Wednesday, 14 February 2018

धर्मः_खंड_५_वैदिक_राज्यशासन

#श्रृति_स्मृति_पुराणोक्त_धर्म-
हिंदु सदासे अपना धर्म श्रृति-स्मृति-पुराणोक्त मानतें आयें है और अपनी समाज-व्यवस्था तथा शासनसंस्था भी उसी प्रकार श्रृति-स्मृति-पुराणोक्त समझतें है. इसलिये हिंदुओं की प्राचीन राज्यशासन-व्यवस्था का अर्थ श्रृति के द्वारा प्रतिपादित राज्यशासन-व्यवस्था ही है.श्रृति का अर्थ वेद और वेद में संहिता, ब्राह्मण,आरण्यक तथा उपनिषद् का समावेश होता है.ऐतरेय ब्राह्मण ऋग्वेद का ब्राह्मण है और ऐतरेय महीदास की रचना से वह प्रसिद्धि में आया है.इस में वैदिक-धर्मियों की शासनविषयक एक घोषणा है,जो यहाँ देखने योग्य है,----
#ऋषियों_की_घोषणा-

#स्वस्ति_साम्राज्यं_भौज्यं_स्वाराज्यं_वैराज्यं_पारमेष्ठ्यंराज्यं-#महाराज्यं_आधिपत्यमयं_समन्तपर्यायी_स्यात्_सार्वभौमः-
#सार्वायुषः_आन्ताद्_आ_परार्धात्_पृथिव्यै_समुद्रपर्यन्ताया-
#एकराड्_इति || ऐ-ब्राह्मण||

इसमें ऋषियों की तपस्या से उस समय जितने राज्य-शासन प्रचलित हुए थे,उनकी गणना है.साम्राज्य,भौज्य,स्वाराज्य,वैराज्य,पारमेष्ठ्य-राज्य, महाराज्य,आधिपत्यमय,समन्तपर्यायी- इन आठ प्रकार के राज्यों का उल्लेख इस वचन में है.किस प्रकार का राज्य भारतवर्ष के किस भाग में अथवा भारतवर्ष के बाहर भी किस दिशा में था,इसका स्पष्ट उल्लेख ब्राह्मण ग्रन्थोमें  है अर्थात् यह एक इतिहास की घटना है,केवल कवि कल्पना नहीं है.
इस वचन में जिन आठ राज्यों का उल्लेख है,उनका स्वरूप आगे देखेंगे; परंतु इस वचन में जो ऋषियों की घोषणा है,वह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है.अतएव सबसे पहले उस घोषणापर विचार करना आवश्यक है.“वह घोषणा यह  है----->
#पृथिव्यै_समुद्रपर्यन्ताया_एकराट्”-
‘समुद्रपर्यन्त जितनी सब पृथ्वी है,उस सम्पूर्ण भूभागका एक ही राजा हो.’ सम्पूर्ण पृथ्वी एक ही वैदिक शासन से शासित हो.सम्पूर्ण पृथ्वीपर एक ही शिष्ट राज्य हो और सब पृथ्वीपर एक ही शिष्ट- परिवार---- #वसुधा_एव_कुटुम्बकम्-- हो.‘ #कृण्वन्तो_विश्वं_आर्यम्’ इस ऋग्वेद के वचन का यही स्पष्ट अर्थ है.
यह था ऋषियों का ध्येय.ऋषि इस महान् ध्येय को सत्य-सत्य सृष्टि में उतरा नहीं है; इतना ही नहीं,प्रत्युत हिंदुओं का- भारतवर्षियों का संकोच ही होता चला आया है.
#हिंदुओं_का_संकोच- संक्षेप से ही देखिये… कैलास पर्वत पौराणिक युग में हमारा था,वह आज नहीं रहा.गान्धार देश भारतवर्ष के साम्राज्यमें था,वह आज नहीं है,इस समय तो सिंधु नदी भी भारतराज्यमें नहीं रही! हम अपनी समाज-व्यवस्था की कितनी भी प्रशंसा करें,पर आर्यों के राज्य-क्षेत्र का संकोच हो रहा है--- इस में संदेह नहीं है.
ऋषियों की घोषणा तो सम्पूर्ण समुद्रवलयाङ्कित पृथ्वी का एक आदर्श सम्राट् बनाने की और सब भूमि वैदिक शासन से शासित करने की थी.वे स्वर्ग से हमारे संकोच को देखतें ही होंगे और अपने अन्तःकरण में तड़पते ही होंगे.क्या होना चाहिये था और क्या बन रहा है!
इस समय यूरोप में राष्ट्रसङ्घ बना है.पर उनका कार्य सर्वथा स्वार्थ से भरपूर है.पर वह ऋषियों का ध्येय कदापि नहीं है.तपस्वी ऋषियों का ध्येय तो संयममय ही हो सकता है.पूर्वोक्त वचन में जो इतने राज्य शासन कहे गये है,उनका ध्येय और स्वरूप क्या है----
#साम्राज्य- सब से प्रथम साम्राज्य है,पर यह आजकल के साम्राज्य जैसा राक्षसी साम्राज्य नहीं.उदाहरण स्वरूप में यहाँ दो ही साम्राज्यों का उल्लेख करतें है- भगवान् रामचन्द्रजी महाराज ने रावण के साम्राज्य का नाश किया,परंतु रावण के राज्य को अपने राज्य में नहीं मिलाया.रावण के राज्य को उसके भाई विभीषण के अधीन करके उसे आदर्श विधान देकर तथा इस आदर्श विधान के अनुसार अपना राज्यशासन चलाने की आज्ञा करके वे स्वयं वापस अ गये और उसे आदर्श विधान देना --- प्राचिन काल में इतना ही साम्राज्य का अर्थ था.भगवान् श्री रामचन्द्र ने लंका की लूट नहीं की थी.वे तो लंका नगर में गये भी नहीं.आदर्श विधान देकर विभीषण को पूर्ण स्वतन्त्र,परंतु अपना आज्ञाङंकित,आदर्श विधान से बाहर न जाने योग्य आज्ञाङ्कित करके रक्खा.किसी के स्वातन्त्र्य का अपहरण करने की नीति उस समय नहीं थी.
रावण का साम्राज्य उस समय बुरे-से-बुरा समझा जाता था.रावण ने राजाओं को परास्त किया था,लूटा भी था,उनकी स्त्रियों का हरण भी किया था; परंतु जो स्त्री रावण पर अनुरक्त होती थी,उसी को वह अपने अन्तःपुर में रखता था.इसलिये वाल्मीकि मुनिने लिखा है कि जो रावणपर अनुरक्त न हुई हो,ऐसी एक भी स्त्री उसके अन्तःपुर में सती सीतादेवी को छोड़कर दूसरी नहीं थी. रावण दृष्टिकोण में बुरे-से-बुरा था; पर उसने भी दूसरों के राज्यों का हरण नहीं किया और किसी स्त्रीपर बलात्कार भी नहीं किया.इस रावण में दूसरे राज्यों को लूटना आदि दोष अवश्य थे,जो ऋषियों को असह्य हुए थे.पर रावण ने अन्य स्त्रियोंपर बलात्कार नहीं किया था.
इसके पश्चात् हम देखतें हैं कि मुसल्मानों ने साम्राज्य स्थापित किये,अंग्रेजो ने किये,पोर्तुगीज आये.इन सबों ने राज्यों का हरण किया,स्त्रियोंपर अत्याचार कियें,लूट की,पराजितों को बुरी तरह से दबाकर रक्खा.ये सब बातें इतिहास में प्रसिद्ध है.इनको यहाँ दुहराने की आवश्यकता नहीं.
आजका “साम्राज्यवाद” और प्राचीन ऋषि-मुनियों की ‘साम्राज्य की कल्पना’ इस में आकाश-पाताल का अन्तर है.हम यहाँ जिस ‘साम्राज्य’ शब्द का प्रयोग कर रहैं है,वह ऋषियों का शब्द है,‘आधुनिक साम्राज्यवाद’ का नहीं.

ऋषियों के साम्राज्य में एक समर्थ राजा का दूसरे अनेक राजाओं को परास्त करना,उनको अपना माण्डलिक बनाना और उनको ‘शिष्ट-विधान’ देकर इस विधान के अनुसार अपना राज्य चलाने का आदेश देना---इतना ही होता था.ऋषियों का सुसंयत #साम्राज्य था.इस में पराजितों पर किसी तरह अत्याचार नहीं होतें थे.परंतु पराजितों की उन्नति करने के लिये उनको अधिक उत्तम शासनविधान दिया जाता था.
#भौज्य-- यह दूसरा राज्यशासन है.इसके दो अर्थ मुख्यतः होतें है.‘भु-ज’--पृथ्वी की नैसर्गिक मर्यादाओं से परिवेष्टित राज्य.जिस तरह भारतवर्ष-- यह उत्तर में हिमालय और दक्षिण में समुद्र से वेष्टित है.अतः ये भोज्य है.चूँकी निसर्ग की इस देश के लिये मर्यादा है,अतः यहाँ का राजा इतने ही भू-विभागपर राज्य करे और बाहर के देशोंपर आक्रमण न करे.इंग्लिस्तान समुद्र से मर्यादित है.इसलिये अंग्रेज उतने ही टापू में रहे.इस तरह कई ऋषियों ने भौज्य के नियम निर्धारित किये थे.भौज्य का दूसरा अर्थ जो दूसरे ऋषिमण्डल से निर्धारित हुआ था,वह था ‘भुज’ (पालनाभ्यव्यवहारयोः)- प्रजाका भोजनप्रबन्ध करना और उनको सुरक्षित रखकर उनपर राज्य करना.इस अर्थ में प्रजा को खाने के लिये पर्याप्त अन्न,ओढने के लिये पर्याप्त वस्त्र और रहनेके लिये सुखदायी घर देने तथा उनकी अन्तर्बाह्य सुरक्षितता सम्पन्न करनेका भार राज्यशासनपर आता है.राजा जितनी प्रजा का यह भार उठा सके,उतनी ही प्रजापर वह राज्य कर सकता है.इस अर्थ में भी कुछ स्वारस्य है.इसके पश्चात्-------
#स्वाराज्य- शासन का विधान है,विषय की सुबोधता के लिये इसका विचार अन्त में करैंगे.अतः अब “वैराज्य”का विचार करतें है.
#वैराज्य- (विगतराज्यकं वैराज्यं) जिसमें कोई राजा नहीं होता, सब जनता ही मिलकर अपना शासन चलाती है.इस वैदिक राज्य पद्धति के अवशेष अब भी भारतवर्ष में है.महाराष्ट्र में इसका नाम “दैव”होता है.वह जाति सम्पूर्णतया अपनी ही जातिपर अपना अधिकार चलाती है.कोई एक राजा,शासक,नियामक,अध्यक्ष अथवा प्रधान नहीं होता.सम्पूर्ण जाति एक स्थानपर जमा होती है और निर्णय करती है,उस निर्णय का पालन वे लोग करतें है.भारतवर्ष में ऐसी वन्य जातियाँ भी है,कि जो इस ‘वैराज्य’के अवशेष को आज भी बताती है.इस में दोष यह है कि इस प्रकार का शासन बहुत बड़े भू-भागपर नहीं हो सकता.छोटे-छोटे स्थानोंपर थोड़ी संख्या में चलनेवाला यह शासन है.अथर्ववेद में कहा है-- #विराड्_वा_इदमग्र_आसीत्_||८\१०\१|| ‘(अग्रे)प्रारम्भ में (वि-राज)राजा अथवा शासक नहीं था.’
इसी का नाम ‘वैराज्य’है.सब जनता,अपने प्रतिनिधियों द्वारा नही,अपितु स्वयं जो अपना प्रबन्ध करती है,वह ‘वैराज्य’ कहलाता है.यह"(अग्रे आसीत्)" मानव-समाज की प्रारम्भिक अवस्था में ही होना स्वाभाविक था और वैसा ही था. इसके पश्चात् #पारमेष्ठ्य-  राज्य का नाम है.इसका विचार भी लेख के अन्त में करेंगे.
#महाराज्य- अनेक छोटे-छोटे राज्य स्वकीय इच्छासे एक होतें है और एक विधान के अंदर अपने-आपको रखते है,वह ‘महाराज्य’ कहलाता है.इस में किसीपर जबर्दस्ती या आघात नहीं,परंतु इसमें सबका लाभ ही है.जगत् की स्पर्धा में छोटे-छोटे राज्य रह नहीं सकते,इसलिये उनका परिवर्तन महाराज्य में होना युक्त ही है; इसी तरह परिवर्तन होते-होते समुद्रपर्यन्त पृथ्वी का एक विशाल महाराज्य हो सकता है और यदि इस में स्वार्थ न बढा़,तो सबको अत्यन्त सुख भी मिल सकता है.
#आधिपत्यमय- पति और अधिपति -- ये राज्य के अधिकारियों के नाम है.इन की सम्मति से जो राज्य चलता है,वह आधिपत्यमय राज्यशासन है.अंग्रेजी में इस का नाम ‘ब्यूरोक्रसी’है.और स्वार्थ बढ़ जाने के कारण इसका भी आज बहुत ही घृणित अर्थ हो गया है.यथा समझें कि इसमें राज्याधिकारियों के अधीन ही शासन-तन्त्र रहता है.
#समन्तपर्यायी-(सामन्त-पर्यायी राज्य)जो राज्यशासन सामन्तों के आधीन रहता है,उसका यह नाम है.सामन्त माण्डलिक राजाओं का नाम है.उनके आधिन यह राज्य-शासन रहता है.एक शिष्टविधान के अनुसार जो सामन्त राज्य करैंगे,उनका शासन इतना निन्दनीय नहीं हो सकता.भरत और भगवान् रामचन्द्र के अधीन भी अनेक सामन्त थे.पर उनके होतें हुए भी वह #रामराज्य ही कहलाया और इस समयतक उसकी प्रशंसा गायी जा रही है.पर आज तो यह सामन्त-मण्डल का राज्य भी घृणित अर्थ से दूषित हो गया है.

#पारमेष्ठ्य_राज्य- परमेष्ठी नाम प्रजापति का है.परमेश्वर का यह नाम है.सबवर परमेश्वर का राज्यशासन है,यह जानकर इसके अनुकूल अपना राज्य-शासन चलाना है.सामन्त-राज्य हो अथवा अधिपति-मण्डल का राज्य हो,यदि वे पारमेष्ठ्य राज्य को सर्वोपरि मानकर अपना राज्य चलायेंगे तो वह निर्दोष हो सकता है.
वैदिक समय में ऐसा ही होता था.सब  एक वेदानुशासन के नीचे रहकर पारमेष्ठ्य राज्य को सर्वोपरि मानकर अपना कर्तव्य निष्काम भाव से करतें थे.इसलिये मानवी स्वार्थ के कारण जिन दोषों के उत्पन्न होने की सम्भावना है,वे दोष उस शासन में नहीं होतें थे.

#स्वाराज्य_शासन(पूर्वोक्त)-स्वराज्य शासन भी वैदिक समय का एक उत्तम राज्य-शासन है.आज भी इसी स्वराज्य का प्रयोग हम करतें है.परंतु यह “स्वाराज्य”है और आजकल का ‘स्वराज्य’ है.इस स्वरभेद को पाठक स्मरण रक्खें.इस स्वरभेद के कारण जो विधान-भेद और अनुशासन-भेद होता है,वह बड़ा भारी है.यहाँ उसका परिपूर्ण विवरण करने के लिये स्थान नहीं है,परंतु संक्षेप में ‘स्वाराज्य’में ‘स्व’की शुद्धिपर अधिक ध्यान दिया जाता है और ‘स्व-राज्य’में राज्य-शासन के अधिकार अपने अधीन रखने के लिये विशेष यत्न होता है.
#आत्मशुद्धि_और_अधिकारमद- स्वाराज्य में ‘स्व’की शुद्धता,पवित्रता और निर्दोषता रखने अथवा करने का यत्न होता है और ऐसे संयमी पुरुष ही राज्याधिकारपर रक्खें जातें है; इसलिये सम्पूर्ण राज्य-शासन परिशुद्ध रहता है.रिश्वतखोरी,दम्भ,असत्य,लोभ, अधिकारलिप्सा आदि उक्त “स्वा-राज्य”शासनतन्त्र में नहीं रहते.
परंतु जो ‘स्व-राज्य’है,उसमें ‘स्व’की शुद्धि की उपेक्षा और ‘राज्य’ तन्त्र की शक्ति से स्वकीयों के सुख का संवर्धन करनेका प्रयत्न होता है.इसलिये गुटबंदी उत्पन्न होती है.एक गुट दूसरे गुट को दबाने का प्रयत्न करता है और सर्वत्र यही देख रहे है.जनतन्त्र राज्य-शासन करने की घोषणाएँ तो होती रहती है,पर अंदर-अंदर से अपने गुटों को संवर्धित करना और दूसरों को दबाना ही सब देशों में चल रहा है.अपना भारत देश भी आज इसी मार्गपर चल रहा है; इसका आदर्श इस समय आर्य-आदर्श नहीं है,युरोप-अमेरिका के विधान को ही इसने अपना आदर्श मान रक्खा है.शिष्ट-विधान का उसे पता ही नहीं और जो बल आत्मशुद्धि पर देते थे और जिस प्रकार अधिकार-ग्रहण से दूर रहते थे,वह भाव अब दूर होता जा रहा है.इससे "स्वाराज्य" और 'स्वराज्य' का भाव ठीक तरह से पाठको को ध्यान में अा जायगा.‘स्वा-राज्य’शासन वह है,जिसमें परिशुद्ध पवित्र धर्मनिष्ठ निष्पक्ष निष्काम पुरुषोंके अधीन शासनाधिकार रहते है; और ‘स्वराज्य’ शासन वह है,जिसमें अपने लोगों के अधीन राज्य-शासन रहता है और वैयक्तिक परिशुद्धता पर कोई सच्चा बल नहीं दिया जाता.

स्वराज्य का यह भाव #स्वराज्यमेव_स्वाराज्यम् --- स्वराज्य ही स्वाराज्य है; परंतु इसमें आत्मशुद्धिपर विशेष लक्ष्य रहता है.
संक्षेप में स्वराज्यकी वैदिक कल्पना-- उन दिनों यम-नियमों का पालन- अहिंसा,सत्य,अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदि की शिक्षा प्रारम्भ से ही,विद्यार्थी-अवस्था में ही दी जाती थी.गुरुगृह में रहकर लोग यम-नियमसम्पन्न हो जातें थे और वे ही राज्यशासनपर आते थे.आज पाठशालाओं में,विद्यालयों और विश्वविद्यालयोंमें न तो यम-नियम की शिक्षा है,न आत्मसंयम की ओर ध्यान है और न निष्काम सेवा की ही कल्पना है.
सर्वत्रअसंयम,भोगलालसा,इन्द्रियचरितार्थता, अर्थ-पैशाचिकता और घोरतम स्वार्थपरता का प्रसार हो रहा है.इसलिये वैदिक समय में ‘स्व’ की पूर्णतापर बल था और आज ‘राज्य’की शक्तिपर बल है.इसी कारण प्राचीन समय में ‘रामराज्य' बन सका; इस समय उसमें से ‘राम’ तो चला गया और केवल ‘राज्य’ ही हाथ में आ गया है.
अस्तु! स्वाराज्य और स्वराज्य दोनों स्वराज्य ही है.दोनों जनराज्य ही है,पर एक में व्यक्ति-सुधारपर बल दिया जाता है और दूसरे में शासनशक्ति हाथ में रखनेपर बल दिया जाता है.
#जानराज्य- वैदिक समय में ‘जानराज्य’भी था इस में ‘जान’अर्थात् जनता के सुधारपर पल है.ये भी वैसे ही शब्द है और वैसा ही गम्भीर भाव बता रहे है.बोलने में जिस पद के जिस स्वरपर जोर दिया जाता है; वही पद उस वाक्य में मुख्य भाव बतानेवाला होता है.स्वरशास्त्र का यह नियम जैसा वैदिक समय में था,वैसा ही इस समय में भी विद्वत्संमानित है.इसलिये विधान में ‘स्व’पर जोर है अथवा ‘राज्य’ पर जोर है,यही देखना चाहिये.वैदिक समय में जो स्वराज्य था,उसमें 'स्व' पर जोर था,ओर आत्मशुद्धिका विचार प्रबल था.शिक्षा का प्रारम्भ ही आत्मशुद्धिसे होता था.यम-नियम पालन करनेवालों को ही सब विद्याएँ प्राप्त कराई जाती थी.शिष्टों की प्रणाली यही थी.असुरों की प्रणाली भोगप्रधान थी,जिसका विस्तार रावणराज्य के रूप में हमें मिलता है.

#स्वराज्य_के_अधिकारी- इस तरह से वैदिक स्वराज्य की यह परिशुद्ध कल्पना सदा वन्दनीय ही है.इसलिये वैदिक समय के ऋषिगण भी स्वराज्यशासन में यत्न करतें रहने की अभिलाषा रखते थे.अत्रि गोत्र के रातहव्य ऋषिका मन्त्र ही इस विषय में देखिये..->
#आ_यद्_वामीयचक्षसा_मित्र_वयं_च_सूरयः ||
#व्यचिष्टे_बहुपाय्ये_यतेमहि_स्वराज्ये ||ऋग्वेद ५/६६/६||

इस मन्त्र के ‘स्वराज्ये’ पद के स्वर भी ‘स्व-राज्ये’ ऐसे ही है.वेद में सर्वत्र स्वराज्य के ‘स्व’ पर ही बल दिया गया है.अर्थात् यहाँ आत्मशुद्धिपर ही विशेष बल दिया जाता है,ऐसा यह स्वराज्य है.इस मन्त्र का मुख्य वाक्य यह है--- #व्यचिष्टे_बहुपाय्ये_स्वराज्ये_आ_यतेमहि ||
विस्तृत और बहुतों द्वारा जिसका पालन होता है,ऐसे स्वराज्यशासन में हम जनता की भलाई के लिये यत्न करतें रहैंगे.
यह तो इस मन्त्रभाग का शब्दार्थ है.इसका विशेष अर्थ ध्यान में लाने के लिये इस वाक्य के प्रत्येक शब्दका विचार करनेकी आवश्यकता है.
#व्यचिष्ट- विस्तृत,व्यापक,सर्वतोगामी, संकुचित भाव जिसमें नहीं है,अर्थात् जो राज्य-शासन जनता के प्रत्येक मनुष्य को अर्थात् धर्मानुसार आचरण करनेवाले प्रत्येक व्यक्ति को सुख देनेका प्रयत्न करता है,अपना परिवार,अपनी जाति, अपने मतवाले आदिका पक्षपात जहाँ नहीं है, प्रत्येक वस्तु में समानतया ईश्वरभाव देखकर जो व्यहवार होता है,उस असंकुचित व्यापक भाव का नाम ‘व्यचिष्ट’ है.वैदिक स्वराज्य में पक्षान्धता,गुटबाजी आदि नहीं थी,यह भाव इससे स्पष्ट हो जाता है.

#बहु_पाय्य- बहुतोंद्वारा बहुसम्मतिसे जिसका पालन होता है,वह शासन यहाँ अभीष्ट है.एक की सम्मति से कितना भी अच्छा शासन हुआ,तो भी वह अनेक आत्मसंयमी पुरुषोंके शासन से अधिक अच्छा नहीं हो सकता; इसलिये बहुतों की सम्मति से पालन होनेवाला राज्य ही श्रेष्ठ होता है.स्वराज्य के शासन के लिये ही यह विशेषण वेद में लगाया है.
इन दो विशेषणों से वैदिक‘स्व’ राज्य का अर्थ विशेष रूप से स्वष्ट हो जाता है.जहाँ संकुचितता का भाव नहीं है और जहाँ बहुसम्मति से राज्यका संचालन होता है,वही स्वराज्य है.जिस में ऋषिलोग(आ यतेमहि) ‘हम अखिल मानवों के हितार्थ प्रयत्न करेंगे, ऐसा भाव मन में धारण करते थे.इस मन्त्रभाग में ‘हम प्रयत्न करैंगे’ यह कहा है.अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि यहाँ के ‘हम’कौन है? कौन राष्ट्रकल्याण का प्रयत्न कर सकतें है? कौन राष्ट्र कल्याण करने के सच्चे अधिकारी है? किनके प्रयत्न से सचमुच राष्ट्र का कल्याण हो सकता है? इस प्रश्न का उत्तर इसी मन्त्र के पूर्वार्ध में दिया है.

#राष्ट्र_कल्याण_कौन_कर_सकैंगे-

#हे_ईयचक्षसा_मित्र_सूरयः_(एते)_वयं_स्वराज्ये_आ_यतेमहि ||

हे व्यापक दृष्टिवालों! हे मित्रत्व का व्यवहार करनेवालों! आप दोनों और हम सब विद्वान् मिलकर उक्त स्वराज्य में सब के कल्याण के लिये प्रयत्न करैंगे.
इस मन्त्रभाग में स्वराज्यशासन चलाने के लिये कौन योग्य है,यह दिखलाया है.(१)व्यापक दृष्टिवालें अर्थात् जिनमें संकुचित दृष्टि नहीं है,अपने पक्ष से भिन्न मत वालों का-- अपनी जाति का ही हित करना और अपने पक्ष से भिन्न मतवालों को कुचलना- यह दुष्टभाव जिनमें नहीं है,जो सबके हित की व्यापक दृष्टि रखतें है,उनका नाम “ईयचक्षाः” है.इनको व्यापक दृष्टि वालें कहतें है.ये लोग स्वराज्यशासन चलानेके अधिकारी है.
(२)दूसरे‘मित्र’ वत् व्यवहार करनेवाले जनता के मित्र, जो सबका कल्याण करनें में दत्तचित्त रहतें है,जो कभी किसी से द्वेष नहीं करतें,वे मित्रवत् व्यवह्र करनेवालें स्वराज्यशासन चलानेके अधिकारी है.
(३)तीसरे ‚सूरय:’ अर्थात् ज्ञानी,सत्यज्ञान से प्रकाशित होनेवाले विद्वान्,यथार्थ ज्ञान धारण करनेवाले -- ये  भी स्वराज्यशासन चलानेके अधिकारी है.
इसका फलितार्थ यह हुआ---
#स्वराज्यके_अधिकारी- १ व्यापक दृष्टिवाले, २ मित्रवत् व्यवहार करनेवाले, ३ ज्ञानी.
#स्वराज्य_के_लिये_अयोग्य- १ संकुचित दृष्टिवाले, २ शत्रुता बढानेवालें, अज्ञानी.
______________________________________________

जो स्वराज्य के लिये योग्य है,वे ही स्वराज्य में शासक हो सकतें है.अर्थात् वैदिक स्वराज्य में व्यापक दृष्टिवाले,मित्रवत् व्यवहार करनेवाले और ज्ञानियोंको ही अधिकार के स्थान प्राप्त हो सकतें है; परंतु जो संकुचित दृष्टिवाले,शत्रुता करनेवाले और अज्ञानी है,उनको वैदिक स्वराज्य में मताधिकार भी नहीं होगा.
#सबको_मताधिकार- आज हमारे नेता कह रहैं है कि ‘सभी पूर्ण आयु (१९वर्ष और इनसे अधिक की आयु) वालों को इस स्वराज्य में मताधिकार होगा. अब आप देखियें कि इसमें यम-नियम की कोई आवश्यकता नहीं है,व्यापक दृष्टिकी कोई योग्यता नहीं, मित्रवत् व्यवहार करने की कोई आवश्यकता नहीं है.यहाँ तक कि विद्या की कोई आवश्यकता नहीं है.देखिये वैदिक स्वराज्य और आजका स्वराज्य कैसा है--
#वैदिक_स्वराज्यके_मताधिकारी- १ व्यापक दृष्टिवाले, २ मित्रवत् व्यवहार करनेवाले,३ ज्ञानी,विद्वान्, ४ आत्मसंयमी.
#आजके_स्वराज्यके_मताधिकारी- १ केवल १९ वर्ष और इनसे अधिक आयुवाले, २ सज्जन और दुर्जन ३ विद्वान् और मूर्ख, ४ सबको मताधिकार.
वैदिक धर्म के स्वराज्य में ‘स्व’की उन्नतिपर ध्यान दिया जाता था; इसलिये यम-नियम-पालन,व्यापक-दृष्टि, मित्रदृष्टि और सत्यज्ञानवालों को ही मताधिकार दिया जाता था.आज के स्वराज्य में “राज्याधिकार” प्राप्त करना ही सबका लक्ष्य है,इसलिये केवल आयु की ही मर्यादा रक्खी गयी है.यह महत्त्वपूर्ण भेद है वैदिक स्वराज्य में और आज के स्वराज्य में. यह स्वर भेद से “स्वा-राज्य" अथवा “स्व-राज्य” लिखा जाता है.अतः "स्व" की शुद्धिपर बल देना चाहिये अथवा राज्य का शासनाधिकार ही केवल प्राप्त करना चाहिये.

वैदिक ऋषि जनता के सच्चे कल्याण का ही ध्येय अपने सामने रखतें थे. #भद्रमिच्छन्त_ऋषयः_स्वर्विदस्तपो_दीक्षामुपसेदुरग्रे ||
#ततो_राष्ट्रं_बलमोजश्च_जातं_तदस्मै_देवा_उपसं_नमन्तु|| अथर्व- १९/४१/१|| ‘सब जनता का कल्याण करने की इच्छा रखनेवाले आत्मज्ञानी ऋषियोंने प्रारम्भ में दीक्षा लेकर तप किया.इससे राष्ट्र,बल और ओज का निर्माण हुआ; अतएव सब विबुध इस राष्ट्र की भक्ति करें.’ ऋषियों की तपस्या से राष्ट्रभाव की उत्पत्ति हुई है,राष्ट्रभावना से राष्ट्रीयबल बढ़ता है और बड़ी शक्ति प्राप्त होती है. #ततो_राष्ट्रं_बलं_ओजः_च_जातम्-- यह क्रम वेद में ही निश्चित हो चुका है.राष्ट्रियता,बल, ओज - इन में एकके साथ दूसरे का घनिष्ठ सम्बन्ध है.यह सम्बन्ध अटूट है.जिनका राष्ट्र है,उनमें बल और ओज होंगे; जो शताब्दियों से परतन्त्र होंगे,उनमें राष्ट्रिय भावना नहीं होंगी,साङ्घिक बल भी नहीं होंगा और ओज भी नहीं रहैंगा.
ऋषियों की तपस्या से जिस राष्ट्रियता की उत्पत्ति हुई,वह राष्ट्रियता यम-नियम-पालन के बिना कदापि विकसित नहीं हो सकती.इसलिये ऋषियों द्वारा जो पूर्वोक्त अनेक राज्यशासन निर्माण हुए,उनकी शासन प्रणाली में यम-नियम-पालन करनेवालों के लिये ही स्थान है.इस में #टके_सेर_खाजा_और_टके_सेर_भाजी-- के अनुसार सज्जन-दुर्जन सब एक ही माप से मापें नहीं जा सकतें.उसमें इन्द्रियलोलुप,उच्छृङ्खल, द्वेष-दम्भ से युक्त, दुष्कृत्यरत लोगों को स्थान नहीं.
वैदिक स्वराज्यशासन का यही महत्त्व है और यही वैदिक स्वराज्य की विशेषता है---  #ब्रह्मचर्येण_तपसा_राजा_राष्ट्रं_वि_रक्षति ||अथर्व- ११/३/५|| ‘ब्रह्मचर्यरूप तप करके ही राजा और राष्ट्रपुरुष राज्यपालन व्यवहारके अधिकारी होतें है.ब्रह्मचर्य पालन में ‘यम-नियम’ आ गये है.यह वैदिक राज्यशासन का सूत्र है.ऋषियों के तप का यह फल है.जिस शासन प्रणाली से जनता का सच्चा सुख बढ़ सकता है,वह यही शासन है.
सम्पूर्ण तरुणों को अथवा प्रौढो़ को मताधिकार रहने से बहुसम्मति तो मूढो़ की ही सम्मति होगी.इस में किसी को सन्देह नहीं हो सकता.जनता में मूढ़ ही बहुसंख्यक है और सच्चे ज्ञानी अल्पसंख्यक है.इसलिये वेद ने जानराज्य में ज्ञानियों का ही अधिकार रक्खा हैं,सदाचारियों का ही अधिकार रक्खा है.लोक ज्ञानी बनें,सदाचारी बनें और स्वराज्यशासन में अपना कर्तव्य करने के अधिकारी हों.
इतने प्राचीन समय में जिन ऋषियों ने इतने आठ-दस राज्यशासनों के नामाभिधान रक्खें और उनका पृथक्-पृथक् निर्देश किया,उनको राज्यशासन-विषयक कल्पना नहीं थी,और जो सब-की-सब जनता को शासनाधिकार देतें है,उनको शासनतन्त्रका ज्ञानविशेष है--- यों कई यहाँ कहेंगे.पर इसका निर्णय अनुभव से ही हो सकेंगा.
वैदिक राज्यशासन ‘गुणी और धार्मिक सज्जनों का शासन’ है तथा इस की जो विशेषता है,वह पूर्वोक्त वर्णन से जान सकतें है.यह एक परिपूर्ण शासनव्यवस्था है,जिससे समस्त जनता का सच्चा कल्याण हो सकता है.

||जय श्री राम|| शेष पुनः

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