया है, जो इसकी अभिव्यक्तिगत सप्राणता में अभिवृद्धि कर देती है। स्त्री-पुरुष के मिथुनभाव के प्रतीक सर्वाधिक हैं। उदाहरण के लिए वाणी और मन देवमिथुन है

[32] घृतपक्व चरु में घृत स्त्री-अंश है और तण्डुल पुरुषांश।

[33] दीक्षणीया इष्टि में दीक्षित यजमान के समस्त संस्कार गर्भगत शिशु की तरह करने का विधान भी वस्तुत: प्रतीकात्मक ही है। कृत्य-विधान के सन्दर्भ में कहीं-कहीं बड़े सुन्दर लौकिक उदाहरण दिये गये हैं, यथा एकाह और अहीन यागों के कृत्यों से याग का समापन इसलिए करना चाहिए, क्योंकि दूर की यात्रा करने वाले लक्ष्य पर पहुँचकर बैलों को बदल देते हैं।

38वें अध्याय में, ऐन्द्रमहाभिषेक के प्रसंग में मन्त्रों से निर्मित आसन्दी का सुन्दर रूपक प्राप्त होता है, जो इस प्रकार है- इस आसन्दी के अगले दो पाये बृहत् और रथन्तरसामों से तथा पिछले दोनों पाये वैरूप और वैराज सामों से निर्मित हैं। ऊपर के पट्टे का कार्य करते है शाक्वर और रैवत साम। नौधस और कालेय साम पार्श्व फलक स्थानीय है। इस आसन्दी का ताना ॠचाओं से, बाना सामों से तथा मध्यभाग यजुर्षों से निर्मित है।

इसका आस्तरण है यश का तथा उपधान श्री का। सवितृ, बृहस्पति और पूषा प्रभृति विभिन्न देवों ने इसके फलकों को सहारा दे रखा है। समस्त छन्दों और तदभिमानी देवों से यह आसन्दी परिवेष्टित है। अभिप्राय यह है कि बहुविध उपमाओं और रूपकों के आलम्बन से विषय-निरूपण अत्यन्त सुग्राह्य हो उठा है। ऐतरेय ब्राह्मण की रचना ब्रह्मवादियों के द्वारा मौखिकरूप में व्यवहृत यज्ञ विवेचनात्मक सरल शब्दावली में हुई है जैसा कि प्रोफेसर खोंदा ने अभिमत व्यक्त किया है।

[34] प्रोफेसर कीथ ने अपनी भूमिका में इसकी रूप-रचना, सन्धि और समासगत स्थिति का विशद विश्लेषण किया है।

वैज्ञानिक तथ्यों का समावेश
ऐतरेय-ब्राह्मण में अनेक महत्त्वपूर्ण वैज्ञानिक सूचनाएं संकलित हैं, उदाहरण के लिए 30वें अध्याय में, पृथ्वी के प्रारम्भ में गर्मरूप का विवरण प्राप्त होता है- आदित्यों ने अंगिरसों को दक्षिणा में पृथ्वी दी। उन्होंने उसे तपा डाला, तब पृथ्वी सिंहिनी होकर मुँह खोलकर आदमियों को खाने के लिए दौड़ी। पृथ्वी की इस जलती हुई स्थिति में उसमें उच्चावच गर्त बन गए।

ऐतरेय ब्राह्मण के उपलब्ध संस्करण
अद्यावधि अएतरेय-ब्राह्मण के (भाष्य, अनुवाद या वृत्तिसहित अथवा मूलमात्र) जो संस्करण प्रकाशित हुए हैं, उनका विवरण निम्नवत् है-
1863 ई. में अंग्रेज़ी अनुवाद सहित मार्टिन हॉग के द्वारा सम्पादित और बम्बई से मुद्रित संस्करण, दो भागों में।
थियोडार आउफ्रेख्ट के द्वारा 1879 में सायण-भाष्यांशों के साथ बोन से प्रकाशित संस्करण्।

1895 से 1906 ई. के मध्य सत्यव्र्त सामश्रमी के द्वारा कलकत्ता से सायण-भाष्यसहित चार भागों में प्रकाशित संस्करण्।

ए.बी.कीथ के द्वारा अंग्रेज़ी में अनूदित, 1920 ई. में कैम्ब्रिज से (तथा 1969 ई. में दिल्ली से पुनर्मुद्रित) प्रकाशित संस्करण्।

1925 ई. में निर्णयसागर से मूलमात्र प्रकाशित जिसका भारत सरकार ने अभी-अभी पुनर्मुद्रण कराया है।

1950 ई. में गंगा प्रसाद उपाध्याय का हिन्दी अनुवाद मात्र हिन्दी-साहित्य सम्मेलन प्रयाग से प्रकाशित।

1980 /इ. में सायण-भाष्य और हिन्दी अनुवाद-सहित सुधाकर मालवीय के द्वारा सम्पादित संस्करण, वाराणसी से प्रकाशितअ।

अनन्तकृष्ण शास्त्री के द्वारा षड्गुरुशिष्य-कृत सुखप्रदा-वृत्तिसहित, तीन भागों में त्रिवेन्द्रम से 1942 से 52 ई. के मध्य प्रकाशित संस्करण्।

टीका टिप्पणी और संदर्भ
↑ 'महिदासैतरैयर्षिसन्दृष्टं ब्राह्मणं तु यत्। आसीद् विप्रो यज्ञवल्को द्विभार्यस्तस्य द्वितीयामितरेति चाहु:।' ऐतरेय ब्राह्मण, सुखप्रदावृत्ति
↑ इतराख्यस्य माताभूत् स्त्रीभ्यो ढक्यैतरेयगी:। ऐतरेयारण्यक, भाष्यभूमिका
↑ ऐतरेय ब्राह्मण सायण-भाष्य, पृष्ठ 8,(आनन्दाश्रम
↑ इतरस्य ॠषेरपत्यमैतरैय:। शुभ्रादिभ्यश्य ढक्।
↑ अस्मिन्नैव मम स्थाने हारीतस्यान्वयेऽभवत्। माण्डूकिरिति विप्राग्र्यो वेदवेदाङगपारग:॥ तस्यासीदितरानाम भार्या साध्वी गुणैर्युता। तस्यामुत्पद्यतसुतस्त्वैतरेय इति स्मृत:॥ स्कन्द पुराण, 1.2.42.26-30
↑ छान्दोग्य उपनिषद 3.16.7
↑ शांखायन गृह्यसूत्र 4.10.3
↑ जे. खोन्दा, हिस्ट्री इण्डियन लिटरेचर वे.लि., भाग 21, पृ. 344
↑ ठीक आहुति-सम्प्रदान के समय पठित मन्त्र
↑ अगीतमन्त्र-साध्य स्तुति
↑ शत्रुक्षयार्थक प्रयोग
↑ कीथ, ऋग्वेद ब्राह्मण, भूमिका
↑ वी.जी.एल.हार्श, डी वेदिशे गाथा उण्ड श्लोक लितरातुर
↑ अन्तिम 10 अध्याय
↑ अथात: पशोर्विभक्तिस्तस्य विभागं वक्ष्याम:
↑ अष्टाध्यायी 5.1.62
↑ जिनमें षष्ठ पंचिका को परिशिष्ट मानने की धारणा भी है, क्योंकि इसमें स्थान-स्थान पर पुनरुक्ति है
↑ भारोपीय काल के वैदिक संहिता-स्वरूप, जिसको जर्मन भाषा में ‘UR-Brahmana
↑ खोन्दा, हिस्ट्री आफ इण्डियन लिटरेचर, वे.लि., भाग 1, पृ. 360
↑ ऐतरेय ब्राह्मण 3.2
↑ ऐतरेय ब्राह्मण 8.4
↑ ऐतरेयालोचन, कलकत्ता, 1906 पृष्ठ 42
↑ ऐतरेयालोचन, कलकत्ता, 1906, पृष्ठ 71
↑ ऐतरेय ब्राह्मण (8.3.2
↑ ऐतरेय ब्राह्मण 8.4.9
↑ 'ॠतं वाव दीक्षा सत्यं दीक्षा तस्माद् दीक्षितेन सत्यमेव वदितव्यम्'।
↑ 'विदुषा सत्यमेव वदितव्यम्'(5.2.9)। 'यां वै दृप्तो वदति, यामुन्मत्त: सा वै राक्षसी वाक्'(2.1)।
↑ ऐतरेय ब्राह्मण, 33.1
↑ 'अग्निर्वै देवानामवमो विष्णु: परमस्तदन्तरेण अन्या: सर्वा: देवता:'।
↑ 'स वै देवानामोजिष्ठो बलिष्ठ: सहिष्ठ: सत्तम: पारयिष्णुतम:'(7.16)।
↑ ऐतरेय ब्राह्मण (1.1.6; 3.3.9; 5.2.4; 6.3.4
↑ ‘वाक्च वै मनश्च देवानां मिथुनम्’(24.4) ।
↑ ऐतरेय ब्राह्मण 1.1
↑ खोन्दा, हिस्ट्री इण्डियन लिटरेचर:वे.लि., भाग 1, पृ.410

ज्ञ वर्ण का उच्चारण

'ज्ञ' वर्ण के उच्चारण पर शास्त्रीय दृष्टि- संस्कृत भाषा मेँ उच्चारण की शुद्धता का अत्यधिक महत्त्व है। शिक्षा व व्याकरण के ग्रंथोँ म...