Monday, 5 March 2018

पुन: यज्ञोपवीत में प्रायश्चित्त व्रतानि

षोडश_संस्काराः_खंड_१३६- (पुनःयज्ञोपवीत)आवश्यक प्रायश्चित्त व्रतानि..
#प्रायो_नाम_तपः_प्रोक्तं_चित्तं_निश्चय_उच्यते.|
#तपो_निश्चय_संयुक्तं_प्रायश्चित्तमिति_स्मृतम्.||
प्राय अर्थात् तप और चित्त अर्थात् निश्चय कहलातें है. इसलिए निश्चय के साथ होनेवाले तप को ही शास्त्र में प्रायश्चित्त कहा है.
#कृत्वा_पापं_हि_संतप्य_तस्मात्पापात्प्रमुच्यते.|
#नैवं_कुर्यां_पुनरिति_निवृत्या_पूयते_तु_सः_||मनुः ११/२३०||
पाप करकें संताप करनेवाला किये हुए वह पापमें से मुक्त हो जाता है. तथा ऐसा पाप फिरसे नहीं करुंगा ऐसे निवृत्तिरूपी निश्चय करने से भी पवित्र होता है.
#अज्ञानाद्यदि_वा_ज्ञानात्कृत्वा_कर्म_विगर्हितम्.|
#तस्माद्विमुक्ति मन्विच्छन्द्वितीयं न समाचरेत्.||मनुः११/२३२||
जाने या अनजाने निंदितकर्म(पाप)करने के बाद उसमें से मुक्त होने की ईच्छा करनेवाले को फिर से ऐसा दूसरा  निंदित-कर्म नहीं करना चाहिये.
#यस्मिन्कर्मण्यस्य_कृते_मनसः_स्यादलाघवम्.|
#तस्मिंस्तावत्तपः_कुर्याद्यावत्तुष्टिकरं_भवेत्.||मनुः११/२३३||
जो प्रायश्चित्त कर्म करने के बाद भी पाप करनेवाले के मन को यदि संतोष न हो, तो जब तक उस संबंध में संतोष न मिलें, तब तक वह तप पुनः करना चाहिये.
#तप्तकृच्छ्र_व्रत-(लहसुन,गाजर,सलगम, खानेवाले तथा कुत्ती,ऊंटनी,मनुष्यस्त्री,हथिनी,घोडी,गधी इन सबका दूध पीनेवालें को प्रत्येक कहे हुए निंदित खाद्य तथा निंदित दूधपान संख्यामें १/१ अर्थात् लहसुन खानेवाले को १,लहसुन तथा गाजर खानेवाले को २,लहसुन-गाजर तथा हथिनिका दूध पीनेवाले को ३, ऐसे दोषवृद्धि संख्यानुसार,और गधेपर बैठकर योजनभर चलनेवाले के लिए ३, संख्यामें करने चाहिये.)
प्राकार-
#तप्तकृच्छ्र_चरन्विप्रो_जल_क्षीर_घृतानिलान्.|
#प्रति_त्र्यहं_पिबेदुष्णान्सकृत्स्नायी_समाहितः ||मनुः११/२१४||
#अपां_पिबेच्च_त्रिपलं_पलमेकं_च_सर्पिषः |
#पयः_पिबेत्तु_त्रिपलं_त्रिमात्रं_चोक्तमानतः ||
अथवा
#षट्पलं_तु_पिबेदम्भस्त्रिपलं_तु_पयः_पिबेत्.|
#पलमेकं_पिबेत्_सर्पिस्तप्तकृच्छ्रं_विधियते.||पराशरः||

तप्तकृच्छ्रव्रत करनेवाले द्विजको स्नान आदि नित्यकर्मसे निवृत्त होकर संयमित रहके शरीर के सामर्थ्य अनुसार पहले तीन दिन सायंकाल में तीनपल=१२तोला अथवा छहपल=२४तोला गरम जल, दूसरे तीन दिन मध्याह्न में तीनपल=१२तोला  गाय का गरम दूध, तीसरे तीन दिन प्रातःकाल में एकपल=४तोला गाय का गरम घी पीना चाहिये और चौथे तीन दिन वायुभक्षी अर्थात् कुछ भी खाये पीये बिना उपवास पर रहकर गरम पवन का सेवन करना है.

कृच्छ्र(प्राजापत्य)व्रत-
#त्र्यहं_प्रातस्त्र्यहं_सायं_त्र्यहमद्यादयाचितम्.||
#त्र्यहं_परं_च_नाश्नीयात्प्राजापत्यं_चरन्द्विज.||मनुः२११||
प्रथम तीन दिन तक केवल दिन में(मध्याह्न),ही खाना,पश्चात् तीन दिन रात्रि भोजन,पश्चात् तीन दिन बिना माँगे भोजन मिले तो खाना नहीं तो उपवास(जिस व्रतमें अयाचित क्रम हो ऐसा व्रत किसी को भी घरके सदस्योंको व्रतप्रारंभ और अंत तक किसीको बताना नहीं चाहिये.क्योंकि व्रतका विधान बतायेंगे तो संभव हैं कि बिना माँगे ही व्रतार्थीको खिलवा सकते हैं )और चौथे तीन दिन कुछ भी खाये पीना बिना उपवास करैं... ऐसे बारह दिनका एककृच्छ्र अथवा प्राजापत्यव्रत होता हैं.
#सायं_द्वात्रिंशतिर्ग्रासाः_प्रातः_षड्विंशतिस्तथा.||
#अयाचिते_चतुर्विंशत्परं_चानशनं_स्मृतम्.||
#कुक्कुटाण्डप्रमाणं_च_यावाँश्च_प्रविशेन्मुखम्.||
#एतं_ग्रासं_विजानीयाच्छुद्ध्यर्थं_ग्रासशोधनम्.||
#हविष्यं_चान्नमश्नीयाद्_यथा_रात्रौ_तथा_दिवा.||
#त्रींस्त्रीन्यहानि_शास्त्रीयान्_ग्रासान्_संख्याकृतान्_यथा.|
#अयाचित_तथैवाद्याद्_उपवासस्त्रंयहं_भवेत्.||वसिष्ठ/आपस्तंब||

इस कृच्छ्रव्रतमें कुकडीके अंडे के मापसे निवाला (सहजतासे मुखमें प्रवेश हो)उतने सायंकाल ३२ग्रास, सुबह(मध्याह्न)में २६ग्रास, बिना माँगे भोजन मिलनेपर भी २४ग्रास, निवाले भी शास्त्र संमत शुद्ध प्रमाणसे होने चाहिये..जैसे रात्रि और दिनमें तथा बिना माँगे तीनों प्रकारमें हविष्यान्न ही ग्रहण करना चाहिये.तथा चौथे तीन दिन उपवास बिना कुछ खाये पीयें करना यह प्रमाणित कृच्छ्र(प्राजापत्य) जानें.
#चान्द्रायणव्रत- यह व्रत पाँच प्रकार का होता हैं इनमेंसे किसी एक प्रकारका करना हैं.
(१)पिपीलिकामध्ये चांद्रायण-
#एकैकं_ह्रासयेत्पिण्डं_कृष्णे_शुक्ले_च_वर्धयेत्.||
#उपस्पृशंस्त्रिषवणमेतच्चान्द्रायणं_स्मृतम्.||मनुः११/२१६||
तीनों संध्या स्नान कर नित्यकर्मसे निवृत्त होकर कृष्णपक्षमें भोजनमें १/१निवाला कम करते जायें और शुक्लपक्षमें १/१ निवाला वृद्धि करते रहना चाहिये.जैसे कृष्ण प्रतिपदाको १४,द्वितीयाको १३ वैसे घटते क्रम में अमावास्याको उपवास,पश्चात् शुक्ल प्रतिपदा को १,द्वितीया को २,वैसे बढाते क्रम में  पूर्णिमा को १५, निवाले का माप पहले कहा गया हैं.
(२)यव मध्य चान्द्रायण-
#एतमेव_विधिं_कृत्स्नमाचरेद्यवमध्यमे.||
#शुक्लपक्षादि_नियत_चरंश्चान्द्रायणं_व्रतम्.||मनुः११/२१७||
इस मुजब यव मध्य चान्द्रायणमें भी ग्रासकी बढती घटती संख्या और स्नान नियम जानें.इसमें शुक्ल प्रतिपदा से अमावास्या तक के क्रम से, शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को १,द्वितीया को २, वैसे बढते क्रम में पूर्णिमा को १५ ग्रास,पश्चात् कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा को १४, द्वितीया को १३, वैसे घटते क्रम में सम्पूर्ण उपवास. ग्रासका मान पहले कहा गया हैं.
(३)यति चान्द्रायण-
#अष्टावष्टौ_समश्नीयात्पिण्डान्मध्यंदिने_स्थिते.||
#नियतात्मा_हविष्याशी_यतिचान्द्रायणं_चरन्.||मनुः११/२१८||
यति चान्द्रायण करनेवाले द्विज को जितेन्द्रिय रहते हुए तीनों संध्या स्नान आदिसे निवृत्त होकर मध्याह्न में ही ३० तीन ८/८ निवाले हविष्यान्न खाना चाहिये और कुछ भी नहीं.(शुक्ल प्रतिपदासे या कृष्ण प्रतिपदासे आरंभ करैं.) ग्रासका मान पहले कहा हैं.
(४)शिशु चान्द्रायण-
#चतुरः_प्रातरश्नीयात्पिण्डान्विप्रः_समाहितः ||
#चतुरोऽस्तमिते_सूर्ये_शिशुचान्द्रायणं_स्मृतम् ||मनुः११/२१९||
स्वस्थ चित्त वाले द्विजको तीनों संध्या स्नानादि से निवृत्त रहकर सुबह(प्रातःकाल)में ही ४ग्रास, तथा सूर्यास्त समय ४ग्रास प्रतिदिन ३०दिन लेने चाहिये. यह शिशुचान्द्रायण व्रत हैं.
(५) तिस्र अशीतीः ग्रासमान चान्द्रायण-
#यथा_कथंचित्पिण्डानां_तिस्रोऽशीतीः_समाहितः ||
#मासेनाश्नन्हविष्यस्य_चन्द्रस्यति_सलोकताम्.||मनुः११/२२०||
जो द्विज सावधान रहकर तीनों संध्या स्नानादिसे निवृत्त होकर एक मासमें किसी भी प्रकार से हविष्यान्नके केवल २४० ग्रास(निवाले)-मासमें कुल २४०ग्रास हो, वह चन्द्रलोकको प्राप्त करता है.

चान्द्रायण करनेवाले द्विजको ग्रास लेते समय यह मंत्र मनमें पढकर प्रतिग्रासको अभिमंत्रित कर लेना चाहिये..
#ॐभूर्भुवःस्वः_तपः_सत्यं_यशः  #श्रीरूर्गिडौजस्तेजो_वर्चः_पुरुषो_धर्मः_शिवः||(इत्येतैः ग्रासानुमंत्रणं प्रतिमंत्रं मनसा)#नमः_स्वाहा ||

#प्रायश्चित्तव्रतार्थीओं_के_नियम-
#महाव्याहृतिभिर्होमः_कर्तव्यः_स्वयमन्वहम् |
#अहिंसा_सत्यमक्रोधमार्जवं_च_समाचरेत् ||
#त्रिरहस्त्रिनिशायां_च_सवासा_जलमाविशेत् |
#स्त्री_शूद्र_पतितांश्चैव_नाभिभाषेत_कर्हिचित् ||
#स्थानासनाभ्यां_विहरेदशक्नोऽधः_शयीत_वा |
#ब्रह्मचारी_व्रती_च_स्याद्गुरुदेव_द्विजार्चकः ||
#सावित्रीं_च_जपेन्नित्यं_पवित्राणि_च_शक्तितः |
#सर्वेष्वेव_व्रतेष्वेवं_प्रायश्चित्तार्थमादृतः ||
#एतैर्द्विजातयः_शोध्या_व्रतैराविष्कृतैनसः ||मनुः११/२२३-२२७||

व्रतार्थी प्रतिदिन स्वयं (ॐभूःस्वाहा-इदं अग्नये न मम/ ॐभुवःस्वाहा- इदं वायवे न मम/ ॐस्वः स्वाहा-इदं सूर्याय न मम/ ॐ भूर्भुवःस्वःस्वाहा -इदं प्रजापतये न मम) इन महाव्याहृतिमंत्रोसे विट् नामक अग्निमें अपने सूत्रके विधानसे होम करै..
और अहिंसा,सत्यभाषण,क्रोधत्याग, और सरलता का वर्ताव करै..
तीन बार दिनमें तथा तीन बार रात में सवस्त्र स्नान करै.पराई स्त्री,शुद्र तथा पतितो से कभी  बातचीत न करै..
आसनपर बैठे बैठे या खडे खडे व्रतका पालन करै..
अशक्त हो तो भूमीपर लेटकर व्रत का पालन करै..और ब्रह्मचारी,व्रती,गुरु,देवता और द्विजोका पूजन करैं..
नित्य यथाशक्ति(कमसे कम १०८गायत्री के जप),और अघमर्षणादि पवित्र मन्त्रोंका जप करैं..प्रायश्चित के सभी व्रतो में यह विधि मान्य हैं..

ॐस्वस्ति||पु ह शास्त्री.उमरेठ|| शेष पुनः

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