शास्त्रीय वचनों को शास्त्रीय विधि से ही समझना चाहिये , मनमुखी पद्धति से नहीं ।
#सुरा_मत्स्या_मधु_मांसमासवं० इत्यादि जो समस्त श्लोक हैं , ये अहिंसाप्रधान निवृत्तिधर्म के स्तावक श्लोक हैं , क्योंकि मीमांसकों की ऐसी मर्यादा है कि लिङ्गादिविधिप्रत्यय विरहित सिद्धार्थ प्रतिपादक वाक्य , अक्रियार्थक होने से स्वार्थ में तात्पर्य नहीं रखते अपितु स्वसन्निहित विधिप्रत्ययगत लिङ्गादिवाच्य की भावना की इतिकर्त्तव्यता की आकांक्षा को पूर्ण करने के कारणविधि के साथ एकवाक्यतापन्न होते हैं और इस प्रकार एकवाक्यतापन्न होकर विधेयार्थस्तावकत्वेन उपयुक्त होते हैं , जैसा कि -
आम्नायस्य क्रियार्थत्वादानर्थक्यमतदर्थानाम् । ( पूर्वमीमांसा १|२९)
विधिना त्वेकवाक्यत्वात्स्तुत्यर्थेन विधीनां स्युः । ( पूर्वमीमांसा १|२७)
अर्थात् अहिंसाधर्म प्रतिपादक उक्त वचन अर्थवाद हैं , इनका स्वार्थ में तात्पर्य नहीं है ।
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