अपने वेदों के सन्दर्भ में यह सत्य हरेक हिन्दू को अवश्य जानना चाहिये -
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वेद भगवान् अधिकारानुसार प्राणीमात्र के लिए कल्याणकारक हैं । वह अनादि , अनन्त और अपौरुषेय हैं । अतः पुरुषाश्रित (पुरुष में रहने वाले ) भ्रम , प्रमाद, करणापाटव , विप्रलिप्सा आदि पुरुषसाधारण दोषों से रहित हैं । कोई भी व्यक्ति यदि कोई ग्रन्थ लिखता है तो वह उसमें निहित सामग्री का ज्ञान प्रमाणान्तरों ( दूसरे प्रमाणों ) से करता है किन्तु वैदिक सामग्री का ज्ञान किसी भी प्रमाणातर से हो सकता नहीं ।
सन्ध्या, वन्दन , याग, होम आदि उपात्तदुरितक्षय ( अनायास होने वाले पापों के विनाश ) तथा स्वर्गादि के साधन है - इत्यादि बातें किसी भी पुरुष को किसी भी प्रकार से ज्ञान तक नहीं हो सकती ।
जब ज्ञात नहीं हो सकती तो कोई पुरुष इन बातों को लिख कैसे सकता है ? (अर्थात् वेदों की रचना किसी भी प्राणी ने नहीं की हैं ) अतः वेदों में पुरुषसम्बन्ध के गन्ध की भी आशंका की सम्भावना ही नहीं है ।
- श्री स्वामी निरञ्जनदेव तीर्थ जी महाराज ।
जगद्गुरु शंकराचार्य, पुरीपीठाधीश्वर
[ वेदार्थपारिजात , भाग -०१ उपोद्घात ]
।। जय श्री राम ।।
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