Friday, 17 January 2020

सन्ध्या के समस्त लेख

#सन्ध्योपासना_के_समस्त_लेख_की_समूह_लींक_सहित
#षोडश_संस्काराः_यज्ञोपवीतम्_खंड१२७~
(#संध्योपासना )

यज्ञोपवीत संस्कार प्राप्त होनेके पश्चात् सभी द्विजों(ब्राह्मण,क्षत्रिय और वैश्यों)को अपने अपने गृह्यसूत्रों अनुसार नित्य और नियमितरूपसे त्रिकाल संध्याकी उपासना करनी चाहिये।

केवल कर्मकांड करनेवाले ब्राह्मणोंको ही संध्या करनी चाहिये ऐसा नहीं हैं।

तीनप्रकारकें अनुष्ठान करनेका आदेश शास्त्रोंमें हैं। १ नित्य २ नैमित्तिक और ३ काम्य।

"संध्या स्नानं जपो होमः स्वाध्यायो देवतार्चनम्। वैश्वदेवातिथेयश्च षट् कर्माणि दिने दिने।।पराशरस्मृतिः१३९।।

अर्थात् १स्नान,२ संध्या,गायत्रीमंत्रजप,३ होम,४स्वशाखाके वेदका अध्ययन,५देवतार्चन,६ वैश्वदेव,अतिथि सत्कार! यह छह कर्म प्रत्येक द्विजोंको प्रतिदिन करना चाहिये।

श्रृति कहती हैं कि"अहरहः संध्यामुपासीत।।"अर्थात् द्विजोंको प्रतिदिन संध्या करनी चाहिये। "अकृत्वा वैदिकं नित्यं प्रत्यवायी भवेन्नरः।।"अर्थात् वैदिक कर्म नित्य न करनेसे द्विज प्रत्यवायी(पतित)बनता हैं।

"विहितानाचरणजन्य पातकं प्रत्यवायः।।"
अर्थात् विहित नित्यकर्म न करनेसे होनेवाले  पाप को प्रत्यवाय कहा जाता हैं।
द्विजों को यज्ञोपवीत संस्कार प्राप्त कर आचार्यसे संध्याका महत्व और  विधिसे संध्यावंदन विधि जानकर प्रतिदिन संध्या अवश्य करनी चाहिये।

प्रत्येक द्विजधर्मी माता-पिता की दायित्व  हैं कि नीति और धर्मका शिक्षण देनेकेलिए प्रथम और उत्तमस्थल अपना घर होता हैं इसलिए माता-पिता स्वयं धर्मका आचरण और सदाचार का पालन करकें द्विज पुत्रको नित्यकर्म की और लक्ष्यांकित करना चाहिये।
संध्या का अर्थ -
"सम्यक् ध्यायते परब्रह्म अनया इति संध्या"। जिसके द्वारा परब्रह्मका अच्छीतरहसे चिंतन(ध्यान)हो! वह संध्या हैं।

संध्योपासनामें गायत्रीमंत्रजप का विशेष महत्व हैं। गायत्रीमंत्रसे सर्वोत्पत्तिके बीजरूप ऐसे भगवान् सूर्यनारायण देव की उपासना होती हैं।

ब्रह्मांडमे प्राणापान के संधि समयपर अपने शरीरमें स्थित प्राणतत्त्वको शुद्ध करनेके लिए समष्टिके प्राणस्वरूप सूर्यमें स्थित अंतर्यामीकी उपासनारूप जो वैदिककर्म द्विजों से किया जाता हैं उसे संध्या कहतें हैं।

पिंड और ब्रह्मांडमें जब प्राणापानका वहन शिथिल हो जाय तब दौनोंकी संधिरूप सुषुम्ना का वहन हों तब द्विजोंको संध्या करनी चाहिये।

महर्षियोंने त्रिकाल संध्या का आग्रह किया हैं,
"संध्योपासनं त्रिकालं कर्तव्यम्।।
(अहोरात्रस्य यः सन्धिः सूर्य नक्षत्र वर्जितः। सा तु सन्ध्या समाख्याता मुनिभिस्त्त्वदर्शिभिः।।)
"अर्थात् दिन और रात्रीका संधिकाल अनुक्रमसे सूर्य और नक्षत्र(सितारें)रहित समय को तत्त्वदर्शी मुनियोंने संध्या कही हैं।

१ प्रातः संध्याके देवता गायत्री हैं,वह रक्तवर्णवाली,रक्तवस्त्रा बालास्वरूपा,
ब्रह्मलोकके ब्रह्माकी शक्ति और हंसारूढा हैं, हाथमें अक्षमाला और कमण्डलु धारण कियें हैं।

२ मध्याह्न संध्या के देवता सावित्री हैं, वह शुक्लवर्णवाली,शुक्लवस्त्रा त्रिलोचना युवतीस्वरूपा,रुद्रलोकके रुद्रकी शक्ति वृषारुढा हैं, हाथमें त्रीशूल तथा डमरु धारण किये हैं।

3 सायंसंध्याके देवता सरस्वती हैं,वह कृष्णवर्णा पीतवस्त्रा वृद्धास्वरूपा, विष्णुलोकके विष्णुकी शक्ति गरुडवाहना चतुर्भुजा में शंख चक्र गदा पद्म धारण किये हैं।

संध्योपासनाका कर्म मात्र ईश्वरप्रित्यर्थ होने पर भी निष्काम भावसे करना अवश्यक हैं।

फिर भी यह कर्मसे  पापनिवृत्ति होकर पुण्यकी वृद्धि होती हैं।
यज्ञवल्क्यस्मृतिमें कहा हैं -कि
" निशायां वा दिवा वापि यदज्ञानकृतं भवेत्। त्रिकालसन्ध्याकरणात्तत्सर्वं हि प्रणश्यति।। याज्ञ०स्मृ०प्रा०३/३०७।।
अर्थात् रात्रि या दिनमें जोभी कर्म अज्ञानसे हुआ हो वह सब त्रिकालसंध्या करनेसे नाश होता हैं।

मरीचिका कथन हैं-
" सन्ध्या येन न विज्ञाता सन्ध्या येनानुपासिता। जीवमानो भवेच्छुद्रो मृतः श्वा चा$भिजायते।।देवीभा०११/१६/६।।

  जिसने सन्ध्या जानीं नहीं हैं और संध्याकी उपासना न की हो वह जीवनभर शूद्र समान हैं,तथा मृत्युके बाद कुत्तेकी योनिको प्राप्त होता हैं।

दक्ष कहतें हैं-
"सन्ध्याहिनो$शुचिर्नित्यमनर्हः सर्वकर्मसु। यदन्यत्कुरुते कर्म न तस्य फलभाग्भवेत्।।" अर्थात संध्या न करनेवाला द्विज! नित्य  अपवित्र होता है,कोई भी कर्म नहीं कर सकता,जो जो सत्कर्म करता हैं उनका फल इन्हें  नहीं मिलता हैं।

श्रीमद्भगवद् गीता भी कहती हैं-
"यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः। न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्।।१६/२७।।" अर्थात् जो मनुष्य शास्त्रविधिको छोड़कर इच्छानुसार करतें हैं!वह सिद्धि,सुख या परमगतिको प्राप्त नहीं होता।

यह दुर्लभ मनुष्यदेह क्षणभंगुर हैं वह अनेकजन्म के बाद पुण्यके प्रभावसे प्राप्त होता हैं,इसलिए अपना कर्म क्या हैं यह विचारणीय हैं।
यहां मनुष्यजन्ममें ही अपना मुख्य कर्म ईश्वरोपासना हैं।
इस असार संसारमें जो जो उपभोग्य पदार्थ दृश्यमान हैं वह सब समयांतरको नाशवंत हैं, इसमें कोई भी संदेह  नहीं हैं।
जो भी द्विज नियमित संध्यावंदन,वेदाध्ययन आदि ईश्वरोपासना नहीं करता वह प्राप्त अधिकारका दुरुपयोग करता हैं।

"देवदत्तमिमं लब्ध्वा नृलोकमजितेन्द्रियः।
यो नाद्रियेत त्वत्पादौ स शोच्यो ह्यात्मवञ्चकः।।भागवत१०/६३/४१।।
जो मनुष्य ईश्वरदत्त यह मनुष्यजन्म प्राप्तकर ईश्वरोपासना नहीं करता उनको आत्मवञ्चक( अपनी जातसे खिलवाड़कर छेतरपिंडी़ करनेवाले)जानने चाहिये।
और ऐसा भगवत्कृपासे प्राप्त मोक्षद्वाररूप मनुष्यजन्म अपने ही दोषसे निरर्थक नाश होता हैं।

"उद्यन्तमन्तं यान्तमादित्यमभिध्यायन् कुर्वन्। ब्राह्मणो विद्वान् सकलं भद्रमश्नुते।। तै०आ०प्र०२/२।।
उदय और अस्त होतें हुए सूर्यका ध्यान करतें करतें विद्वान् सभी प्रकारकें कल्याणको प्राप्त करता हैं।

"संध्यालोपस्य चाकर्ता स्नानशीलश्च यः सदा।
तं दोषा नोपसर्पन्ति गरुत्मन्तमिवोरगाः।।"

अर्थात् गरुडवालेके पास जैसे सर्प नहीं आतें,वैसे स्नानशील तथा संध्यालोप न करनेवालें को दोष नहीं लगता।
वेदकी आज्ञा हैं कि नित्य प्रतिदिन संध्या करनी चाहिये तो वेदनारायणकी आज्ञाका पालन करना यह अपना मुख्य धर्म हैं,ईश्वरकी आज्ञाके पालनसे ही मनुष्योंका कल्याण होता हैं।

भागवतमें पृथुराजा को भगवान् कहतें हैं-
"मदादेशकरो लोकः सर्वत्राप्नोति शोभनम्।।४/२०/३३।।
अर्थात् भगवान् कहतें हैं कि मेरे आदेशका पालन करनेवाला मनुष्य सर्वत्र शुभत्वको प्राप्त करता हैं।

"सन्ध्या स्नानं त्यजन्विप्रः सप्ताहाच्छुद्रतां व्रजेत्। तस्मात्संन्ध्यां च स्नानं च सूतके$पि न संत्यजेत्।।याज्ञवल्क्य।। याज्ञवल्क्य का कहना हैं कि सातदिन संध्या और स्नान न करनेवाला द्विज शुद्रत्वको प्राप्त होता हैं,इसलिए सूतक(जनन,मरण),में स्नान संध्याका त्याग नहीं करना चाहिये।

श्री पुलस्त्य और यमस्मृतिमें भी सूतकमें संध्या करनेका आग्रह बताया हैं।
"सूतके मृतके कुर्यात् प्राणायाममन्त्रकम्।तथा मार्जनमंत्रास्तु मनसोच्चार्य मार्जयेत्।।
गायत्रीं सम्यगुच्चार्य सूर्यायार्घ्यं निवेदयेत्। आचमनं न वा कार्यमुपस्थानं न चैव हि।।
प्रयोग पारिजात।।

जनन तथा मृत सूतकमें संध्याके विधानमें प्राणायाम मंत्ररहित,मार्जन के मंत्रो मनमें पढकर मार्जन,गायत्रीमंत्र स्पष्ट उच्चारण करतें हुए सूर्यनारायणको अर्घ्यदान,अंबुप्राशन करैं या न करैं, उपस्थान नहीं होता।

यावन्तो$स्यां पृथिव्यां हि विकर्मस्थास्तु वै द्विजाः। तेषां वै पावनार्थाय सन्ध्या सृष्टा स्वयम्भुवा।।अत्रिः।।"
इस पृथवीपर जितने भी स्वकर्म रहित उपनयनसे संस्कारित द्विज (ब्राह्मण,क्षत्रिय और वैश्य)हैं,उनको पवित्र करनेके लिए ब्रह्माजीने संध्याकी उत्पत्ति की हैं।

"सन्ध्यामुपासते ये तु सततं संशितव्रताः। विधूतपापास्ते यान्ति ब्रह्मलोकं सनातनम्।।अत्रिः।।
नियम पूर्वक जो द्विज प्रतिदिन सन्ध्या करतें हैं,वे पापरहित होकर ब्रह्मलोकको प्राप्त होतें हैं।
सन्ध्योपासना समय-
" उत्तमा तारकोपेता मध्यमालुप्ततारका।
अधमा सूर्य सहिता प्रातःसंध्या त्रिधा मता।।दे०भा०११/१६/४।।"
सूर्योदयसे पूर्व जब कि आकाशमें तारे भरे हुएँ हो,उस समयकी संध्या उत्तम हैं,
ताराओंके छिपनेसे सूर्योदय तक मध्यम
और सूर्योदय के बाद की प्रातःसंध्या अधम मानी गयी हैं।

सायं सन्ध्या-
"उत्तमा सूर्य सहिता मध्यमा लुप्तसूर्यका।
अधमा तारकोपेता सायं संध्या त्रिधा स्मृता।।विश्वामित्रस्मृ१/२४।।
सायंकालकी संध्या सूर्यके रहते कर ली जाय तो उत्तम,सूर्यास्तके बाद और तारोंके निकलनेके पूर्व मध्यम तथा तारा निकलनेके बाद अधम मानी गयी हैं।
"प्रातःसंध्यां सनक्षत्रां मध्याह्ने मध्यभास्कराम्। ससूर्यां पश्चिमा संध्यां तिस्रः संध्या उपासते।।दे०भा०११/१६/२-३।।
" प्रातःकालमें तारोंके रहते हुए,मध्याह्नकालमें जब सूर्य आकाशके मध्यमें हो,सायंकालमें सूर्यास्तके पहले ही इस तरह तीन प्रकारकी क्रमशः प्रातःसंध्या,मध्याह्नसंध्या और सायंसंध्या करनी चाहीये।

#संध्यावंदनमें _जपकाला$वधि-#जपन्नासीत_सावित्रीं_प्रत्यगातारकोदयात्।।
#संध्या_प्राक्_प्रातरेवं_हि_तिष्ठेदासूर्यदर्शनात्।। याज्ञ०स्मृ०२/२४-२५।।"
सायंकालमें पश्चिमकी तरफ मुख करके जबतक तारोंका उदय न हो और प्रातःकालमें पूर्वकी ओर मुख करके जबतक सूर्यका दर्शन न हो,तबतक जप करता रहे।
"गृहस्थो ब्रह्मचारी च प्रणवाद्यामिमां जपेत्।अन्ते यः प्रणवं कुर्यान्नासौ सिद्धिमवाप्नुयात्।।याज्ञ०स्मृ०आचा०२४-२५।।
"गृहस्थ तथा ब्रह्मचारी गायत्रीके आदिमें ॐका उच्चारण करके जप करैं,और (अन्तमें ॐका उच्चारण न करैं,क्योंकि ऐसा करनेसे सिद्धि नहीं होती हैं।)"

#गायत्रीपरिवार,स्वाध्यायपरिवार(पांडुरंगआठवलेके अनुयाययी) तथा आर्यसमाज़ वालों ने भी संध्याविधानकी स्वतः रचना की हैं परंतु इन तीनों(गायत्रीपरिवार आदि)की स्वतःरचना किसी भी गृह्यसूत्रोंके विधान अनुसार न होनेसे ऐसा कपोलकल्पित संध्यावंदन विधान नहीं करना चाहिये...

क्योकिं श्रृतिकी आज्ञा हैं-"
"स्वाध्यायोऽध्येतव्यः||तैत्तिरीय आरण्यक –२/१५|| "
स्वाध्याय –स्वश्चासौ अध्यायः ,स्वस्य अध्यायः"–इस प्रकार कर्मधारय या षष्ठीतत्पुरुष करके स्वाध्याय का अर्थ हुआ "वेद,"अध्येतव्यः" पढ़ना चाहिए ।
लिड़्,लेट् ,लोट्, तव्यत् आदि विधान के लिए हैं। प्रकृत वाक्य से वेदाध्ययन का विधान किया गया है।ध्यातव्य है कि स्वशाखा वेद ही है।
इसलिये स्वशाखाके अनुसार ही संध्यावंदन करना श्रेष्ठ और श्रेयस्कर रहैंगा।

सन्ध्योपासना के विषय पर अन्य लेख लींक---

https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=1746933115537376&id=100006621126470

२-
https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=1746761092221245&id=100006621126470
३-
https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=1742047279359293&substory_index=1&id=100006621126470
४-
https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=1741263889437632&substory_index=0&id=1000066211प्राय-

गौणस्नानानि-
https://m.facebook.com/1632217650386783/photos/a.1667683436840204.1073741829.1632217650386783/1675559139385967/?type=3

यज्ञोपवीतनाशे प्राय-
https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=1749336611963693&id=100006621126470

२-
https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=1749009908663030&id=100006621126470

सूतके सन्ध्या-
https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=1748867998677221&substory_index=0&id=100006621126470

सायंप्रातरग्निपरिचर्या-
https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=1748660615364626&id=100006621126470

सूत्रोक्त सन्ध्या-
https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=1748577498706271&id=100006621126470

सन्ध्योपासना - २०१७
https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=1851389225136290&substory_index=0&id=1632217650386783

ॐस्वस्ति।पु ह शास्त्री.उमरेठ।शेष पुनः

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