Wednesday, 7 March 2018

यज्ञ के अधिकारी कौन ?

================== शास्त्रीय कर्म में सामर्थ्य =================

सामर्थ्य अर्थात् कर्मसम्पादनशक्ति दो प्रकार के हैं - #लौकिक एवं #शास्त्रीय ।

लौकिक सामर्थ्य भी द्विविध -

१. #शारीरिक_और_मानसिक सामर्थ्य
२. #वित्तजन्य सामर्थ्य ।

१. अंध, पंगु , उन्मत्त, वधिर, षंढ (नपुंसक) एवं मूकादि न होना ही शारीरिक एवं मानसिक सामर्थ्य हैं । अंधव्यक्ति आज्यावेक्षणरूप यज्ञांग का संपादन नहीं कर पाता, पंगु विष्णुक्रमणरूप यज्ञांग संपन्न नहीं कर पाता, वधिर नियोगादि मन्त्र श्रवण करनेमें असमर्थ हैं, मूक " इदं न मम " - इस प्रकार से त्यागमन्त्र का उच्चारण नहीं कर सकता, उन्मत्त का शौच-अशौच बोध नहीं होता, षंढ सदा अशुचि ही हैं, देवतायें स्व-उद्येश्य से आहुति प्रदान करने में असमर्थ हैं इत्यादि ।

पूर्वोक्त तत्-तत् हेतुवशतः तत्-तत् व्यक्ति एवं देवतायें कर्मानुष्ठान में अधिकारी नहीं हैं । जिन लोगों में उक्तप्रकार का अंधत्वादि प्रतिबंधक नहीं हैं, वही शारीरिक सामर्थ्यवान अर्थात् कर्मानुष्ठान में अधिकारी हैं ।

~ पूर्वमीमांसा ६.१.२ अधिकरण द्रष्टव्य

पूर्वमीमांसा ६.१.९ - अधिकरणन्यायानुसार चिकित्सादि से अंधत्व की निवृत्ति होनेपर तादृश व्यक्ति कर्म में अधिकारी होता हैं ।

पूर्वमीमांसा ६.१.१० - अधिकरणन्यायानुसार अंगवैकल्ययुक्त व्यक्ति का काम्यकर्म में अधिकार न होनेपर भी नित्यकर्म में अधिकार हैं ।

#वित्तजन्य_सामर्थ्य - कर्मसंपादनयोग्य धनवान होना ही वित्तजन्य सामर्थ्य हैं ।वह धन भी शास्त्रसम्मत एवं न्यायसम्मत उपाय से अर्जित होना आवश्यक हैं , चौर्यवृत्त्यादि से अर्जित नहीं होना चाहिए । वित्तहीन व्यक्ति यदि सदुपाय से यज्ञोपयोगी द्रव्यसंभार संग्रह कर पाये तो उसका अधिकार निवृत्त नहीं होता ।

~ पूर्वमीमांसा ६.१.८ अधिकरण द्रष्टव्य

२. #शास्त्रीय_सामर्थ्य - अध्ययनविधिसिद्ध वेदग्रहण जनित - " स्वाध्यायोsध्येतव्यः " ~ शतपथ ब्राह्मण ११.५.७.२ - इस विधि के बलपर वेदव्रतपालनपूर्वक क्रम एवं स्वरादि सहित स्वशाखाभूत वेदग्रहण करने का नाम " अध्ययनविधिसिद्ध वेदग्रहण " । तज्जनित वेदार्थज्ञान होना शास्त्रीय सामर्थ्य कहा जाता हैं । इस प्रकार का ज्ञान न होनेपर मन्त्रोच्चारण एवं उसका अर्थबोध में असामर्थ्यवशतः कर्म में अधिकार नहीं माना गया ।

~ शास्त्रदीपिका ६.१.६ अधिकरण, रत्नप्रभा १.३.९ अधिकरण द्रष्टव्य

उपनयनसंस्कारयुक्त एवं शास्त्रविहित (अग्न्यन्वाधान क्रियाद्वारा संस्कृत) आधानसिद्ध अग्निवान् होना भी शास्त्रीय सामर्थ्य के अन्तर्गत माना जाता हैं ।

परन्तु उपरोक्त सर्वप्रकार सामर्थ्य होनेपर भी कर्म में अधिकार अथवा सर्वप्रकार के कर्म में सबका अधिकार सिद्ध नहीं होता, इसलिए -

३. #अपर्युदस्तत्व - शास्त्रकर्तृक निवारित न होनेका नाम हैं अपर्युदस्तत्व ।

" तस्माच्छूद्रो यज्ञेऽनवक्लृप्तः " ~ तैत्तिरीय संहिता ७.१.१.६ , इत्यादि प्रत्यक्ष श्रुतिवचन एवं उपनयन का अभाववशतः वेदाध्ययन में अधिकार न होनेसे यज्ञादि शास्त्रीय कर्म में शूद्र पर्युदस्त होता हैं ।

इस प्रकार के वचनों के बलपर ब्राह्मण एवं वैश्य - राजसूय एवं अश्वमेध यज्ञ इत्यादि में, क्षत्रिय एवं वैश्य - सत्रयज्ञ इत्यादि में, ब्राह्मण एवं क्षत्रिय - निष्काम वैश्यस्तोम इत्यादि में, वैश्य - वाजपेय एवं पुरुषमेध यज्ञ इत्यादि में, क्षत्रिय - बृहस्पतिसव नामक यज्ञ इत्यादि में पर्युदस्त होते हैं ।

" न वेदे पत्नीं वाचयति " ~ शाङ्ख्यायन ब्राह्मण ७.३ , " सावित्रीं प्रणवं यजुर्लक्ष्मीं स्त्रीशूद्राय नेच्छन्ति " ~ नृसिंहतापनी उपनिषद् १.३ , " स्त्रीशूद्रद्विजबन्धूनां त्रयी न श्रुतिगोचरा " ~ श्रीमद्भागवत १.४.२५ इत्यादि प्रत्यक्ष श्रुतिवचन एवं स्मृतिवचन के बलपर वेदाध्ययन का अधिकार न होनेसे स्त्रीजाति भी साक्षात्रूप से श्रौतकर्म में पर्युदस्त होती हैं ।

पूर्वमीमांसा ६.१.४ अधिकरण में पति के साथ पत्नी का सहाधिकार स्वीकृत हुआ हैं ।

इस प्रकार से जो शास्त्रकर्तृक पर्युदस्त न हो वही अधिकारी हैं ।

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