Thursday, 14 November 2019

वेद

#अनन्ता_वै_वेदाः।। तैत्तरीय ०ब्रा०३/१०/११।। -- वेदों की शाखाएं अनन्त हैं ।
तैत्तरीय ब्राह्मण की श्रुति से ज्ञात होता हैं कि भरद्वाज महर्षि तीन पुरुषायु को प्राप्तकर वेदाध्ययन किये, पुनः ब्रह्माजी से अध्ययन करने हेतु आयु माँगे तो ब्रह्माजी ने कहा - सामने जो तीन पहाड़ दीखते हैं, उनमें से एक एक मुठ्ठी ले आओ। लाकर रखनेपर ब्रह्माजी बोले तीन पुरुषायु में तुमने इतना ही अध्ययन किया हैं - " #अनन्ता_वै_वेदाः " कहकर ब्रह्मचर्य समाप्त करने का आदेश दिये। इससे स्पष्ट हैं कि वेद की शाखाएँ गणना की विषय नहीं 👉 "(भारद्वाजो हि त्रिभिरायुर्भिर्ब्रह्ममुवास । तं ह जीर्णि स्थविरं शयानम्। इन्द्र उपव्रज्य उवाच भरद्वाज ! यत्ते चतुर्थमायुर्दद्यां किमेनेन कुर्या इति। ब्रह्मचर्यमेवैनेन चरेयमिति होवाच। तं ह त्रीन् गिरिरूपान् विज्ञातानिवदर्शयाञ्चकार । तेषां हैकैकेस्मान्मुष्टिमाददे। स होवाच - भरद्वाजेत्यामन्त्र्य वेदा वा एते । #अनन्ता_वै_वेदाः। एतैस्त्रिभिरायुर्भिः अन्ववोचथाः। अथ तम् इतरदनुक्तमेव। ये हि विद्धि अयं सर्वविज्ञा इति।। तैत्तरीय ब्रा० ३/१०/११।।)"
#मनुस्मृति ने वेद के लिये विधान शब्द का उपयोग भी किया हैं -- "( त्वमेको ह्यस्य सर्वस्य विधानस्य स्वयम्भुवः। अचिन्त्यस्याप्रमेयस्य कार्यतत्त्वार्थवित् प्रभो।। मनुः १/३।।)" अर्थात्  भृगु आदि महर्षि मानवधर्म की जिज्ञासा करते हुए मनुजी से कहते हैं कि हे प्रभो !  अकेले आप ही वेद के यज्ञ-कर्म और उसके प्रतिपाद्य ब्रह्म-तत्त्व के जानकार हैं। अतः हम लोग आपसे ही इनके सम्बन्ध में पूछ रहे हैं।
यहाँ ऋषियों ने वेद के लिये *"(विधानस्य)"* पद का प्रयोग किया हैं और इसके चार विशेषण देकर वेद के स्वरूप को समझाया भी हैं। (१) पहला विशेषण हैं "( अस्य सर्वस्य)" - अर्थात् अनन्त होने से वेद का कुछ अंश तो प्रत्यक्ष श्रुति हैं और जो अंश श्रुति नहीं हैं, वह स्मृति के द्वारा अनुमेय होता हैं।
(२) दूसरा विशेषण हैं "(स्वायम्भुव)" । स्वयम्भू का अर्थ हैं - अपने आप प्रकट होनेवाला अर्थात् जिसका कोई उत्पादक न हो। जिस तरह भगवान् स्वयम्भू हैं, उसी तरह वेद भी स्वयम्भू हैं अर्थात् प्राप्त होता हैं। जैसे भगवान् को बनानेवाला कोई नहीं हैं वैसे वेद का भी बनानेवाला कोई नहीं हैं। वेद तो भगवत्स्वरूप हैं -- "( वेदो नारायणः साक्षात्।।स्कन्द पुराण)"। इसी तथ्य को स्पष्ट करने के लिये वेद को अपौरुषेय कहा गया हैं। अर्थात् वेद किसी पुरुष का बनाया हुआ नहीं हैं। भगवान् सत् स्वरूप, चित्स्वरूप और आनन्दस्वरूप होते हैं। जैसे उनका सत् अपौरुषेय हैं, आनन्द अपौरुषेय हैं, वैसे उनका चित्त (ज्ञान और उसमें अनुविद्ध शब्द)भी अपौरुषेय हैं।
(३) मनुस्मृति ने वेद का तीसरा विशेषण दिया हैं - "(अचिन्त्यस्य)" । इसका भाव यह हैं कि वेद की शाखाओं का कोई अन्त नहीं हैं - अनन्तर वै वेदाः। अतः वेद की इयत्ता का चिन्तन सम्भव नहीं हैं। जिस कल्प में ब्रह्मा का हृदय भगवान् के द्वारा भेजी गयी शाखाओं का जितने अंश ग्रहण कर पाता हैं और उनका प्रतिफलन कर उनके मुखों से विनिर्गत कर पाता हैं, उस कल्प में वेद की उतनी ही शाखाएँ उपलब्ध होती हैं। इस कल्प में ब्रह्मा ने एक हजार एक सौ एकत्तीस शाखाओं को प्राप्त किया, अतः इस कल्प में वेद की इतनी ही शाखाएँ मानी जाती हैं(महाभाष्य पश्पशाह्निक)। अन्य कल्पों में इससे अधिक भी शाखाएँ उपलब्ध होती हैं। जैसे मुक्तिकोपनिषद् के १/१२-१३ में एक हजार एक सौ अस्सी शाखाएँ बतायी गयी हैं। इन्हीं अनन्त शाखाओं के कारण वेद की इतनी ही शाखा हैं, यह निर्णय करना कठिन हो जाता हैं। इसी तथ्य को "(अचिन्त्यस्य)" कहकर प्रकट किया गया हैं। अर्थात् वेद की इतनी ही शाखाएँ हैं यह कोई सोच नहीं सकता।
*(४) मनुस्मृति में वेदस्य का चौथा विशेषण दिया हैं - "(अप्रमेयस्य)" । इसका भाव यह हैं कि मीमांसा, पुराण आदि शास्त्रों की सहायता के बिना वेद के वास्तविक अर्थ का समझ पाना कठिन हैं।* मनुस्मृति ने उपसंहार करते समय भी वेद के स्वरूप का निर्देश किया हैं --> "( पितृदेवमनुष्याणां वेदश्चक्षुः सनातनम्। अशक्यं चाप्रमेयं च वेदशास्त्रमिति स्थितिः।।मनु १२/९४)"
यहाँ मनुस्मृति ने वेद के लिये "(अशक्यम्)" पद देकर इसकी अपौरुषेयता दिखलाया हैं अर्थात् किसी भी पुरुष के द्वारा  वेद शास्त्र का बनाना शक्य नहीं हैं - "(अशक्यं च वेदशास्त्रं कर्तुम्।। मन्वर्थमुक्तावली।।)" यहाँ "अप्रमेयम्" पद वही रखा गया हैं जो प्रारम्भ में १/३ में आया हैं। भाव भी वही हैं कि मीमांसा, पुराण आदि ग्रन्थों के बिना वेद का वास्तविक अर्थ समझा नहीं जा सकता। इसलिये वेदार्थ जानने के लिये मीमांसा, सूत्र, पुराण, निरुक्त, आदि वेदाङ्गों का उपयोग आवश्यक हैं --- "( ततश्च मीमांसा व्याकरणाद्यङ्गैश्च सर्वब्रह्मात्मकं  वेदार्थं जानीयात्।। मन्वर्थमुक्तावली।।)" मनुस्मृतिने प्रारम्भ में वेद के लिये "(विधान)" शब्द और उपसंहार में शास्त्र शब्द देकर एवं "(पितृदेवमनुष्याणां वेदश्चक्षुः सनातनम्।।।)" - यह कहकर व्यक्त कर दिया हैं कि वेद परमात्मा का वह शासन-विधान हैं जिसका उपयोग विश्व के प्रमुख-घटक देवता , पितर और मनुष्य निरन्तर करते रहते हैं। यही इन तीनों की आँख हैं। वेद के बिना न देवता कुछ देख सकते हैं न पितर, न मनुष्य। भगवान् के आज्ञास्वरूप इस शास्त्र उलङ्घन के भय से ही अग्नि तपता हैं, सूर्य तपता हैं तथा इसी के भय से इन्द्र, वायु और मृत्यु आदि देवता अपने कार्यों में एक क्षण का भी विलम्ब नहीं करते ।। कठोपनिषद् २/३/३१।।)" इस तरह सम्पूर्ण विश्व के संचालन करनेवाले शासन-विधान को क्या कोई मनुष्य बना सकता हैं  ? मनुष्य तो इतना अल्पज्ञ हैं कि वह समग्र देवताओं , समग्र पितरों को भी नहीं जान पाता। फिर उनके अनुरूप शासन-विधान कैसे बना सकता हैं ? इसी बात को मनुजी ने "(अशक्यम्)" पद से व्यक्त किया हैं। मनुस्मृति ने इस शासन-विधान को जैसे स्वयम्भू और सनातन(मनु १/३)कहा हैं, उसी तरह भगवान् को भी स्वयम्भू और सनातन कहा हैं।
सृष्टि नहीं रह जायगी फिर भी जैसे सनातन भगवान अपने स्वरूप में बने रहते हैं, वैसे उनका सनातन शासन-विधान भी प्रलय में अक्षुण्ण बना रहता हैं; क्योंकि यह उनका स्वरूप-भूत हैं। जब सृष्टि का अवसर आता है, तब भगवान् उस शासन-विधान का फिर से उपयोग करने लगते हैं। स्वयं तो भूत-सृष्टि (तत्त्वों की सृष्टि) कर दतें हैं और उसके बाद भौतिक सृष्टि चलाने का भार ब्रह्माजी पर सौंपते हैं। जबतक ब्रह्मा के पास भगवान् वेद को नहीं भेजते, तबतक ब्रह्मा सृष्टिकर्म में असमर्थ रहते हैं। तपस्या के द्वारा जब उनका हृदय सशक्त बन जाता हैं, तब भगवान् के द्वारा भेजे हुए वेद उनके हृदय में प्पतिफलित होकर उसी आनुपूर्वी और उसी स्वर के साथ उनके मुख से उच्चरित होने लगते हैं --- "( यो ब्रह्माणं वदधाति पूर्वं यो वै वेदांश्च प्रहिणोति०)" वेद के प्राप्त होनेपर सृष्टि का सारा रहस्य ब्रह्माजी को ज्ञात हो जाता हैं। फिर वे वेद के शब्दों की सहायता से पहली सृष्टि की तरह इस सृष्टि का भी उत्पादन प्रारम्भ कर देतें हैं।
"( सर्वेषां तु स नामानि कर्माणि च पृथक् पृथक् । वेदशब्देभ्य एवादौ पृथक् संस्थाश्च निर्ममे।। मनु १/२१।।) अर्थात् वेद के शब्दों से ही ब्रह्मा को ज्ञात हुआ कि इसके पहली सृष्टि में " *गोत्व-जाति - विशिष्ट व्यक्ति को "गौ" कहा जाता था, इसलिये इस सृष्टि में भी ब्रह्माजी ने गोत्वजातिविशिष्ट व्यक्ति को गो नाम दिया। इसी तरह अश्वत्वजाति विशिष्ट व्यक्ति को अश्व नाम दिया।* यदि वेद ब्रह्मा के पास नहीं आता तो ये कैसे जान पाते कि "गौ" को ही गौ कहा जाता हैं, अश्व, गर्दभ या कुक्कुर आदि को नहीं।
इसी तरह वेद ने ही ब्रह्मा को बताया कि इससे पूर्वकी सृष्टियों में ब्राह्मण का कर्म अध्ययनादि था, क्षत्रिय का कर्म प्रजारक्षण आदि था। इसलिये ब्रह्माजी ने इस सृष्टि के ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि के लिये वे वे कर्म निर्धारित किये। यदि वेद से ब्रह्मा को यह जानकारी नहीं मिलती तो कर्म का सांकर्य हो सकता था। वेद के प्राप्त होनेपर ही ब्रह्माने"( यथा पूर्वमकल्पयत्।। इस ऋग्वेदीयश्रुति को चरितार्थ किया। इसी तरह ब्रह्मा ने वेद के शब्दों के आधारपर ही सब के पृथक् पृथक् लौकिक अवस्थाएँ निर्धारित कीं। इस प्रकार स्मृतियों के उद्धरणों से पता चलता हैं कि वेद (१)अपौरुषेय हैं - अर्थात् वेद किसी मनुष्य की कृति नहीं हैं। (२) विश्वनियन्ता की आज्ञा हैं - अर्थात् विश्वनियन्ता का शासन-विधान हैं, जो इसी आनुपूर्वी और इसी स्वर में सदा ब्रह्मा के हृदय में प्रतिफलित होकर मुखों से उच्चरित होता हैं और परम्परा से हम को प्राप्त होता हैं। जो ब्राह्मण  अपनी शाखा की परम्परा तोड़ता हैं वह शाखारण्ड कहा जाता हैं।वह विश्वनियन्ता के शासन-विधान का घाती हैं। वह द्विजत्व से पतित होने के कारण से  बहिष्कार्य हैं  भले ही न वह अनेक गुणों से सभर-सज्जन भी क्यूँ न हो "(स शूद्रवद् बहिष्कार्यः सर्वकर्मसु साधुभिः।।वसिष्ठः।।)"
"व्याकरमहाभाष्ये महर्षि पतञ्जलिः --> एकशतमध्वर्युः शाखाः सहस्रवर्त्मा सामवेदः। एकविंशतिधा बह्वृचम् नवधाऽथर्वणो वेदः।।"
विषय -->> "#कलौमाध्यंदिनीशाखा उक्ति का तात्पर्य और उपलब्ध वेद-शाखाओं के संरक्षण का समुचित उपाय-->

जिस द्विजकुल में अपने वेद-शाखा की अध्ययन परम्परा लुप्त हो चुकी हो और अपनी वेद-शाखा का पता नहीं, वह पतित हो जातें हैं
(वैकल्पिक व्यवस्था)-अन्ततो अपनी वेदशाखा ढूँढने का प्रयत्न करना चाहिये...
(सनातनी शुद्ध सुरक्षित व्यवस्था )-अपना और अपने पुत्रों का स्व-वेदशाखा के अध्ययन से ही वेदशाखासंरक्षण संभव हैं - लुप्त हो जाने के बाद ढूंढते रहने से कोई मतलब ही नहीं, मिली तो ठिक हैं सद्भाग्य से आगे संभालना कर्तव्य हुआ, और न मिली तो ? ------श्रद्धा तो हैं पर शास्त्रोचित-कर्तव्यभान न होने के कारण अधिकतः समाज पतित हो जातें हैं...

स्ववेदशाखा रहित जनेऊ-संस्कार और परशाखा का प्रथम-अध्ययन व्यर्थ हैं... चाहे वह सज्जन भी क्यूँ न हो द्विजधर्मों के अधिकारों से परिष्कृत हैं --> " (यः स्वशाखां परित्यज्य परशाखां समाश्रयेत् । स शूद्रवद् बहिष्कार्यः सर्वकर्मसु *साधुभिः।।* वसिष्ठ।।)"

पृच्छक-- कलौ माद्ध्यन्दिनीशाखा की उक्ति  जैसे वचन क्या शास्त्रसम्मत हैं?

मार्गदर्शन--> यह वचन भविष्य में होनी वाली आपत्ति को सूचित करती हैं अतः सावधानी दर्शक हैं, अब विचार करें कि दूसरी वेदशाखा के द्विज अपनी शाखाके अध्ययनाध्यापन ही नहीं करेंगे और माध्यंदिनी की शाखानुसार स्वशाखोच्छेदन कर -- माध्यंदिनी ही ग्रहण करतें हैं तो -- जिसने अपनी माध्यंदिनी शाखा का अध्ययन द्वारा परम्परा बनाई रखी हैं उनसे भिन्न केवल काल्पनिक ही माध्यंदिनी को ग्रहण करेंगे... क्योंकि परशाखाश्रय तो शाखारंडदोष वाला हैं न इससे द्विजत्व की प्राप्ति होती हैं और न द्विजाधिकारों कि सिद्धि -  इसलिये सावधान हो जाईए.... 
परशाखाश्रयों कि गति देखिये --> (उच्छेता तस्य वंशस्य रौरवं नरकं व्रजेत् ||वीरमित्रोदय।।)

भिन्नशाखा का जनेऊ ही मान्य नहीं तो फिर द्विज का अधिकार ही कहाँ रहता हैं जबतक प्रायश्चित्त पूर्वक स्वशाखा  सम्मत जनेऊ-संस्कार न करवाये।

ये #सामूहिक_जनेऊ वालें --- और ज्यादा पाखंड कर  शाखाछेदन कर रहे हैं,, समूहजनेऊ के माणवक के पितादि अधिकारी नेतारों को पता नहीं कि अपनी शाखा का छेदन हो रहा हैं,,, कुलनाश की ओर स्वयं अज्ञान के कारण गमनशील हैं..

माणवक(बटु)के पिता को चाहिये कि अन्ततो प्रयत्न करकें भी अपनी शाखा के ही उपनयनकर्ता-आचार्य को ढूंढे,,,

यत्र तत्र तीर्थ आदि अनेक प्रदेशों में  घूमने जाते हैं,तब सभी द्विजाधिकारीयों को यह पता लगाना आवश्यक हैं कि अपनी स्वशाखा का आचार्य इस प्रदेश में, इस तीर्थ में,इस धरातल पर कहाँ हैं ? उसे प्रयत्न से ढूढने का प्रयत्न करना चाहिये - प्रयत्न करने पर क्या प्राप्त नहीं हो सकता इतना भी हमारा देश गिरा हुआ नहीं कि वर्तमान में उपलब्ध शाखा के वेदाध्ययन और कर्मकांड की परम्परा को संरक्षित करनेवाले आचार्य ढूँढ़ने पर न मिलें। जब मिल जाय तो उस स्वशाखीय आचार्य को विनम्रभाव से दैन्यतापूर्वक कहे कि आप ही हमारे कुल का उद्धार करने में सक्षम हो, अतः आप हमारे कुलाचार्य बने, हमारे सब संस्कार आदि आप ही आगे सम्पन्न कराते रहेगे। हमारे बालकों का वेदाध्ययन भी आप ही करवायेगे। इस प्रकार हमारी आलस्यता, प्रमाद को दूर करते हुएँ  हमारी गोत्रप्रदत्त परम्पराओं को शास्त्रदृष्टि से जानकर आचरण करें।
पुराणों में कहा कि कलियुग में द्विज ज्यादा पतित होगें तो क्या यह कलिलक्षण के अनुसार द्विजों को पतित बनना चाहिये ??
ऐसा नहीं !!!
वैदिकधर्म के रक्षण अध्ययन अध्यापन स्वशाखा के अनुसार न होने से ही कलियुग में ब्राह्मण - पतित होगें..
इसलिये वैदिकधर्म का --- म्लेच्छ प्रदत्त शिक्षाओं से दूर रहकर -- अपनी शाखानुसार ही जनेऊ-संस्कार और अध्ययन तथा शाखासम्बन्धित द्विजों को स्वशाखा का ही प्रथम अध्यापन करवाना चाहिये..

#ब्राह्मणोपयुक्त_स्वधर्म_के_पालन_से_ही_वेदों_का_
#सर्वतोपायेन_संरक्षण_सुरक्षित_हैं..

इतनी सारी वेदों की भिन्न भिन्न शाखाएँ थी, हमारे सभी ब्राह्मणों की स्वशाखा वेदाध्ययन में आलस्यता,प्रमाद और म्लेच्छ प्रवर्तित स्कुलों,कॉलेजो, उच्चदिशाहिनशीक्षा के परधर्म को  आचरण के कारण वे सभी शाखाओं में से कुछ ही आज उपलब्ध हैं, जो उपल्बध नहीं उनके लुप्त होने का  एक और एक कारण मात्र परधर्मी -ब्राह्मण ही हैं.. दूसरे कोई और नहीं..

यदि सभी ब्राह्मणों ने निष्कारण अपनी शाखा को अध्ययन करकें सुरक्षित रखी होती तो लुप्त होने का अवसर ही कहाँ से होता ?

केवल कर्मकांड करनेवाले की संतान नहीं अपितु समग्र विशुद्ध ब्राह्मणजाति व अनुलोम विवाह से उत्पन्न दो संतान मूर्द्धावसिक्त और अंबष्ठ को भी --  स्वधर्म के संरक्षण हेतु -- स्वशाखीय वेद, स्वयं यज्ञ को करना और दान देना यह मुख्य धर्म हैं, 

विशुद्धब्राह्मण यथा ब्राह्मण+ब्राह्मणी  से उत्पन्न पुत्र को सभी "अध्ययन,यज्ञ करना, दानदेना, अध्यापन करना, यज्ञकरवाना, और दान लेना -- ये षट्कर्मों में ही अपना जीवन व्यापन करना चाहिये --

ब्राह्मणपुरुष+क्षत्राणि से उत्पन्न " मूर्द्धावसिक्त-पुत्र को - भी स्वशाखाीय वेदाध्ययन, यज्ञ करना , दान देना यह अनिवार्य स्वधर्म हैं.. साथ में क्षात्रवृत्ति से आजिवीका चला सकता हैं --जैसे राजनिति,जर्ज,वकिलात,पुलिस,सेना आदि,, और गायों का संरक्षण भी..

ब्राह्मणपुरुष+वैश्या से उत्पन्न अंबष्टपुत्र को भी - स्वशाखीयवेदाध्ययन, यज्ञ करना, दान देना यह सब स्वधर्मकर्म अनिवार्य हैं.. साथ में वैश्य वृत्ति से आजिविका -- जैसे ,कृषिकर्म,वैद्यकर्म,चिकित्सा,गौ आदि पशुपालन,
वैद्य कर्म, व्यापर, वाणिज्य, बैंक, आयकर विभाग, अपण्यविक्रय के निषेध वाले पदार्थों को छोड़कर अन्य सामग्री का व्यापार अन्य जो व्यापार हैं उसमें निषेधविक्रय का ध्यान रखते हुए अपनी आजिवीका चला सकता हैं.....

फिर से पुनः पुनः कहना चाहतें हैं कि ब्राह्मण और ब्राह्मणी से उत्पन्न हुए विशुद्ध ब्राह्मणों को तो अनिवार्य ब्राह्मण के  छह कर्मों में ही तत्पर रहना चाहिये..

परंतु केवल परधर्म से ही प्रारंभिक शुरुआत -> म्लेच्छप्रवर्तिनी शिक्षा से नहीं करनी चाहिये । अनिवार्य जो निष्कारण स्वधर्म कहा उसके अनुसार प्राथमिक स्वगोत्र में जो वेद-शाखा होती हैं तदनुरूप अध्ययन होना आवश्यक हैं..तो ही जो कुछ बची हुई वेदशाखा हैं उसका संरक्षण होना सर्वतोपायेन संभव हैं अन्यथा नहीं ,,

अपनी ही शाखा का परिग्रह प्रमाणिक हैं इसके त्याग का ही दोष ब्राह्मण का पतित होना हैं। जिसकी शाखा लुप्त(अन्तर्हित)ही हो गई हो,,यथा वर्तमान में अनुपलब्ध हो, तो ही वह #तदज्ञाने स्वेच्छया स्ववेदस्य -- अपनी इच्छा से स्वगोत्र के वेद की किसी भी प्राप्तशाखा में -समग्रसंस्कार , यज्ञादिकर्म व अध्ययन कर सकता हैं-- जिसकी वर्तमान में स्वशाखा उपलब्ध हैं ,उन्हें तो अथाक प्रयत्न करके भी अपनी ही शाखा के संस्कार, अध्ययन और यज्ञादिकर्म को आचरना चाहिये -- "(यजनीयकल्पपरिग्रहे पूर्वपरिग्रहः प्रमाणम्। तत् त्यागे दोषः, तदज्ञाने (लुप्ते) स्वेच्छया (स्ववेदस्य ) परिग्रह इति।। भरद्वाजसूत्र।।

स्ववेदशाखा के अध्ययन की परम्परा जिसकी लुप्त होती हैं वह  पतित ब्राह्मण हो जाता हैं ,,,, आजकल तो कितनेक ब्राह्मणों को अपने गोत्र वेदशाखा का पता ही नहीं होता तो फिर ये अज्ञान के कारण किसी भी परशाखीय वेद का अनुसरण करना यह मूर्खता हैं , शाखारंड दोष में किएँ हुए धर्म कर्म किये न किये के समान ही हैं.. और विवाह में इसी अज्ञान के कारण यदि भूल से भी स्वगोत्र में विवाह हो गया तो मातृगमन पातक लग जायेगा...

अतः सावधान रहिये ---
परधर्म का त्याग किजिये -- परधर्मी ब्राह्मण पुच्छहिन पशुवत्  पृथ्वीपर का भार हैं -- "" (ते मृत्युलोके भुवि भारभूता, मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति । ।)"

किसीभी #वैदिकपाठशालाओं में शिष्यकी स्वशाखा का उच्छेद न हो इस पर ध्यान रखना पाठशालाओं के आचार्यों का दायित्व हैं।
यथा परशाखीय जिस शिष्य का जनेऊ हुआ हैं वह शिष्य द्विजत्व को प्राप्त नहीं हुआ यत्र-तत्र शास्त्रों ने ड़िंडिमघोष करके कहा हैं--> #स्वसूत्रोक्तविधानेन_सन्ध्यावन्दनमाचरेत्। #अन्यथा_यस्तु_कुरुते_आसुरीं_तनुमाप्नुयात्।। विश्वामित्र संहिता।।
#सन्ध्यातिक्रमणं_यस्य_सप्तरात्रमपिच्युतम्। #उन्माददोषयुक्तोपि_पुनः_संस्कार_मर्हति।।शौनकः।।

"(यच्छाखीयैस्तु संस्कारैः संस्कृतो ब्राह्मणो भवेत्।। तच्छाखाध्ययनं कार्यमन्यथा पतितो भवेत्।। वसिष्ठ।।" ///यो न मन्त्रैः स्वशाखोक्तैः संस्कृतोनाधिकारिणा नासौ द्विजत्वमाप्नोति पुनःसंस्करणं विना।। ज्योतिर्निबंध।। //// अक्रिया त्रिविधा प्रोक्ता विद्वद्भिः कर्मकारिणाम्। अक्रिया च परोक्ता च तृतीया चायथाक्रिया ।। छांदोग्य परिशिष्ट कात्यायन।।)"

इसलिये शिष्यों के उम्र का ध्यान रखते हुए व्रात्यता आदि के विचार पर ध्यान केन्द्रित कर उसको उनकी शाखामें ही पुनरुपनयन शिष्यकी शाखावाले आचार्यों के पास करवाकर-- शिष्यों को अपनी अपनी शाखा के  नित्यकर्म को स्वशाखीय वेदज्ञों से पढ़कर प्रवृत्त रहना चाहिये -- बाद में  

वेदाध्ययनविधायक वाक्य है –” *#स्वाध्यायोऽध्येतव्यः “–तैत्तिरीय आरण्यक –२/१५।।*

*स्वाध्याय –स्वश्चासौ अध्यायः ,#स्वस्य_अध्यायः–इस प्रकार कर्मधारय या षष्ठीतत्पुरुष करके स्वाध्याय का अर्थ हुआ –वेद,अध्येतव्यः –पढ़ना चाहिए ।लिड़्,लेट् ,लोट्, तव्यत् आदि विधान के लिए हैं । प्रकृत वाक्य से वेदाध्ययन का विधान किया गया है ।ध्यातव्य है कि स्वशाखा वेद ही है ।*

इसलिये  शिष्यों को परशाखा का प्रथम अध्यापन वर्ज्य हैं। उचित यह रहेगा कि जिसकी स्वशाखा का अध्यापन विद्यालय में हो रहा हो वही वेदशाखा पढाई जाय।

और जिसके लिए परशाखा होती  हैं -->उन्हें केवल व्याकरण ,साहित्य  तथा, स्मृतिग्रन्थ,पुराणोपपुराण विधिनिषेध आदि पढ़ाकर जब आचार सम्पन्न हो तब उन्हें उपदेश यह करना चाहिये कि अब आप अपनी शाखा का वेदाध्ययन करने के लिए अमुकगुरु या अमुकविद्यालय में जाओं।

किसी  ब्राह्मणकुमार को ब्रह्महत्यारा मत बनने दिजिये और ब्रह्महत्यासमान शाखोच्छेदन में भी स्वयं बोधक मत बनैं।
"(स्वीया शाखोज्झिता येन ब्रह्मतेजोऽर्थिना परम्। #ब्रह्महैव स विज्ञेयः सर्वकर्मसु #गर्हितः।।वसिष्ठ।।)"

Monday, 4 November 2019

किसी सम्बन्धि के मरने पर कब तक शुभ कार्य नहीं करने है

#प्रेतकृत्ये_प्रतिकूलता_निर्णय-
{यहाँ इस विषय में आशौच मांगलिक कार्यों को न करने में तथा वर्ष(सांवत्सरिकश्राद्धादि)कृत्य समय से पहिले न करने में हैं}=-->
पिता के मरणोपरान्त १वर्ष(३६० दिन), माता की मृत्यु में ६ मास(१८० दिन), स्त्री(पत्नी)की मृत्यु में ३मास(९०दिन), भाई और पुत्र की मृत्यु में देढ़मास(४५दिन) तथा दूसरे सपींड मनुष्यों का आशौच १ मास तक रहता हैं | कहे हुए आशौचावधि के पश्चात् शांति(विनायक शांति)को करके विवाहादि मांगलिक कार्य कर सकतें हैं ----> *(पितुरब्दमशौचं स्यात्तदर्धं मातुरेव च / मासत्रयं तु भार्यायास्तदर्धं भ्रातृपुत्रयोः// अन्येषां तु सपिण्डानाशौचं मासमीरितम् /तदन्ते शान्तिकं(वैनायकीं)कृत्वा ततो लग्नं(माङ्गलिककर्म)विधियते || स्मृति०रत्ना०||)*

ऐसे प्रतिकूल अवसरों के होनेपर भी एक महीने उपरान्त विनायकशान्ति करकें गोदान के बाद वाग्दान विवाहादि कार्य सम्पन्न करें ---> *(प्रतिकूलेपि कर्तव्यो विवाहो मासतः परः / शान्तिं(वैनायकीं)विधाय गां दत्वा वाग्दानादि चरेत् पुनः // ज्यो०प्रका०//)*

पिता की मृत्यु हो तो तीन ऋतुतक(६ मास) मंगलकार्य न करें,यदि बहुत से उपद्रव उठैं तो प्रतिकूल में भी (विनायक शान्ति) करकें मंगलकार्य को करें और सपिंड के प्रतिकूल में १ मास का त्याग करे बाद में (विनायक शांति) करके मंगल कार्य करें----> *(प्रतिकूलेपि न कर्तव्यो गच्छेद्यावदृतुत्रयम् / प्रतिकूलेपि कर्तव्यमित्याहुर्बहुविप्लवे //प्रतिकूले सपिण्डस्य मासमेकं विवर्जयेत् //मेधातिथिः//)*
दुर्भिक्ष, राष्ट्रभंग, माता-पिता के प्राणसंकट में प्रौढा़ कन्या के विवाह में अनुकुलता प्राप्त नहीं होती ----> *(दुर्भिक्षे राष्ट्रभंगे च पित्रोर्वा प्राणसंशये / प्रौढायामपि कन्यायां नानुकूल्यं प्रतीक्ष्यते //ज्यो०सा०//)*

तीन पुरुष पर्यन्त सगोत्रियों को प्रतिकूल होता हैं, इसी प्रकार प्रवेश,निष्क्रमण तथा चूडाकरण,यज्ञ आदि माङ्गलिक कार्यों में प्रतिकूलता रहती हैं | चतुर्थ मनुष्य पर्यन्त के प्रतिकूल में प्रेतकर्म(वर्षान्तक्रियायों -- प्रतिमासिक व सांवत्सरिकश्राद्ध)के किये बिना अभ्युदय कर्मों को नहीं करना चाहिये अतः पाँचवे पुरुष का प्रतिकूल नहीं रहता ----->
*(पुरुषत्रय पर्यन्तं प्रतिकूलं स्वगोत्रिणाम् / प्रवेशन्निर्गमस्तद्वत्तथा मण्डनमुण्डने// प्रेतकर्माण्यनिर्वर्त्य चरेन्नाभ्युदयक्रियाम् / आचतुर्थं ततः पुंसि पञ्चमे शुभदं भवेत् //मेधातिथिः//)*

कोई संकट(प्रतिकूल,प्राणसंशयादि) प्राप्त हो तो याज्ञवल्क्य ने कहा हैं कि विनायकशांति करने के बाद मांगलिक कार्यों को करें---> *( संकटे समनुप्राप्ते याज्ञवल्क्येन योगिना/ शान्तिरुक्ता गणेशस्य कृत्वा तां शुभमाचरेत् //मेधातिथिः//)* अतः वर्षान्तक्रियादि को {बारहवें मासके पूर्ण होनेपर त्रयोदशवे मासके प्रथम दिन अतः मृत्युतिथिपर (आब्दिक/सांवत्सरिक वा क्षयाहश्राद्ध)आदि तो उक्त समय में ही करना चाहिये... प्रतिकूलता रहे तो उक्त अवधि में  विनायकशांति करकें ही मांगलिक कार्यों को करना चाहिये पर वार्षिकक्रियाओं को समय से पहिले पूर्ण नहीं की जा सकती |

#अनिष्टानि--(वाग्दान) निश्चय करनेपर यदि (सपिंडों में से)किसीकी मृत्यु हो जाय तो विवाह न करैं, करने से कन्या #विधवा होती हैं -- *(कृते तु  निश्चये पश्चान्मृत्युर्भवति कस्यचित् / तदा न मङ्गलं कुर्यात् कृते वैधव्यमाप्नुयात्)*

वधू और वर के विवाह का निश्चय करने के बाद वधू अथवा वर के घर किसी मनुष्य की मृत्यु हो जाय तो उस समय में विवाह न करें---- *( वधूवरार्थं घटिते सुनिश्चिते वरस्य गेहेप्यथ कन्यकायाः/ मृत्युर्यदि स्यान्मनुजस्य कस्यचित्तदा न कार्यं खलु मङ्गलं बुधैः//मेधातिथिः//)* क्योंकि----> (सगाई)के निश्चय के बाद किसी सगोत्री मनुष्य की मृत्यु हो जाय तो विवाह करने से वह स्त्री वैधव्य को प्राप्त होती हैं --- *( कृते वाङ्गनिश्चये पश्चान्मृत्युर्मर्त्यस्य गोत्रिणः/ तदा न मंगलं कार्यं नारीवैधव्यदं ध्रुवम् //स्मृति चन्द्रिका//)*
वाग्दान के उपरान्त कन्या वा वर के कुल में मृत्यु हो जाय तो उस समय मंगल को न करें, कारण कि  वह कुल का नाशक होता हैं --> *(वाग्दानानन्तरं यत्र कुलयोः कस्यचिन्मृतिः/ तदोद्वाहो नैव कार्यः स्ववंशक्षयदो यतः //भृगुः//)*

वर-वधू,माता पिता,पितामह-पितामही आदि,मामा,चाचा, सगा भाई,चाची, चाचा का पुत्र,स्त्री(पत्नी),अविवाहिता बहन तथा विवाहित बहन आदि के मृत्यु पर विवाह में प्रतिकूलता (विघ्नप्रद)रहती हैं --> *(वरवध्वोः पिता माता पितृव्यश्च सहोदरः/ एतेषां प्रतिकूलं च महाविघ्नप्रदं भवेत्  / पिता पितामहश्चैव माता चैव पितामही // पितृव्यस्त्रीसुतो भ्राता भगिनी चाविवाहिता/एभिरत्र विपन्नैश्च प्रतिकूलं बुधैः स्मृतम् //अन्यैरपि विपन्नैस्तु केचिदूचुर्न तद्भवेत् //शौनकः//)*

वाग्दान के बाद माता वा भाई की मृत्यु हो जाय तो अपने वंश के हित की इच्छावाला विवाह न करे,एकवर्ष के बाद करें ----> *(वाग्दानानन्तरं यत्र कुलयोः कस्यचिन्मृतिः/ तदा संवत्सरादूर्ध्वं विवाहः शुभदो भवेत् //मेधातिथिः//)*
अतः प्रतिकूलतानुसार विवाह को उपर कही अवधीयों तक त्याग करना चाहिये... संकट में कही हुई अवधि के बाद  विनायकशांति करकें मांगलिक कार्य को करें परंतु वार्षिकक्रियाएँ तो उचित समय में ही होनी चाहिये...

ॐस्वस्ति || पु ह शास्त्री उमरेठ ||

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'ज्ञ' वर्ण के उच्चारण पर शास्त्रीय दृष्टि- संस्कृत भाषा मेँ उच्चारण की शुद्धता का अत्यधिक महत्त्व है। शिक्षा व व्याकरण के ग्रंथोँ म...