Tuesday, 9 January 2018

मनुस्मृति_की_श्रेष्ठता


इदं शास्त्रं तु कृत्वासौ मामेव स्वयमादितः।
विधिवद्ग्राहयामास मरीच्यादींस्त्वहं मुनीन्।।
एतद्वो$यं भृगुः शास्त्रं श्रावयिष्यत्यशेषतः।
एतद्धि मत्तो$धिजगे सर्वमेषो$खिलं मुनिः।।
ततस्तथा स तेनोक्तो महर्षिर्मनुना भृगुः।
तानब्रवीदृषीन्सर्वान्प्रीतात्मा श्रूयतामिति।।मनुः१/५८-६०।।
प्रजापतिने सृष्टिके पहले इस धर्मशास्त्रको बनाकर मुझे(मनुको)उपदेश दिया.फिर मैने(स्वायंभुव मनुने)मरीचि आदि मुनियोंको बताया.यह समग्र "धर्मशास्त्र" हे द्विजकुलनंदन भृगुजी आप लोगोको सुनायेंगे,जो मुजसे संपूर्ण पढा़ है.उसके बाद ब्रह्माजीके पुत्र स्वायंभुवमनु की आज्ञा पाकर महर्षि भृगुने ऋषियो को कहा.

"स्मर्यते इति स्मृतिः।। जो वेदार्थानुकुल स्मरण की जाय वह स्मृति है..कुल ६० स्मृतियाँ है.
स्मरण के न्यूनाधिक भावसे ही स्मृतियोंके प्रामाण्य में न्यूनाधिक भाव माना गया हैं.
इसलिए देवाचार्य-बृहस्पतिने कहा हैं कि -"वेदार्थोपनिबन्धत्वात्प्राधान्यं हि मनोः स्मृतम्।
मन्वर्थविपरिता तु  या स्मृतिः सा न दृश्यते।।
वेदार्थके संकलन करनेसे मनुका प्राधान्य है और मनुस्मृति से विरुद्ध जो कोई स्मृति है वह प्रशंसनीय नहीं है.
पराशरने भी कहा हैं कि समस्तशास्त्रोंके जानकार मनुजी हैं-"मनुना चैवमेकेन सर्वशास्त्राणि जानता।।पाराशरस्मृ९/५१।।
ऋग्वेदमें- ऋग्वेदके प्रथम मण्डल के ८० वे सूक्तमें-"यामथर्वा मनुष्पिता दध्यङ् धियमत्नतः| तस्मिन् ब्रह्माणि पूर्वथेन्द्र उक्था समग्मतार्चन्ननु स्वराज्यम्||ऋग्वेद१/८०/१५|| यह प्रार्थना हैं कि हम मनुके मार्गसे  कहीं गिर न जाएँ ।।
ब्राह्मणग्रन्थोमें-" यद् वै किंच मनुरवदत् तद् भेषजम्|| तै०सं०२/२/१०२|| मनुर्वै यत् किंचावदत् तत् भैषाज्यायै||ता०ब्रा०२३/१६/१७|| तैतरीय संहिता एवं तांड्य महाब्राह्मण के अनुसार मनुने जो कुछ कहा हैं,यह सब औषध हैं|"मानव्यो हि प्रजाः" मनुसे पैदा होनेके कारण हम मानव कहलातें हैं|

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