Thursday, 15 February 2018

अभिवादन का सही तरीका

षोडश संस्काराः (प्रणाम निवेदन) खंड१०७~ प्रणाम निवेदन संस्कार भारतीय सनातन शिष्टाचारका महत्त्वपूर्ण अङ्ग हैं | सामान्यरूपसे अभिवादन दो रूपों में व्यक्त होता हैं | छोटा अपनेसे बड़ेको प्रणाम करता हैं और समान आयुवाले व्यक्ति एक-दूसरेको नमस्कार करतें हैं | छोटे और बडे़का निर्णय भारतीय संस्कृतिमें त्यागके अनुसार होता हैं | जो जितना त्यागी हैं,वह उतना ही महान् हैं | शुकदेवजी त्यागके कारण उनके पिता व्यासजीने ही उन्हें अभ्युत्थान दिया और प्रणाम किया | त्यागके अनन्तर विद्या और उसके पश्चात् वर्णका विचार किया जाता हैं | अवस्था का विचार तो प्रायः अपनें ही वर्णमें होता हैं |##अभिवादन शीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः | चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम् ||मनुः२/१२१||## अर्थात् जो वृद्धजनों,गुरुजनों,तथा माता-पिताको नित्य प्रणाम करता हैं और उनकी सेवा करता हैं,उसके आयु,विद्या,यश और बलकी वृद्धि होती हैं | "मातापितरमुत्थाय पूर्वमेवाभिवादयेत् | आचार्यमथवाप्यन्यं तथायुर्विन्दते महत् ||१०४/४३-४४महाभा० || महाभारतमें भी बताया गया हैं कि अभिवादनसे दीर्घ अयुकी प्राप्ति होती हैं || अपनेसे बड़े आनेपर उन्हें देखतें ही खड़े हो जाना चाहिये | यदि विशेष स्थिति न हो तो उनके समीप आनेकी प्रतिक्षा नहीं करनी चाहिये | यह सर्वसामान्य हैं कि मनुष्य शरीरमें एक प्रकारकी विद्युत-शक्ति हैं | दुर्बलको प्रबल विद्युत् अपनी और खींचती हैं | शास्त्रानुसार किसी अपनेसे बड़ेके आनेपर प्राण ऊपर उठतें हैं | उस समय खड़े हो जाने से उनमें विकृति नहीं आती | गुरुजनों को देखतें ही अविलम्ब खड़े हो जाना चाहिये | अभिवादनकी श्रेष्ठतम पद्धति साष्टाङ्ग प्रणाम हैं |" उरसा शिरसा दृष्ट्या मनसा वचसा तथा |  पद्भ्यां कराभ्यां  जानुभ्यां प्रणामोऽष्टांग उच्यते || पेटके बल भूमिपर दोनों हाथ आगे फैलाकर लेट जाना साष्टाङ्ग प्रणाम हैं; इसमें मस्तक,भ्रूमध्य, नासिका, वक्ष, ऊरु, घुटने,करतल तथा पैरोंकी अँगुलियोँका ऊपरी भाग- ये आठ अङ्ग भूमिसे स्पर्श करतें हो,इसके बाद दोनों हाथोसे सम्मान्य पुरुषका चरण-स्पर्श करके घुटनोंके बल बैठकर उसके चरणोंसे अपना भालका स्पर्श कराना और उसके पादाङ्गुष्ठो का हाथोंसे स्पर्श करके अपनें नेत्रोंसे लगा लेना- यह साष्टाङ्ग प्रणामकी पूर्ण विधि कही गयी हैं | उपसंग्रहण चरणस्पर्श-#व्यत्यस्तपाणिना कार्यमुपसंग्रहणं गुरोः| सव्येन सव्यःस्पृष्टव्यो दक्षिणेन च दक्षिणः||मनुः२/७२|| गुरुके चरणस्पर्श उलटे हाथसे अर्थात् छते बायें हाथसे बायेँ पैर तथा छते दायें हाथसे दायें हाथका स्पर्श करना, यह उपसंग्रहण   चरण स्पर्श हैं| #लौकिकं वैदिकं वापि तथाऽध्यात्मिकमेव च | आददीत यतो ज्ञानं तं पूर्वमभिवादयेत् ||मनुः२/११७||# जिसके पास लौकिक,वैदिक,और आध्यात्मिक ज्ञान स्वयं लेता हो उसको; शिष्य प्रथम प्रणाम करैं |# जन्मप्रभृति यत्किंचिच्चेतसा धर्ममाचरेत् | तत्सर्वं विफलं ज्ञेयमेक हस्ताभिवादनात् ||# जन्मसे यथोचित्त कोईभी धर्माचरण किया हो वह सब एकहाथसे वंद. करनेपर निष्फल हो जाता हैं|#शय्यासने ऽध्याचरिते श्रेयसा न समाविश | शय्यासनस्थैश्चैवैनं प्रत्युत्थायाभिवादयेत् ||मनुः२/११९||# विद्याआदिमें अपनेसे अधिक जाननेवाला पुरुष या गुरु शय्या या आसनपर हो,तो उस आसनपर न बैठे; तथा ऐसे वंदनीय यदि आजायें तब हम शय्या या आसनपर बैठे हो तो वहाँ से उठकर उनको वंदन करने चाहिये | वंदनविधि-# अभिवादात्परं विप्रो ज्यायांसमभिवादयन् | असौ नामाहमस्मीति स्वं नाम परिकीर्तयेत् ||मनुः२/१२२||# बडेको वंदन करतें समय ब्राह्मण को अमुकनामका मैं आपको वंदन करता हूं ऐसे नाम बोलें( अमुक गोत्रोत्पनः अमुकशर्माहं त्वामभिवादयामि भोः )|| मनुः१/१२४||#आयुष्मान्भव सौम्येति वाच्यो विप्रोऽभिवादने | अकारश्चास्य नाम्नोऽन्ते वाच्यः पूर्वाक्षरः प्लुतः|मनुः२/१२५|# ब्राह्मण वंदन करैं तब वह वंदन स्विकार करनेवालें उनके प्रति "आयुष्मान् भव सौम्य | हे सौम्य! तुम अधिक वर्ष जीओं" ऐसा कहैं और अपने उच्चारणिय वाक्यमें नमस्कार करनेवालें के नामके अंतमें रहे हुए अकारादि स्वरको अथवा स्वरके पूर्वाक्षरको "प्लुत" उच्चारण करना हैं- जैसे" आयुष्मान् भव सौम्य अमुक! अथवा आयुष्मान् भव सौम्य अमुक ३शर्मन् ! | # नामधेयस्य ये केचिदभिवादनं जानते | तान्प्राज्ञोऽहमिति ब्रूयात्स्त्रियः सर्वास्तथैव च ||मनुः२/१२३||# जो भी वंदनीय! नामोच्चार पूर्वक नमस्कारको न समज़ सकता हो, उनके सामने बुद्धिमान्! "वंदन करता हूं" इतना ही कहैं ऐसा स्त्रियाँ भी कहैं|# यो न वेत्त्यभिवादस्य विप्रः प्रत्यभिवादनम्| नाभिवाद्य स विदुषा यथा शूद्रस्तथैव सः||#मनुः२/१२६||# जो ब्राह्मण नमनके बदलेमें सामने पद्धतिसर बोलनेका वाक्य बोलना  न जानता हो, उनको विद्वान! नमन न करैं; वह शूद्र समान हैं अर्थात् सामान्य मैं आपको वंदन करता हूं ऐसा सीर्फ कहना हैं| #मातुलांश्च पितृव्यांश्च श्वसुरानृत्विजो गुरुन् | असावहमिति ब्रूयात्प्रत्युत्थाय यवीयसः||२/१३०||#मामा,चाचा,ससुर, ऋत्विज और गुरुका मतलब यहाँ ज्ञानवृद्ध या तपोवृद्ध हैं, यह सब अपनेसे छोटें हो और इनमेंसे कोई आजायें तो उनके समक्ष खड़े होकर " मैं हूँ" ऐसा कहैं वंदन न करैं |# मातृष्वसा मातुलानी श्वश्रूरथ पितृस्वसा | संपूज्या गुरुपत्नीवत्समास्ता गुरुभार्यया |मनुः२/१३१||# मौसी,मामी,सास,और बुआ यह सब गुरुपत्नी जैसे पूज्य हैं; इसलिये गुरुपत्नीके समान उनके सामने खडे होकर आदरसत्कार करना चाहिये |

षोडशसंस्काराः (प्रणाम निवेदन) खंड १०८~" देवता प्रतिमां दृष्ट्वा यतिं दृष्ट्वा त्रिदण्डिनम् | नमस्कारं न कुर्वीत प्रायश्चित्ती भवेन्नरः ||व्याघ्रपादसस्मृतिः३६६|| देवविग्रह,आचार्यको,साधुको औल अन्य पूज्य गुरुजनोंको अवश्य प्रणाम करना चाहिये | धर्मशास्त्रमें बताया गया हैं कि जो व्यक्ति देवालय या देवप्रतिमाको,संन्यासीको,त्रिदण्डीस्वामीको देखकर उन्हें प्रणाम नहीं करता हैं,वह प्रायश्चित्त का भागी होता हैं | यदि अपना शरीर शुद्ध न हो,स्वयं स्नान न किये हुए हो तो प्रणाम करतें समय गुरुजनों आदिका स्पर्श नहीं करना चाहिये | स्नान करतें समय,शौच करतें समय,दन्तधावनके समय, शव ले जाते समय प्रणाम करनेंकी आवश्यकता नहीं | जिसको प्रणाम करना हैं वह भी इन स्थितियोंमें हो तो भी प्रणाम न करैं | श्मशानमें,कथास्थलमें,देवविग्रहके सन्मुख केवल मानसिक प्रणाम ही करना चाहिये | पतिके अतिरिक्त दूसरे सभी पुरुषोंको बिना स्पर्श किये ही दूरसे नमस्कार करना चाहिये | यह वैज्ञानिक सत्य हैं कि हमारे हाथों-पैरौंकी अँगुलियोंसे निरन्तर विद्युत् किरणें निकलती रहती हैं | मस्तकके भाल प्रदेश और हाथों की अँगुलियोंको इस विद्युत्- प्रभावको ग्रहण करने की शक्ति प्राप्त हैं | अपनेसे श्रेष्ठके चरणोंपर मस्तक तथा हाथ रखकर हम उनका प्रभाव ग्रहण करतें हैं | प्राचीन समयमें  गुरुजनोंको प्रणाम करतें समय अपना गोत्र,पिताका नाम तथा अपना नाम लिया करतें थे- जैसे कि वसिष्ठगोत्रोत्पन्नः अमुकात्मजः अमुकोऽहम् | त्वां अभिवादयामि भोः | हमारी भारतीय संस्कृति में प्रणाम,अभिवादन या नमस्कार करनेकी पद्धति शिष्टाचारके अनुकूल तो हैं ही,साथ साथ वैज्ञानिक भी हैं | " प्रत्युद्गमपश्रयणाभिवादनं विधियते साधु मिथः सुमध्यमे | प्राज्ञैः परस्मै पुरुषाय चेतसा गुहाशयायैव न देहमानिने ||श्रीमद्भागवत ४/३/२२|| में भगवान् शंकरने श्री सतीजीको इस प्रकार बतलाया हैं कि" सज्जनलोग परस्पर जो अभ्युत्थान,विनम्रता एवं प्रणाम करकें हैं,वह चित्तमें स्थित ज्ञानस्वरूप परमपुरुष के लिये ही करतें हैं,शरीर और शरीरमें अभिमान करनेवाले अहंकारको नहीं करतें | जिसे प्रणाम किया जाता हैं.उसे समझना चाहिये कि प्रणाम उसमें स्थित सर्वान्तर्यामी के लिये किया गया हैं | यदि कोई किसी भगवन्नामस्मरणसे अभिवादन करता हैं तो हमें भी उसी नामसे उत्तर देना चाहिये | जय श्रीराम जी करनेवालेको " जय श्रीरामजी" कहकर " जय श्रीकृष्ण" कहनेवालेको " जय श्रीकृष्ण" कहकर उत्तर देना शिष्ट ढंग हैं |

षोडशसंस्काराः(प्रणाम निवेदन) खंड १०७~ #भातृभार्योपसंग्राह्या सवर्णाहन्यहन्यपि | विप्रोष्य तूपसंग्राह्या ज्ञातिसंबन्धियोषितः||२/१३२मनु||  बडेभाईकी पत्नी स्ववर्णकी हो,तब प्रतिदिन उनको नमन करैं | परंतु सगेसंबन्धीकी स्त्रीयोंको तो परदेश(२००कि.मी से दूर)से आनेपर ही नमन करैं प्रतिदिन नहीं | # पितुर्भगिन्यां मातुश्च ज्यायस्यां च स्वसर्यपि | मातृवद् वृत्तिमातिष्ठेन्माता ताभ्यो गरीयसी||२/१३३मनुः|| बुआ,मासी,और बडी बहन को माताके प्रति  समान आदरभाव रखें परंतु माता इन सबसे अधिक हैं | #दशाद्वाख्यं पौरसख्यं पञ्चाद्वाख्यं कलाभृताम् | त्र्यब्दपूर्वं श्रोत्रियाणां स्वल्पेनापि स्वयोनिषु ||मनुः२/१३४|| एक ही नगरमें रहनेवाला उम्र से दशवर्ष बड़ा हो,कलाकारीगीरीवाला पाँच वर्षसे बड़ा हो, वेद पढानेवाला तीन वर्षसे बड़ा हो तथा सगेसंबन्धी थोडासा भी बडा़ हो, तो उनके साथ मैत्री का व्यवहार रख सकतें हो,परंतु इससे बड़े वय वाले  को "वडील" जैसा व्यवहार रखें | फिर भी मनुजीने मित्रभावको वेदगुरुमें से हट़ाकर कहा हैं- #य आवृणोत्य वितथं ब्रह्मणा श्रवणावुभौ | स माता स पिता ज्ञेयस्तं न द्रुह्येत्कदाचन ||मनुः२/१४४|| जो ब्राह्मण, दोनों कानों को सत्यरूप ऐसे वेदसे भरदेता (पढाता)हैं, उनको माता-पितारूप से जानें उनका कभी भी द्रोह नहीं करना चाहिये |# उत्पादकब्रह्मदात्रोर्गरीयान्ब्रह्मदः पिता | ब्रह्मजन्म हि विप्रस्य प्रेत्य चेह च शाश्वतम् ||मनुः२/१४६|| जन्म देनेवाला पिता और वेद पढानेवाला पिता, इन दोनों पिताओं में से "वेदपढाने वाला पिता" विशेष मान्य हैं| क्योंकी उपनयन संस्कारसे द्विज जातियों का जो(दूसरा)जन्म होता हैं वह इसलोक और परलोकमें अविनाशी हैं,और ब्रह्मप्राप्तिरूप फल देनेवाला हैं | # ब्राह्मणं दशवर्षं तु शतवर्षं तु भूमिपम् | पितापुत्रौ विजानीयाद् ब्राह्मणस्तु तयोः पिता||मनुः३/१३५|| ब्राह्मण दश वर्षका हो और राजा(क्षत्रिय) सो वर्षका हो तो भी उनको पितापुत्र जानें; इन दोनौंमें ब्राह्मण ही पितारूप हैं | क्यों सन्मान देना चाहिये ? -"# वित्तं बन्धुर्वयः कर्म विद्या भवति पञ्चमी | एतानि मान्यस्थानानि गरीयो यद्यदुत्तरम् ||मनुः२/१३६|| १धन २ बंधु ३ उम्र ४ अग्निहोत्रादिक सत्कर्म ५ सद्विद्या, यह मान देनेंके स्थान हैं; इसमें पीछेवाला पीछेवालें से पहलेसे अधिक मान्य हैं (अर्थात् १ सद्विद्या २ सत्कर्म ३ उम्र ४ बंधु ५ धन यह उत्तरोत्तर क्रमसे पीछलेसे अधिक मान्य हैं)|
#परपत्नी तु  या स्त्री स्यादसंबन्धा च योनितः | ब्रूयाद्भवतीत्येवं सुभगे भगिनीति च ||मनुः२/१२९|| जो स्त्री परपत्नी हो तथा जन्मसे सगी बहन आदि न हो,उनको "भवति" बहन " अथवा सुभगे  ऐसा कहैं | #चक्रिणो दशमीस्थस्य रोगिणो भारिणः स्त्रियाः | स्नातकस्य च राज्ञश्च पन्था देयो वरस्य च || मनुः२/१३८ || पहीये वालें वाहनमें बैठे हुए,न्यानवें वर्षकी उम्रवालें, रोगीको,भारवाहकको,स्त्रीयोंको,वेद वेदाङ्गके स्नातकको, राजा और वरराजा को बाजुपर खीसककर रास्ता देना चाहिये |# तेषां तु समवेतानां मान्यौ स्नातक पार्थिवौ | राजस्नातकयोश्चैव स्नातको नृपमानभाक् ||२/१३९मनुः|| कहें हुए उपरके श्लोक अनुसार यदि इन सब एक ही साथ आ जायें तो स्नातक तथा राजाको सन्मानयोग्य गिनैं | राजा और स्नातक इन दोनौंमें स्नातकको राजासे अधिक सन्मान योग्य जानें |# ब्राह्मणस्य जन्मनः कर्ता स्वधर्मस्य च शासिता | बालोऽपि विप्रो वृद्धस्य पिता भवति धर्मदः||मनुः२/१५०|| जन्मदेनेवाला और स्वधर्मका उपदेश देनेवालें ब्राह्मण बालक भी हो तोभी धर्मकी दृष्टिसे वह ब्राह्मण वडि़लका पिता हैं | अज्ञो भवति वै बालः पिता भवति मन्त्रदः| अज्ञं हि बालमित्याहुः पितेत्येव तु मन्त्रदम् ||मनुः२/१५३|| अज्ञानी बालक ही होता हैं और वेदमंत्र देनेवाला पिता ही माना जायेंगा| पंडितों अज्ञानीको ही बालक कहतें हैं और वेदमंत्र देनेवालेंको पिता ही कहतें हैं|#न हायनैर्न पलितैर्न वित्तेन न बन्धुभिः | ऋषयश्चक्रिरे धर्मं योऽनूचानः स नो महान् ||मनुः२/१५४|| उम्रमें वयोवृद्ध होनेसे,सफेदबाल सिरपर आ जाने से,धनसे और सगेसंबन्धीओंसे व्यक्तिकी महानता नहीं हैं परंतु ऋषियोंने धर्म कहा हैं कि वेदवेदांग पढाहुअा ही हमसे बड़ा हैं |
घुटनोंके बलपर बैठकर मस्तकको चरणोंसे स्पर्श कराना साष्टाङ्ग नमस्कारका अर्धरूप अर्थात् पञ्चाङ्ग नमस्कार है,जो स्त्रीयोंके लिए मान्य हैं | दोनों हाथ जोड़कर मस्तक झुका देना प्रणामका सांकेतिक रूप हैं,जो दूरखडे़ हुए बड़ेके समक्ष नहीं जा सकता ऐसी अवस्थामें करना हैं | महर्षि मार्कण्डेय के नामसे कौन परिचित नहीं हैं | जब वें ५ वर्षके थे,तब उनके पिता मृकुण्डुको ज्ञात हुआ कि इनकी आयु तो केवल छः मास ही शेष हैं,पिता पहले तो चिन्तित हुए,किंतु फिर उन्होंने झटसे उनका यज्ञोपवीत कर डाला और यही उपदेश दिया कि वत्स! तुम जिस कीसी द्विजोत्तम को देखना,उसे विनयपूर्वक प्रणाम करना-" यं कञ्चिद् वीक्षसे पुत्र भ्रममाणं द्विजोतमम् | तस्यावश्यं त्वया कार्यं विनयादभिवादनम् ||स्कंन्दपु-नागर०२२/१७||
फिर क्या था बालक मार्कण्डेय आज्ञाकारी तो थे ही,उन्होंनें पिताद्वारा प्रदत्त अभिवादनव्रतको अपना लिया,उनका अभिवादन संस्कार दृढ हो गया | ऐसे ही एक दिन जब सप्तर्षि वहाँसे गुज़र रहैं थे तो बालक मार्कण्डेयने नित़्यकी भाँति उन्हें विनयसे प्रणाम किया और "दीर्घायुर्भव,दीर्घायुर्भव" का आशीर्वाद उन्हें प्राप्त हो गया और सचमुच बालक मार्कण्डेय दीर्घायु हो गये तथा कल्प-कल्पान्तकी आयु उन्हें प्राप्त हो गयीं| वे चिरञ्जीवी हो गये | तात्पर्य यह हैं कि अगर जीवनमें प्रणाम निवेदनका संस्कार प्रतिष्ठित हो गया तो समझना चाहिये कि अन्य कर्त्तव्य-कर्म भी स्वयं ही सध गये|

ॐस्वस्ति| पु ह शास्त्री उमरेठ|                  शेष पुनः

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