Tuesday, 2 January 2018

पांचरात्र खण्डन

चतुर्षु वेदेषु परं श्रेयोऽलब्ध्वा शाण्डिल्य इदं शास्त्रमधिगतवानित्यादिवेदनिन्दादर्शनात्

महर्षि  वेदव्यास  द्वारा पाञ्चरात्र  मत  खण्डन -

उत्पत्त्यसम्भवात् ॥ 

न च कर्तुः करणम् ॥

विज्ञानादिभावे वा तदप्रतिषेधः ॥

विप्रतिषेधाच्च ॥

[ब्रह्मसूत्रम् २/२/४२-४५ ]

ये पांचरात्र मत ईश्वर को जगत् का केवल निमित्तकारण कहता है जबकि ईश्वर जगत् का अभिन्ननिमित्तोपादान कारण है ।

इसीलिए  श्री आद्य शंकराचार्य  लिखते हैं -

येषामप्रकृतिरधिष्ठाता केवलनिमित्तकारणमीश्वरोऽभिमतः, तेषां पक्षः प्रत्याख्यातः ।

वेदव्यास जी ने पांचरात्र के खंडन में पहला सूत्र लिखा - उत्पत्त्यसम्भवात्

पांचरात्रमत में वासुदेव ही एकमात्र ईश्वर तत्व है जो चार व्यूह के रूप में वप्रविभाजित होकर स्थित है |

ये पांचरात्र मत ईश्वर को जगत् का केवल निमित्तकारण कहता है जबकि ईश्वर जगत् का अभिन्ननिमित्तोपादान कारण है ।

इसीलिए  श्री आद्य शंकराचार्य  लिखते हैं -

येषामप्रकृतिरधिष्ठाता केवलनिमित्तकारणमीश्वरोऽभिमतः, तेषां पक्षः प्रत्याख्यातः ।

वेदव्यास जी ने पांचरात्र के खंडन में पहला सूत्र लिखा - उत्पत्त्यसम्भवात्

इसका अर्थ  है कि उत्पत्ति के असम्भव होने से (पांचरात्रमत अयुक्त है )

पांचरात्रमत में वासुदेव ही एकमात्र ईश्वर तत्व है जो चार व्यूह के रूप में वप्रविभाजित होकर स्थित है
वासुदेव
प्रद्युम्न संकर्षण
अनिरुद्ध

वासुदेव - परमात्मा
संकर्षण - जीव
प्रद्युम्न -मन
अनिरुद्ध - अहंकार

महाभारत १२/३३९/४०,४१  में कहा गया है
कि वासुदेव परमार्थतत्व है , उससे संकर्षण जीव उत्पन्न होता है , उससे संकर्षण मन, और उससे अनिरुद्ध अहंकार

किन्तु इसका खंडन करते हुए वेदव्यास दी ने सूत्र में कहा उत्पत्त्यासम्भवात्

इर्थात् संकर्षण नामके जीव को उत्पद्यमान मानने पर अनित्य मानना पडेगा

जीव ही नष्ट हो जायेगा तो परलोक  जाने वाला कोई न होने पर परलोक का भी अभाव हो जायेगा
और स्वर्ग , नर्क और अपवर्ग के अभाव नास्तिक्य का साम्राज्य हो जायेगा ।

इसलिये महर्षि वेदव्यास ने सूत्र में  कहाकि जीव की उत्पत्ति सर्वथा असम्भव है ।
इस सूत्र में ये कहा गया है कि आत्मा (जीव)  की उत्पत्ति कहीं वेद में प्रतिपादित नहीं  , अपितु श्रुतियों के बल पर उसकी नित्यता सिद्ध की गयी है  ।

गीता में भी कहा गया है -

अजो नित्यः शाश्वतोsयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ।।
अर्थात्  आत्मा अजन्मा और नित्य है ।

इसी प्रकार दूसरे सूत्र मट नच कर्तु: करणम् में कहा कि कर्ता से करण की उत्पत्ति नहीं होती !☝️

पांचरात्र सिद्धांत  है कि संकर्षण संज्ञक जीवरूप कर्ता  से प्रद्युम्न संज्ञक मन की उत्पत्ति होती है , जबकि यह असंगत है ।
इसी प्रकार  सूत्र से कहा गया विप्रतिषेधाच्च

अर्थात्  सभी को ईश्वररूप मान लेने पर चारों भिन्न भिन्न ईश्वर हो जायेंगे

सुन्दोपसुन्द न्याय से एक सृष्टि की कामना करेगा तो दूसरी प्रलय

फलतः कुछ भी सिद्ध  न होगा

सबका एक समान संकल्प माना जाये तो तब शेष तीन का संकल्प  व्यर्थ  हो जायेगा , क्योंकि काम तो एक के संकल्प से ही  हो गया 😊☝

भगवान् शंकराचार्य  ने सविस्तार खंडन किया है । मैंने तो बस दो एक ही बात कही हैं

अब एक तर्क -
यदि ऐसा है तो शास्त्र में प्रतिपादन ही क्यों है इसका ?

उत्तर - शास्त्र में तो सांख्यादि मतों का भी प्रतिपादन है । जिस प्रकार सांख्यादि का खंडन महर्षि  वेदव्यास  ने किया है , तद्वत् ही इसके सन्दर्भ में भी समझना चाहिए  ।

पांचरात्र मतानुयायी को वेदव्यास  मुनि का कृत  सांख्यादि का खंडन ते मान्य है पर पांचरात्र का नहीं , ये भी आश्चर्य  ही है । 🙂

हरेक दर्शन की सीमा है
वेदान्त दर्शन  सर्वोच्च प्रमाण है ।
अन्य दर्शन अरुन्धती तारा न्यायवत् हैं, सबका परम पर्यावसान वेदान्त दर्शन ही है । ☝️

अब एक चीज ध्यान दो
सांख्य के प्रणेता कपिल मुनि हैं ☝️
वेदान्त के  वेदव्यास
अतः सर्वज्ञ महामुनि कपिल के द्वारा प्रणीत सांख्यशास्त्र का बाध वेदान्त के द्वारा वैसे ही नहीं हो सकता जैसे
एक सिंह का बाध उसकी प्रकृतिभूत (समान बल वाले)  अन्य  सिंह के द्वारा  नहीं होता  ☝️

अतः श्री आद्य शंकराचार्य  ने बहुत सावधानी से  अपनी कुशाग्र बुद्धिमत्ता का परिचय देते हुए एक बहुत गहन बात कही है
////महाजनपरिगृहीतानि महान्ति सांख्यादितन्त्राणि सम्यग्दर्शनापदेशेन प्रवृत्तान्युपलभ्य भवेत्केषाञ्चिन्मन्दमतीनाम् — एतान्यपि सम्यग्दर्शनायोपादेयानि — इत्यपेक्षा////

अर्थात्  जो वीतराग महापुरुष होते हैं ,  उनकी शास्त्र चर्चा का पर्यवसान तत्त्व निर्णय में हुआ करता है , परपक्ष निरास के बिना असन्दिग्ध बोध नहीं हो सकता , इसलिये तत्त्व निर्णय के लिये वीतराग पुरुष के द्वारा भी   परपक्ष का निराकरण करना आवश्यक है । ☝️🌼🌼🌼🌼

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