जिस ब्राह्मण,क्षत्रिय और वैश्य -- अनुपनीत के पिता, पितामह अनुपनीत(कालक्रम से जनेऊ-संस्कार रहित)हो, #तेषामिच्छतां_प्रायश्चितम् = ( तेषां = माणवकानाम् ) #इच्छतामित्यनेन_बलात्कारो_नेति_सूचयति ||व्रात्य प्रा०निर्णये || अर्थात् संस्कार की इच्छा रखनेवालें बटु, पिता और पितामह आदि का प्रायश्चित्त किया जाय | यहाँ "तेषां" शब्द से (बटु, बटु के पिता और पितामह आदि ) "इच्छतां" शब्द से बलात्कार किये बिना जानना चाहिये |
उन्हें बटु को (पिता पितामह को नहीं) "एकवर्ष पर्यन्त" उपनीत-द्विजों के घर से "मैं व्रात्य हूँ मुजे भिक्षा दो" कहकर भिक्षा माँगकर गुरु(आचार्य) की आज्ञा से भिक्षा का एक-समय (केवल दिन में) भोजन करना चाहिये, गुरु की अनन्य भाव से सेवा करनी चाहिये ( हाथ पैर दबाना, गुरु के सोने के बाद सोना, गुरु के शयन से उठने के पहले उठकर शौच,स्नान आदि से पवित्र होकर गुरु के लिये उपयोगी सन्ध्योपासना, अग्निकार्य , गुरु के गृह का सम्मार्जन, सफाई आदि जो गुरु धर्माश्रय द्वारा आज्ञा करे वह सभी कार्य करने चाहिये) और ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिये (यहाँ ब्रह्मचर्य व्रत का तात्पर्य गुरुगृह गुरु के समीप में रहकर ही पतित, व्रात्य, शूद्र,चांडाल आदि के स्पर्श होने से स्नान करना और स्वयंपाकी बनकर रहने से हैं) | बाद में वर्ष बितजाने के बाद उपनयन के योग्य उचित मुर्हूत में उपनयन करवाना चाहिये ( यहाँ यदि पिता स्वयं इच्छा से अपने उपनयन संस्कार प्रायश्चित्त पूर्वक न करवाना चाहता हो तो उपनेतृत्व आचार्य का ही रहैगा अर्थात् यजमानरूप से सपत्नीक-आचार्यस्वयं धर्मके #माता_पिता बनकर उपनयन देने के अधिकारी बनैंगे) और जातकर्मादि समस्त संस्कारों के साथ उपनयन के समय कामाचार कामावाद कामभक्षण(वर्णाश्रम विपरित आचार, अशिष्ट भाषण और गाजर,सलगम, प्याज,लहसुन,मशरुम मदिरा आदि ग्रहण) के दोष निवृत्ति हेतु तीन #कृच्छ्रव्रत, आचार्य को उपनेतृत्वाधिकार के लिये तीन #कृच्छ्रव्रत, तथा आचार्य को गायत्री के तथा व्रतादेश के उपदेशाधिकार हेतु #दशहजार गायत्री जप करना चाहिये ------> #कृच्छ्रत्रयं_चोपनेता_त्रीन्कृच्छ्रांश्च_बटुश्चरेत् #आचार्यो_दशसाहस्रं_गायत्रीं_प्रजपेत्तथा ||
बाद में जितने पुरुष अपने कुल में (पिता, पितामह, प्रपितामह आदि) का उपनयन न हुआ हो उतने वर्षतक (पिता के अनुपनीत होने में एकवर्ष, पितामह के उपनीत न होने में दो वर्ष आदि) प्रायश्चित्त के लिये वेदपाठीयों द्वारा ऋग्वेद के #यदन्ति_यच्च_दूरके ००|| इत्यादि सात पावमानीयमंत्रो, यजुर्वेद के जिसका (देवप्रतिष्ठाओं में अर्चाशुद्धि के विधान हेतु स्नपन के पवित्र मंत्र तथा ब्राह्मण-मंत्रोसे, #कया_नश्चित्र आदि सामवेद के पवित्र अभिषेक के मंत्रों से और ऋग्वेदीय हंसावती ऋचा #हंसः_शुचिषद् ०० | इत्यादि मंत्रो से स्नान करवाकर स्वशाखा-वेद का अध्यापन होगा, प्रतिदिन षट्कर्मो का अधिकार हैं | उपनीत द्विजों के साथ व्यवहार योग्य हैं..
#निन्दितम_व्रात्य=- जिसके #प्रपितामह आदि पूर्वजों के उपनयन हुआ हैं कि नहीं यह स्मरण न हो तो उस संस्कार्य बटुक को बारहवर्षतक (पहले कहानुसार) ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करने के बाद जातकर्मादि संस्कारों के साथ पूर्वोक्त प्रकार से (कामाचार आदि, उपनेतृत्वाधिकार तथा आचार्य स्वयं उपदेशाधिकार के) प्रायश्चित्त करने के बाद उपनयन-संस्कार कराएँ... बाद में ( पिता, पितामह, प्रपितामह आदि जितनी पैढ़ी उपनयन संस्कार से वंचित हो उतने वर्षतक पूर्वोक्त मंत्रो से स्नान करें अर्थात् सदाचारी-वेदपाठीयों के द्वारा मंत्रपूर्वक स्नान करायें.. इनके प्रपितामहादि पूर्वजों अनुपनीतों होने के कारण इन्हें गार्हस्थ्य-धर्म मात्र ( वैदिक समंत्र -- > स्नान, सन्ध्योपासना,नाममंत्रो वा पुराण मंत्रो से देवपूजा,ब्रह्मयज्ञ के अभाव में तीनगायत्री जप, क्रियामात्र वैदिकमंत्र रहित तर्पण,वैश्वदेव के अभाव में कच्चे सघृत-अन्न का दान आदि) अधिकार हैं परंतु वेदाध्ययन का अधिकार नहीं.. और वैदिक यज्ञ-यागादि में याजन का तथा पुत्र पुत्री आदि लेना-देना विवाह के सम्बन्ध (कालक्रम से उपनीत द्विजों के पुत्र-पुत्री के साथ) व्यवहार नहीं होगा यही शास्त्रीय व्यवहार हैं ----> अर्थात्
(१) यदि व्रात्य ने विवाह से पहले इस प्रकार प्रायश्चित्त पूर्वक उपनयन धारण किया हो तो व्रात्यप्रायश्चित्त से शुद्ध उपनीतों के पुत्री से विवाह करें | पुत्रादि का कालावधि में उपनयन और अध्यापन होगा | इनके पुत्र-पुत्री का विवाह भी व्रात्यप्रायश्चित्त से शुद्ध उपनीतों के पुत्री-पुत्र से विवाह-सम्बन्ध करें |
(२) व्रात्य यदि विवाह पश्चात् संतानोत्पत्ति के बाद व्रात्यप्रायश्चित्त पूर्वक उपनयन से संस्कृत हुआ हो तो उत्पन्न पुत्र का स्वकालातिक्रम-प्रायश्चित्त करवाँकर उक्तकालावधि में #उपनयन करके वेदाधिकार रहैगा | परंतु व्रात्यदोष के कारण गर्भाधान से उत्पन्न व्रात्या-पुत्री के साथ व्रात्य का विवाह होगा..
व्रात्यप्रायश्चित्त पूर्वक प्राप्त जनेऊ-संस्कार से उपनीतों को #व्रात्यों का अन्न भक्षण नहीं करना चाहिये..
जिस (कालक्रम से उपनीत द्विजों के पुत्रों ) का उपनयन के लिये जो अन्त्यकाल कहा हैं -- ब्राह्मण के १६, क्षत्रिय के २२, वैश्य के २४ वर्षों में उपनयन न हुआ हो तो अतिक्रान्तदोष की निवृत्ति के लिए #उक्त_पतितसावित्रिक
( https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=1723003361308211&id=1632217650386783 )
के व्रतादि करने के बाद में उपनयन होगा...
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