Tuesday, 2 January 2018

धूर्तै: प्रवर्त्तितं ह्येतत् ... श्लोक का अर्थ

धूर्तैः प्रवर्तितं ह्येतत्  ० ये जो श्लोक है , ये पूरा प्रसंग आप पढिये ठीक से । मैंने दो वर्ष पूर्व इस पर बहुत लम्बा लेख लेखा था । यहॉ भी वही रीति से कहा गया है जैसे हम उपर कह आये हैं । वेद में कहीं किसी ब्राह्मण ने कुछ नहीं घुसेड़ा है । वेद की शब्दार्थ में परिवर्तन नहीं हो सकता । वेद अपौरुषेय वाक्य हैं ।
ये जो आपने कहा कि पुराणों के  वैदिकी हिंसा  समर्थक वचन कलियुग हेतु नहीं हैं , सो भी अनुचित है , क्योंकि प्रथम तो आपके पास  आपके अपने इस  कथन  का कोई शास्त्रीय प्रमाण नहीं है  दूसरा ये कि  वैदिकी हिंसा  विधायक वचन तो  वस्तुतः विस्तृत रूप से वेद में हैं, ( एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे- श्रीमद्भगवद्गीता ४|३२) न कि पुराण में । पुराण तो उनमें से   अश्वमेध,  गोमेध  एवं पलपैतृक का ही कलियुग हेतु वर्जन बताता है न कि  समस्त यागादि का ।  -   यज्ञदानतपः कर्म न त्याज्यं कार्यमेवतत् । यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् ।। ( श्रीमद्भगवद्गीता १८|०५) इत्यादि स्मृतियॉ  स्वयं यज्ञकर्म को अत्याज्य  बताकर उनका कर्तव्यत्वेन प्रतिपादन करती हैं  ।  

ये जो आपने कहा है कि // कलियुग में कहीं कहीं विधान के अनुसार बलि देखने को मिलती है , उससे सांसारिक लाभ मिल सकता है/// ,- ये कथन आपके स्वयं के  पूर्व कथन के विपरीत है क्योंकि अभी आप हिंसाविधायक वचनों का  पौराणिक पद्धति से कलियुग में निषेध कह आये , निषिद्ध कर्म अधर्म होता है, तो इस अधर्म को  किस विधान के अनुसार आप करने की बात करते हैं ?  क्या वह अधर्मप्रधान क्रियमाण कर्मानुष्ठान  अभ्युदय ( सांसारिक उन्नति) रूप प्रारब्ध में परिणत हो सकता है ?  विचार कीजिये ।

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