#अन्त्यजो_और_व्रात्यों(#अनुपवीतीओं)#को
#मन्दिर_प्रवेश_निषेध_क्यों-?
सबसे पहले हम यह सोचें कि हिंदू ही मूर्तिपूजा क्यों करतें हैं, जब कि अन्य धर्मवाले मूर्तिपूजक नहीं हैं | हिंदुओं के मूर्तिपूजा करने का कारण यही हैं कि शास्त्रों ने यह बतलाया हैं कि मूर्तिपूजा से वे भगवत्कृपा के अधिकारी हो सकतें हैं | मुसल्मान मूर्तिपूजा नहीं करतें; क्योंकि कुरानने बतलाया हैं कि ऐसा नहीं करना चाहिये | हमें अपने शास्त्रोंपर विश्वास हैं, कुरानपर नहीं; इसलिये हमलोग मूर्तिपूजा करते हैं |
यदि शास्त्रोंपर विश्वास न हो तो मूर्तिपूजा का कुछ अर्थ ही नहीं हैं | शास्त्रों के कोई वचन हमें यदि गलत मालूम होते हैं तो हमें यह मान लेना चाहिये कि हमने उन वचनों का वास्तविक अभिप्राय समझा ही नहीं | पर यदि हम यह समझ बैठें कि शास्त्रों के वचन ही गलत हैं और हम सही हैं तो यह कहना चाहिये कि शास्त्रोंपर हमें सच्चा विश्वास ही नहीं हैं |
जो शास्त्र मूर्ति की पूजा करने को कहतें हैं,वे यह भी बतलातें हैं कि यह पूजा कैसे करनी चाहिये | पूजा के जो नियम हैं, उनमें एक नियम यह भी हैं कि किस प्रकार के लोगों को मन्दिरमें प्रवेश न करने देना चाहिये | यदि हम यह सोचें कि कुछ जातियों के साथ द्वेष होनेसे उनके लिए ऐसे नियम बनें हैं, तब तो शास्त्रकारों के सम्बन्ध में हमारी कल्पना बहुत ही थोथी हैं और फिर मूर्तिपूजा भी हमारे लिये निरर्थक हैं |
वेद बतलातें हैं कि हमारा जन्म पूर्वजन्मों के कर्मों से निश्चित होता हैं--(#रमणीयचरणाः_रमणीयां_योनिमापद्येरन्_ब्राह्मणयोनि_वा #वैश्ययोनिं_वा | #कपूयचरणाः_कपूयां_योनिमापद्येरन्_श्वायोनिं_वा_सूकरयोनिं_वा #चाण्डालयोनिं_वा ||छान्दोग्य०५/१०/७||)| जो अच्छे कर्म करतें हैं, वे ब्राह्मण,क्षत्रियादि वर्णों में उत्पन्न होतें हैं और जो बुरे कर्म करतें हैं, वे चाण्डालादि योनियों को प्राप्त होतें हैं | कोई मनुष्य जब पाप करता हैं,तब उससे उसका शरीर अशुचि हो जाता हैं और यह अशुचिता दूसरे जन्ममें भी उसके साथ चलती हैं | इसलिये ऐसे पुरुष का मन्दिर में प्रवेश निषिद्ध हैं |
मन्दिर-प्रवेश ही ईश्वर की उपासना का एकमात्र साधन नहीं हैं | हमें ईश्वर की उपासना अपने मनमाने ढंग से नहीं, बल्कि शास्त्रोपदिष्ट मार्ग से ही करनी चाहिये | मन्दिरो में जिनका प्रवेश शास्त्रों ने निषिद्ध बतलाया, उनके लिये मन्दिर के शिखरदर्शन की विधि शास्त्र बतलातें हैं और इससे उन्हें वही फल प्राप्त होता हैं,जो अंदर मूर्तिकी पूजा-अर्चा करनेवालों को मिलता हैं |
#दर्शन-शास्त्रके न जानने से ही लोगों को ऐसी बातोंपर सन्देह हो सकता हैं | शरीर में पाँच कोश हैं, जिनसे आत्मा ढका रहता हैं- वे १अन्नमय, २ प्राणमय, ३ मनोमय, ४ विज्ञानमय और आनन्दमय कोष कहलातें हैं |
अन्न के सहारे जो घटता-बढ़ता हैं,उसे अन्नमय कोष कहतें हैं | अन्नमय कोष का जो संचालन करता हैं,उसे प्राणमय कोष कहतें हैं | प्राणमय कोष को जो चलाता हैं और जो मनके द्वारा व्यवस्थित रहता हैं,उसे मनोमय कोष कहतें हैं | मन उसका केंन्द्र हैं | मन को जो सद्विचार के द्वारा पथप्रदर्शन करके चलाता हैं, वह विज्ञानमय कोष कहलाता हैं | बुद्धितत्त्व के परे आत्माकी स्थिति शास्त्र ने मानी हैं - #यो_बुद्धेः_परतस्तु_सः||गीता३/४२|| और परमात्मासे जीवात्मा को अलग करनेवाला द्वैतभावोत्पादक पञ्चम आनन्दमय कोष कहलाता हैं | इन पाँचो कोषों को मलिन करने के स्वतन्त्र -स्वतन्त्र पाँच कारण हैं | जिन अपवित्र स्थूल पदार्थों के द्वारा अन्नमय कोष अपवित्र होता हैं,उनको मल कहतें हैं | प्राणमय कोषको मलिन करनेवाला विकार कहलाता हैं | मनोमय कोष में जो विषमता उत्पन्न करता हैं,उसे विक्षेप कहतें हैं | विज्ञानमय कोष में जो अपवित्रता उत्पन्न करता हैं,उसे आवरण कहतें हैं | आनन्दमय कोष में जो अपवित्रता उत्पन्न करता हैं,उसे अस्मिता कहतें हैं | अस्मिता आत्मस्वरूप को ढ़कती हैं तथा जितनी हि अस्मिताकी अभिवृद्धि होती हैं,उतना ही अज्ञान बढ़ता जाता हैं | इन पाँचो प्रकार के कोषों में (शरीरोंमें) पाँच प्रकार की मलिनता न बढ़ने पाये,इसी का नाम शुद्धाशुद्ध-विवेक तथा स्पर्शास्पर्श- विवेक हैं |
धोने से सचैल(वस्त्रसहित) स्नानादि करने से अन्नमय कोष की अपवित्रता दूर होती हैं | जब मृतदेह से प्राणमय कोष अन्य कोषों के साथ लोकान्तर में चला जाता हैं,तब स्वतः उसमें प्राणमय कोष का अभाव होनेसे शवस्पर्शकारीके प्राण खिंच(आकर्षित हो) जाते हैं| इसलिये शवस्पर्शी के लिये स्नान आदि करके प्राणमय कोषको पवित्र करने की विधि शास्त्रों में वर्णित हैं |
#देव_मन्दिरस्थ मूर्ति आदि में जो पीठ बनता हैं,वह प्राणमय कोष की क्रिया का ही परिणाम हैं | उसी पीठ में व्यापक दैवी शक्तिकी पूजा किया करती हैं | जहाँ चेतन शक्तिका विकास होता हैं,उसी को पीठ कहतें हैं | जिस पीठ में जैसी संस्कार-परम्परा रहती हैं,विरुद्धस्पर्श द्वारा उसको नष्ट करने से पीठाभिमानी देवता अप्रसन्न होता हैं | मनोमय कोष के मलिन होनेका उदाहरण सूर्य-चन्द्र ग्रहण अशौचादि समझना उचित हैं | सूर्य और चन्द्र की शक्तिका प्रभाव जो मनोमय कोषपर रहता हैं,उसमें ग्रहण से बाधा होती हैं; इसलिये उसमें सामयिक मलिनता आती हैं | स्नान,दान,जपादि द्वारा उस मलिनता को दूर किया जाता हैं | अशौचादि के द्वारा मनोमय कोष में जो अपवित्रता होती हैं,वह श्राद्ध अादि द्वारा दूर होती हैं | विज्ञानमय कोष की अपवित्रता कुसंगादि से होती हैं | इसको दूर करने से तथा सत्संगति करनेसे विज्ञानमय कोष पवित्र होता हैं | और अस्मिता जो जीवभावका मूल कारण हैं,उसकी वृद्धि होने से आनन्दमय कोष में अपवित्रता बढ़ती हैं | निष्काम-कर्म, ईश्वर तथा गुरुमें अहैतुकी भक्ति और ज्ञान के द्वारा आनन्दमय कोष की अपवित्रता दूर होती हैं |
ईश्वर तो सर्वत्र हैं | पर उसकी अभिव्यक्ति कहीं कम,कहीं अधिक हैं | गङ्गाजलमें उसकी जितनी अभिव्यक्ति हैं, उतनी किसी नाले के पानी में नहीं | शास्त्र-विधि के अनुसार जिन मूर्तियों की पूजा होती हैं, उनमें उसका आविर्भाव सबसे अधिक होता हैं | यदि विग्रह की पूजा के इन नियमों का (जिनमें यह नियम हैं कि मन्दिरमें कौन प्रवेश करे कौन नहीं) उल्लङ्घन किया जाता हैं तो विग्रह में देवत्व भी चला जाता हैं | ---->☝विद्युत् तो सर्वत्र ही हैं | पर उसे व्यवहार में लाना तभी बन सकता हैं,जब कोई विद्युत् उत्पादक यन्त्र हो,विद्युत् वाहक तार हों और प्रकाशक बल्ब हों | यदि विज्ञान की रीति यह सारी व्यवस्था की जाय तो हमें उससे प्रकाश,गति-शक्ति और संदेश मिल सकतें हैं | पर यदि इस यान्त्रिक व्यवस्था के नियम तोड़ डाले जायँ तो फिर ये चीजें उससे नहीं मिल सकतीं | इसी प्रकार मूर्ति-पूजा के सम्बन्ध में शास्त्र की जो विधि हैं, उसका उल्लङ्घन करने से देवत्व उससे प्रकट न होगा | मन्दिरों में प्रवेश करने से अन्त्यजों को कोई लाभ नहीं होता | उलटे शास्त्रों की आज्ञा का उल्लङ्घन करनेसे पाप लगता हैं | शास्त्रों में जो विधि हैं, उसे करना ही पुण्य हैं; जिसका निषेध हैं,उसे करना ही पाप हैं | #वेद_प्रणिहितो_धर्मो_ह्यधर्मस्तद्विपर्ययः||भागवते ६/१/४४||
यदि वे यह समझें कि उनके लिये मन्दिर-प्रवेश का निषेध उनके पूर्वजन्मकृत पापोंके कारण हैं और उन पापोंपर उन्हें पश्चाताप हो तो इससे उनके हृदय शुद्ध होंगे और वे पारमार्थिक उन्नतिके अधिकारी होंगें | मन्दिर प्रवेश का निषेध इस तरह उनके लिये भी कल्याण प्रद ही होता हैं | किसी विषयपर भिन्न भिन्न लोगों में परस्पर मतभेद का होना अनिवार्य हैं | पर जब एक मत के लोग अन्य मतके लोंगोपर जबर्दस्ती अपना मत लादनेका प्रयत्न करते हैं,तब शान्ति भंग होती हैं | सनातनियों का सदा से एक निश्चित मार्ग हैं,एक विशिष्ट ढंग से वे ईश्वरोपासना करतें चले आये हैं | उनके विचार में शास्त्र प्रमादरहित हैं | भगवान् कृष्ण ने भी #तस्माच्छास्त्रं_प्रमाणं_ते_कार्याकार्य_व्यवस्थितौ ||गीता १६/२४|| "कार्य-अकार्य" के निर्णय में शास्त्र ही तुम्हारे लिये प्रमाण हैं, यह कहकर उन्हीं ने पक्षका मण्डन किया हैं | "शास्त्र" हैं वेद,पुराण,रामायण,महाभारत,स्मृतियाँ मीमांसा आदि | गीता के इस श्लोक का भाष्य करते हुए #श्रीमत्_शंकराचार्य और #श्रीमत्_रामानुजाचार्य दोनों ने हीं "शास्त्र" शब्द का यही अर्थ बताया हैं | कर्तव्याकर्तव्यके निर्णय में हम सदा अपनी बुद्धि का ही भरोसा नहीं कर सकतें और नहीं #टी.वी_चैनल, #सीनेमा आदि का | कारण, शास्त्र हैं स्वयं वेद और वे धर्मग्रन्थ, जो वेदार्थ बतलाने के लिये ऋषियों ने बनायें | वेद किसी मनुष्य के लिखे नहीं हैं, #अपौरुषेय हैं | इस कथन की पुष्टिमें श्रीमत् शंकराचार्य ने बृहदारण्यक उपनिषद् से यह वचन दिया हैं---> (#अस्य_महतो_भूतस्य_निःश्वसितमेतद्यदृग्वेदो_यजुर्वेदः #सामवेदोऽथर्ववेदः ||) | ऋग्वेद,यजुर्वेद,सामवेद और अथर्ववेद इस महत् भूत(परमपुरुष) के निःश्वास हैं |
महाभारत महर्षि वेदव्यास ने रचा,जिसमें स्त्रियाँ,शूद्र, और ऐसे ब्राह्मण जिन्होंने वेदोंका अध्ययन नहीं किया,वे वेदार्थ को जानें | मनुसंहिता में वैदिक विधि-निषेधों का संग्रह हैं, मनुके अपनी बुद्धिके निर्णय नहीं | मनुसंहितामें कहा गया हैं कि मनुष्यका परम ध्येय उस आत्मस्वरूप की उपलब्धि हैं, जो सब प्राणियों के अंदर हैं और जिसके अंदर सब प्राणी हैं||मनु१२/९१|| ऐसे पुरुष की दृष्टि संकुचित हो,यह सम्भव नहीं हैं | यदि उनके कुछ वचन कठोर और पक्षपात युक्त मालूम होतें हैं तो इसका कारण यह हैं कि हम उनका वास्तविक अभिप्राय नहीं जान सकें | हमें शास्त्रपर श्रद्धा नहीं परंतु अपनी बुद्धिपर हैं जो एक मर्कटवत् हैं | महाभारत ने मनुस्मृतिके कई वचन उद्धृत किये हैं और मनुसंहिता को प्रमादरहित कहा हैं | मनुसंहिता की रचना भगवद्गीता से भी बहुत पहले हुई हैं,इस विषय में कोई सन्देह नहीं किया जा सकता और ---> गीता(१६/२४) में जहाँ "शास्त्र की बात आयी हैं,वहाँ शास्त्र से "मनुस्मृति" भी अभिप्रेत हैं |
अस्पृश्यता के नियम द्वेष मूलक नहीं हैं | मनुस्मृतिमें जहाँ यह कहा हैं कि चाण्डालका स्पर्श होनेपर स्नान करना चाहिये,वहीं उसी के साथ ही कहा हैं की ऋतुमती या प्रसूता स्त्री का (वह अपनी माँ,बहिन, पत्नी--- कोई भी हो सकती हैं) स्पर्श होनेपर स्नान करना चाहिये शरीर को शुद्ध रखनेके लिए यह विधि हैं ||मनु ५/८४|| शास्त्र में तो एक ऋतुमती दूसरी ऋतुमती का भी स्पर्श करें तो भी शुद्धि विधान हैं | मनुके सब वचनोंपर वेदों की मुहर लगी हैं और उनकी भगवान् की तरह ही स्तुति की गयी हैं | श्रीमत् शंकराचार्य और श्रीमत् रामानुजाचार्य ने ब्रह्मसूत्र के अपने भाष्यों में मनुस्मृति की श्रेष्ठता बतलाते हुए यह वेद वचन उद्धृत किया हैं --- (#यद्वै_किं_च_मनुरवदत्_तत्_भेषजम्) अर्थात् मनुने जो कुछ कहा हैं,वह औषध हैं |
शास्त्रों ने उत्तम से अधमतक सब वर्णों की वृत्तियां निश्चित कर दी हैं | किसी वर्ण को यह अधिकार नहीं है कि वह किसी दूसरे वर्ण की वृत्ति छीन ले | यदि उच्च वर्णों ने अन्त्यजों को सताया होता तो (अमेरिका के रेड इंडियनों और आस्ट्रेलिया के हाटेनटाटों की तरह) अन्त्यजों का कुलक्षय हुआ होता | भारतवर्ष में आज जो करोडो़ अन्त्यज़ हैं,वे न होते यदि सहस्रों वर्षों से "दलित" या "पीडि़त" किये गये होतें |
महाभारत में "धर्मव्याध" की जो कथा हैं,उससे पता चलता हैं कि प्राचीन समय में हरिजन स्वकर्म का पालन और शास्त्रों की आज्ञाओंका अनुसरण किस प्रकार आध्यात्मिक क्षेत्र में परम उन्नत हो सकतें थें | "धर्मव्याध" इतने ज्ञानसम्पन्न थे कि किसी ब्राह्मण को भी धर्मतत्त्व जाननेके लिये उनके पास जानें में संकोच नहीं होता था | किसी हरिजनने शास्त्र-मर्यादा का उल्लङ्घन कर मन्दिर-प्रवेश करके वैयी उन्नति लाभ की हो, इसका तो कोई दृष्टान्त अभीतक नहीं मिला | श्रीकृष्ण, श्रीराम, श्रीवेदव्यास, श्रीवाल्मीकी, श्रीशङ्कराचार्य, श्रीरामानुजाचार्य, श्रीचैतन्य, श्री तुलसीदास, श्रीरामकृष्ण परमहंस आदि सभी ने धार्मिक विषयों में सर्वोपरि शास्त्र को ही प्रमाण माना हैं | शास्त्र न मानने वालें को हिंदू नहीं कहा जा सकता | बाइबल न
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