Sunday, 20 August 2017

सनातन वैदिक धर्म

सनातन शब्द  का  अभिप्राय   होता  है  -  जो  सदा  था  ,  सदा  है  और  सदा रहेगा  । वैदिक शब्द का तात्पर्य है, जो वेद से व्युत्पन्न या वेदों के समनुरूप हो अथवा जो वेद के द्वारा कहा गया है (वेदेषु विहितः, वेद +ठक् ) और धर्म शब्द का तात्पर्य है जो लोक को धारण करता है (ध्रियते लोकोऽनेन) अथवा जो  धारण करने योग्य हो ।
इस प्रकार सनातन  वैदिक – धर्म का सरल भाषा में यदि अभिप्राय कहें तो वेदों के द्वारा कहा गया या वेदों के समनुरूप अथवा वेदों से व्युत्पन्न जो धारण करने योग्य  शाश्वत  सिद्धान्त  हैं  , वही सनातन वैदिक – धर्म शब्द का शाब्दिक अभिप्राय है ।

सनातन वैदिक  धर्म  की  परिभाषा -

           परम करुणामय जगद्गुरु भगवान् श्री आद्य शंकराचार्य ने श्रीमद्भगवद्गीताभाष्यभूमिका  के माध्यम से    सनातन  वैदिक धर्म  की  परिभाषा  देते  हुए    यह बताया है कि-

              जो जगत् की स्थिति का कारण  है तथा  प्राणियों के अभ्युदय ( उन्नति ) तथा  निःश्रेयस (मोक्ष )  का  साक्षात् हेतु (कारण ) है , एवं   ब्राह्मणादि -वर्णाश्रम-अवलाम्बियों  द्वारा  जिसका  अनुष्ठान किया  जाता  है , उसका  नाम  ' धर्म '  है  ।

जगतः स्थितिकारणं प्राणिनां साक्षादभ्युदयनिःश्रेयसहेतुर्यः स धर्मो ब्राह्मणाद्यैर्वर्णिभिराश्रमिभिश्च श्रेयोर्थिभिरनुष्ठीयमानः ।। (श्रीमद्भगवद्गीता-उपोद्घातः)

​                    श्री आद्य शंकराचार्य   “नारायण” नाम से कहे जाने वाले भगवान् विष्णु इस भौतिक प्रकृति से परे हैं , उन्ही श्री भगवान् ने इस अखिल चराचर जगत् की रचना करने के उपरान्त इसके सम्यक् परिपालन की इच्छा से मरीच्यादि ऋषियों तथा सनक – सनन्दनादि को उत्पन्न कर उनको “वैदिक – धर्म” का ग्रहण कराया ।

सनातन  वैदिक धर्म के भेद -

श्री  आद्य शंकराचार्य  भगवान् ने समझाया है कि  यह सनातन वैदिक धर्म दो प्रकार  है  -

(१) प्रवृत्ति लक्षण  ।
(२) निवृत्ति लक्षण   ।

द्विविधो हि वेदोक्तो धर्मः - प्रवृत्तिलक्षणः निवृत्तिलक्षणश्च । (श्रीमद्भगवद्गीता-उपोद्घातः)

सनातन वैदिक धर्म का इतिहास -

श्री आद्य शंकराचार्य भगवान् ने  इस  सन्दर्भ में  समझाया है कि -

  श्रीमन्नारायण नामक भगवान्   ने ही पहले मरीच्यादि ऋषियों को उत्पन्न कर उनको वेदोक्त प्रवृत्तिपरक  सनातन वैदिक धर्म ग्रहण कराया, अनन्तर सनक-सनन्दनादि को उत्पन्न कर उनको निवृत्तिपरक वैदिक धर्म ग्रहण कराया ।

           स भगवान् सृष्ट्वेदं जगत् तस्य च स्थितिं चिकीर्षुः मरीच्यादीन् अग्रे सृष्ट्वा प्रजापतीन् प्रवृत्तिलक्षणं धर्मं ग्राहयामास वेदोक्तम् । ततः अन्यान् च सनकसनन्दनादीन् उत्पाद्य निवृत्तिलक्षणं धर्मं ज्ञानवैराग्यलक्षणं ग्राहयामास ।  (श्रीमद्भगवद्गीता-उपोद्घातः)

                    अर्थात्   अभिप्राय यह है  कि  श्री भगवान्  नारायण  ने  ही  सृष्टि  के  आरम्भ  में    सनातन  वैदिक   धर्म  को    संस्थापित किया था  ,  उन्होंने  जगत् की  सृष्टि  के  लिए   स्वयं  से   श्री ब्रह्मा जी  नामक   अपने   गुणावतार  को  उत्पन्न किया  और   इस  गुणावतार  स्वरूप  से    फिर  उन्होंने  मरीचि  आदि  ऋषियों  को  उत्पन्न किया  ,  और  उन  ऋषियों   को उत्पन्न करके  उनमें     सनातन वैदिक धर्म  के  पहले  भाग  (प्रवृत्ति लक्षण धर्म) को   ऋषियों में संस्थापित  किया  ,   उसके  उपरान्त   उन्होंने  (निवृत्ति लक्षण धर्म )  को   सनक-सनन्दन आदि मुनियों  में  संस्थापित  किया , ये  मुनि भी  श्री भगवान्  नारायण  ने  ही  अपने  श्री   ब्रह्मा    नामक  गुणावतार से  उत्पन्न किये थे ।
             सनातन   वैदिक   धर्म  के  अनुसार  श्री  ब्रह्मा  के  दिन  से  १, ९७,२९,४९,११८ [ एक अरब सतानवे करोड़ उन्तीस लाख  उन्चास हजार एक सौ अठारह ] वर्ष व्यतीत हो  चुके हैं  और   सृष्टि  के  आरम्भ से  लेकर  अब  तक   १,९५,५८,८५,११८  [  एक अरब  पिचानवे करोड़  अठावन लाख पिचासी  हजार एक सौ अठारह ] वर्ष व्यतीत  हो    चुके हैं,  जिसे  कि तथाकथित  आँग्ल मतानुयायी सन् २०१७  बोल  रहे  हैं  ।  अर्थात्  स्पष्ट  है  कि   सनातन  वैदिक  धर्म   इस  सृष्टि का  मौलिक  धर्म  है   और  यह  सृष्टि   के  आरम्भ  से  ही  वर्त्तमान होने  के  कारण   अरबों  वर्ष की  प्राचीनता  का   गौरव  धारण किये हुए   अद्यावधि पर्यन्त वर्त्तमान है ।

'हिन्दू' की मौलिक - अभिधारणा-
   सामान्यतया  जिनका  इस उक्त सनातन वैदिक  परम्परा  में  पूर्ण विश्वास है  , वे लोग लोक  में हिन्दू समझे जाते  हैं  किन्तु वस्तुतः सैद्धान्तिक  दृष्टि  से   "हिन्दू" की मौलिक - अभिधारणा इस प्रकार है -
          

​               सृष्टि के प्रादुर्भाव काल से लेकर अद्यावधिपर्यन्त उक्त आद्य ऋषियों की गोत्र – परम्परा अथवा सम्प्रदाय -परम्परा के रूप में अविरल गंगा-जलप्रवाह की भांति प्रवाहित हो रही वैदिक- धर्म परम्परा का यथोचित् अथवा समुचित निर्वहन करने वाला अखिल मानव – समुदाय  “हिन्दू”  है ।

धर्म की जय हो !

अधर्म का नाश हो !

प्राणियों में सद्भावना हो !

विश्व का कल्याण हो !

गोहत्या बन्द  हो !

गोमाता की जय हो !

।। जय श्री राम ।।

ज्योति:शास्त्रोक्त व धर्मशास्त्रोक्त वर्ण में भेद

ज्योति:शास्त्र के फलात्मक स्कन्ध में #वर्ण  राशियों व ग्रहों का होता है | राशियों का वर्ण यथा -

#द्विजा_झषालिकर्कटास्ततो_नृपा_विशोsड्.#घ्रिजा: |
                           ----- मु.चि. 6/22
इत्यादि से जो उस जातक की राशि सदृश वर्ण कहा जाता है वह -

#वर्णो_वश्यं_तथा_तारा_योनिश्च_ग्रहमैत्रकम् |
इत्यादि अष्टकूट के लिए होता है |

ग्रहों का वर्ण हृतनष्टादि वस्तु के प्रश्न में विचार्य होता है |

यहां दोनों से जातक के वर्ण में भेद रहे तो राशि व राशीश में से किसका ग्रहण करना चाहिए ? तो कहा राशीश का ही |

राशि व राशीश से जो वर्ण है वह आदेशार्थ है |
गुण कर्म से जो श्रुतिस्मृत्योक्त वर्ण है वह जाति को द्योतित करता है |

जय श्री राम|

सनातन वैदिक धर्म

"वैदिक" शब्द का तात्पर्य है, जो वेदों से व्युत्पन्न या वेदों के समरूप हो अथवा जो वेद के द्वारा कहा गया हो (वेदेषु विहितः, वेद + ठक्) और "धर्म" शब्द का तात्पर्य है जो धारण करने योग्य हो! इस प्रकार "वैदिक-धर्म" का सरल भाषा में यदि अभिप्राय कहें तो वेदों के द्वारा कहा गया या वेदों के समरूप अथवा वेदों से व्युत्पन्न जो धारण करने योग्य है, वही "वैदिकधर्म" शब्द का शाब्दिक अभिप्राय है।
 परम करूणामय जगद्गुरु भगवान् श्रीमद् आद्य शंकराचार्य जी ने श्रीमद्भगवद्गीता भाष्यभूमिका के माध्यम से यह बताया है कि "नारायण" नाम से कहे जाने वाले भगवान् विष्णु इस भौतिक प्रकृति से परे है, उन्ही श्री भगवान् ने इस अखिल चराचर की रचना करने के उपरान्त इसके सम्यक् परिपालन की ईच्छा से मरीच्यादि ऋषियों तथा सनक-सनन्दनादि को उत्पन्न कर उनकों "वैदिकधर्म" का ग्रहण कराया।
वैदिकधर्म दो प्रकार का है - 
१. प्रवृत्तिपरक वैदिकधर्म ।
२. निवृत्तिपरक वैदिकधर्म।
उन श्रीमन्नारायण नामक भगवान् विष्णु ने ही पहले मरीच्यादि ऋषियों को उत्पन्न कर उनको वेदोक्त प्रवृत्ति-परक वैदिक-धर्म ग्रहण कराया, अनन्तर सनक-सनन्दनादि को उत्पन्न कर उनको निवृत्ति-परक वैदिक-धर्म ग्रहण कराया। जैसा कि आदि जगद्गुरु कहते हैः-  "स भगवान् सृष्ट्वेदं जगत तस्य च स्थितिं ........... द्विविधो हि वेदोक्तो धर्मः" इति। प्रवृत्ति सृष्टि के प्रादुर्भाव काल से लेकर अद्यावधि-पर्यन्त इन्हीं आद्य ऋषि-मुनियों की गोत्र -परम्परा अथवा सम्प्रदाय-परम्परा के रूप में अविरल गंगा-जलप्रवाह की भान्ति प्रवाहित हो रही वैदिक-धर्म परम्परा का यथोचित अथवा समुचित निर्वहन करने वाला अखिल मानव-समुदाय लोक में "हिन्दू" नाम से विख्यात है।

धर्म की जय हो!
अधर्म का नाश हो !
प्राणियों में सद्भावना हो!
विश्व का कल्याण हो !
गो हत्या बन्द हो!
गो माता की जय हो !
हर नमः पार्वती पतये हर हर महादेव ।
॥जय श्री राम॥

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