Friday, 24 May 2019

सामवेदीय कौथुमी शाखायां वैश्वदेवम्

*सामवेदीय कौथुमी शाखायां वैश्वदेवम्।।
आचम्य प्राणानायम्य
( संकल्पः)- देशकालाद्यनुसरतः __मासे_पक्षे_तिथौ_वासरे _गोत्रोत्पन्नः__शर्माहं तत्सत्श्री परमेश्वर प्रीतये नित्यविधिरूपं वैश्वदेवाख्यं कर्माहं करिष्ये।।
कुंड वा स्थंडिल में भूमि के संस्कार करें -
१- तीनकुशों के अग्रभाग से कुंडमध्य पश्चिमसे पूर्वतक गोल घूमाकर कुंड की भूमिस्थ जगह को तीन-तीनवार साफ करें ✍️ *(त्रिभिर्कुशैः त्रिवारं संमृज्य)*
२- चित्र में बतायें अनुसार कुशमूल से कुंडमध्य की जमीनस्थ जगह पर दक्षिण की ओर नीचे(पश्चिम)से पूर्व की ओर एक रेखा खींचे ✍️ *( कुशमूलेन प्राग्गतां लेखां)*-----
३- पहली रेखा के मूल से लेकर उत्तर(बाईं)की ओर दूसरी रेखा खींचे ✍️ *(तन्मूल लग्नां उदग्दिग्गतां द्वितीयां उल्लिख्य।।)*
४- पहली जो रेखा खींची थी उनकी बाईं ओर उत्तर में एक एक ऐसे तीन रेखायें और खींचे ✍️ *( प्रथम रेखायाः उत्तरस्यां प्रादेशमात्राः तिस्रः रेखाः कुर्यात्।।)*
५- जिस प्रकार क्रम से रेखायें खींची गईं उसी क्रम से प्रतिरेखा के खींचने से जो मिट्टी या धूली बीखरगईं ( या रेखा की आजुबाजू फैलगईं) उसको प्रत्येक रेखा के क्रम से अनामिका और अंगूठे के योग से लेकर कुंड की बहार ईशानकोने में फैंक दे ✍️ *( उल्लेखन क्रमेण अनामिकांगुष्ठाभ्यां पांसून्नीत्वा ऐशान्यां प्रदेशे निक्षिपेत्।।)*
६- हाथ में जल लेकर छते हाथ से कुंड में खींची गई रेखाओं पर जल छिंड़के ✍️ *( जलेन ताः अभ्युक्ष्य)*
७- पूर्ववत् तीनकुशों से कुंड को साफ करें ✍️ *(कुशैः परिसमुह्य)*
८- गोबरयुक्त जल से कुंडमध्य पश्चिम से पूर्वकी ओर गोल हाथ घूमाकर तीनवार लेपन करें ✍️ *( गोमयोदकाभ्यां उपलिप्य)*
९- कुश मूल से कुंड मध्य दक्षिण से उत्तर की तरफ क्रम से तीन रेखायें ।।। खींचे
✍️ *(तिस्रः रेखाः उल्लिख्य)*
१०-  खींची हुईं रेखाओं में से निकली मिट्टी को अनामिका और अंगूठे के योग से लेकर कुंड बहार फैंक दे ✍️ *( उद्धृत्य)*
११- छते हाथ प्रत्येक रेखाओं पर क्रम से जल छिंडके ✍️ *( प्रतिलेखासु क्रमेण उदकेनाभ्युक्ष्य)*
विनियोग पढकर, गृहचूल्लीसे वा अपने हाथों से प्रकटाया हुआ अग्नि किसी पात्र में लेकर कुंडपर प्रदक्षिणरिति से तीनवार गोल घूमाकर मंत्र पढ़ने के बाद कुंड की पश्चिमदिशा से कुंड में अग्निस्थापन करें ✍️
(प्रणवस्य परब्रह्मऋषिः दैवीगायत्रीछंदः परमात्मादेवता। समस्त व्याहृतिनां प्रजापतिर्ऋषि बृहतीछंदः प्रजापतिर्देवता अग्निप्रतिष्ठापने विनियोगः - *//मंत्रः//- ॐभूर्भुवःस्वरोम्।।* इत्यग्निं प्रतिष्ठाप्य।।
छोटीं सुखी लकड़ीयां अथवा गोबरकंडे के टूकडों पर जल छिंडककर पवित्र करने के बाद अग्निमें रखकर जबतक धूँआँ निकलना बंध न हो जाय ऐसा शुद्ध पवित्रलौ वाले अग्नि को प्रदिप्त करें ✍️ *(प्रोक्षितेंधनानि निक्षिप्य, अग्निमुखं कृत्वा)*
विनियोग पढ़कर अक्षत से अग्निका मंत्रपढ़ के आवाहन करें -- ✍️ अग्न आयाहीति गौतमऋषिः गायत्रीछंदः अग्निर्देवता आवाहने विनियोगः *(//मंत्रः//- ॐ अग्न आयाहि वीतये गृणानो हव्यदातये। निहोता सत्सिबर्हिषि।।)*
नमस्कार करें -
"(अग्ने वैश्वानर शांडिल्य गोत्र शांडिल्य असितदेवलेति त्रिप्रवरान्वित भूमिमातः वरुण पितः मेषध्वज प्राङ्गमुख मम संमुखो भव )"
अग्नि के स्वरूप का मनन करतें हुएँ ध्यान करें -
"(ध्यानम्- अग्निं प्रज्वलितं वंदे० रुद्रतेजः समुद्भूतं द्विमूर्द्धानं त्रिनासिकम्| षण्नेत्रं च चतुः श्रोत्रं त्रिपादं सप्तहस्तकम्||याम्यभागे चतुर्हस्तं सव्यभागे त्रिहस्तकम्|स्रुवं स्रुचं च शक्तिं च अक्षमालां च दक्षिणे||तोमरं व्यजनं चैव घृतपात्रं च वामके| बिभ्रतं सप्तभिर्हस्तैः द्विमुखं सप्तजिह्वकम्|| दक्षिणे च चतुर्जिह्वं त्रिजिह्वमुत्तरं मुखम्| कोटिद्वादश मूर्त्याख्यं द्विपञ्चाशत्कलायुतम्|| स्वाहा स्वधा वषट्कारैरंकितं मेषवाहनम्|रक्तमाल्याम्बरधरं रक्तपद्मासनस्थितम्||त्वं मुखं सर्व देवानां सप्तार्चिरमितद्युते|आगच्छ भगवन्नग्ने यज्ञे$स्मिन् संनिधो भव||सर्वतः पाणिपादान्तः सर्वतोक्षिशिरोमुखम्| विश्वरूपो महानग्निः प्रणितः सर्वकर्मसु||)"
अग्नि नारायण की गंधाक्षत से पूजा करें - ॐपावकाग्नये  नमः सर्वोपचारार्थे गंधाक्षतान् समर्पयामि। नमस्कार - मुखं यः सर्वदेवानां हव्यभुक् कव्यभुक् तथा। पितृणां च नमस्तस्मै नमस्ते पावकात्मने।।
१२अंगुल के घृतयुक्ततीनकुशों को लेकर खड़े होकर दायें हाथ से कुशमूल और कुशमध्य के भाग से पकड़कर (>>>>===०==)अग्निमें समर्पित करें - "(तिष्ठन् समिद्धः अभ्याधाय)"
प्रसेचनम् --दायें हाथमें जल लेकर बाये हाथसे दाये हाथके मणिबंधका स्पर्श करते हुए  कुंड(अग्नि) की दक्षिण दिशामें नैर्ऋत्यसे अग्निकोण पर्यन्त जलधारा करैं -
जलं हस्तद्वयेनादाय अग्नेर्दक्षिणतः   
*(ॐअदितेऽनुमन्यस्व(गो०गृ०१-३-१)इति प्रसिञ्च्य..)*
पुनः जलसे पश्चिममें नैर्ऋत्यसे वायव्य कोणतक जलधारा-
पश्चात् *(ॐअनुमतेऽनुमन्यस्व|गो०गृ० १-३-२)*
पुनः तीसरी बार जलसे उत्तरमें वायव्यसे ईशानकोण तक जलधारा
*(उत्तरतः ---ॐसरस्वत्यनुमन्यस्व|गो०गृ१-३-३ )*
ततो हस्तेन जलमादाय देवसवितरिति प्रजापति स्त्रिष्टुप् सविता पर्युक्षणे विनियोगः
पर्युक्षणम्- दायें हाथमें थोडा जल लेकर कुंड( अग्नि) की बहारी सीमामें ईशान कोणसे ईशान कोणपर्यन्त वैसे पर्युक्षणकी तीन जलधारा देवें.
ॐदेव सवितः प्रसुव यज्ञं प्रसुव यज्ञपतिं भगाय| दिव्यो गन्धर्वः केतपूः केतं नः पुनातु वाचस्पतिर्वाचं नः स्वदतु| मं०ब्रा१-१-१ एवं प्रदक्षिणमग्निं सकृत् त्रिर्वा पर्युक्ष्य ।।
गायत्रीमंत्र से जल छिंडककर - पकाई हुई भात, कच्चे चावल, अथवा उपवास के दिन फल के टुकडों,अथवा केवल घृत से , अथवा पुष्प,पत्र या कुशटुंकडो़ से होम करें -- अग्नि के मध्य मनमें मंत्र पढ़कर "(१ॐप्रजापतये स्वाहा - इदं प्रजापतये न मम /२ ॐ अग्नये स्विष्टकृते स्वाहा- इदमग्नये स्विष्टकृते न मम।।)"
पुनः- १२अंगुल के घृतयुक्ततीनकुशों को लेकर खड़े होकर दायें हाथ से कुशमूल और कुशमध्य के भाग से पकड़कर (>>>>===०==)अग्निमें समर्पित करें - "(तिष्ठन् समिद्धः अभ्याधाय)"
प्रसेचनम् --दायें हाथमें जल लेकर बाये हाथसे दाये हाथके मणिबंधका स्पर्श करते हुए  कुंड(अग्नि) की दक्षिण दिशामें नैर्ऋत्यसे अग्निकोण पर्यन्त जलधारा करैं -
जलं हस्तद्वयेनादाय अग्नेर्दक्षिणतः   
*(ॐअदितेऽनुमन्यस्व(गो०गृ०१-३-१)इति प्रसिञ्च्य..)*
पुनः जलसे पश्चिममें नैर्ऋत्यसे वायव्य कोणतक जलधारा-
पश्चात् *(ॐअनुमतेऽनुमन्यस्व|गो०गृ० १-३-२)*
पुनः तीसरी बार जलसे उत्तरमें वायव्यसे ईशानकोण तक जलधारा
*(उत्तरतः ---ॐसरस्वत्यनुमन्यस्व|गो०गृ१-३-३ )*
ततो हस्तेन जलमादाय देवसवितरिति प्रजापति स्त्रिष्टुप् सविता पर्युक्षणे विनियोगः
पर्युक्षणम्- दायें हाथमें थोडा जल लेकर कुंड( अग्नि) की बहारी सीमामें ईशान कोणसे ईशान कोणपर्यन्त वैसे पर्युक्षणकी तीन जलधारा देवें.
ॐदेव सवितः प्रसुव यज्ञं प्रसुव यज्ञपतिं भगाय| दिव्यो गन्धर्वः केतपूः केतं नः पुनातु वाचस्पतिर्वाचं नः स्वदतु| मं०ब्रा१-१-१ एवं प्रदक्षिणमग्निं सकृत् त्रिर्वा पर्युक्ष्य ।।
कुंड की समीप साफसुथरी जगह में जमीनपर दायें हाथसे जल लेकर पूर्वकी ओर लंबी जलधारा करेंं - !
"(कुण्डसमीपे संमार्जनादि संस्कृते भूप्रदेशे दक्षिणहस्तेन जलमादाय प्राक्संस्थंधारां दत्वा)" अन्नमादाय
हुतशेषेण बलिदानम् - होम से बची हुई भात, अन्न,फल,कुश,जल आदि किसी एक से - देवतीर्थ से बलिदान बैरके समान ग्रास लेकर उस जलधारा वाली जगह पर रखें -
नीचे से ऊपर की ओर (पश्चिम से पूर्वकी)पंक्ति में
"(ॐ पृथिव्यै नम -इदं पृथिव्यै न मम। तत् पूर्वस्यां - ॐवायवे नम इदं वायवे न मम। ॐविश्वेभ्यो देवेभ्यो नम इदं विश्वेभ्योदेवेभ्यो न मम। मनमें पढ़कर ---ॐप्रजापतये नम इदं प्रजापतये न मम।।)"
चार बलिदान देकर उस चारों बलिपर फिरसे जलधारा करें
"(तदुपरि जलं सिञ्चेत्)"
इन चारों बलिदान की बाईं ओर जल से लंबी धारा करकें उस पर एकपंक्ति में दूसरी चार बलि "कामाय" तक की
"(ॐ अद्भ्यो नम इदं अद्भ्यो न मम। ॐओषधिवनस्पतिभ्यो नम इदं ओषधिवनस्पतिभ्यो न मम। ॐ आकाशाय नम इदं आकाशाय न मम। ॐ कामाय नम इदं कामाय न मम।)"
फिर इन चारों पर जलधारा करकें इनकी बाजू में बाईं और जलधारा करकें "ब्रह्मणे" तक
"(ॐमन्यवे नम इदं मन्यवे न मम। ॐ इन्द्राय नम इदं इन्द्राय न मम। ॐवासुकये नम इदं वासुकये न मम। ॐब्रह्मणे नम इदं ब्रह्मणे न मम।)"
इन चारों पर जलधारा करकें इन की बाईं बाजू में जलधारा करकें वहाँ "(ॐरक्षोजनेभ्यो नम इदं रक्षोजनेभ्यो न मम)" इस पर जल गिराकर
अपसव्य(=जनेऊ को बायें हाथ से पकड़ के दायें कंधेपर करतें सावधानी से बायाँ हाथ जनेऊ के अंदर करके) दायाँ पैर पीछे मोड़कर घूँहटन जमीनको छूएँ ऐसे बैठकर पितृतीर्थ=(तर्जनी और अंगुठे की मध्य की जगह से) जल गिरायें - उसपर पीतृतीर्थ से "(ॐ पितृभ्यः स्वधा -इदं पितृभ्यो न मम ।। )" मंत्र से बलिदान देकर उसपर भी पितृतीर्थ से जल गिराये
जनेऊ यथावत् करकें सब से उत्तर में सब बलिदान से उत्तर में जलधारा दैं - वहाँ (गेहूँ,यव,अक्षत,खील,या भात) किसी १ की ही बलि लगेगी
गेहूँ या यव हो तो -> ॐयवेभ्यो नम इदं यवेभ्यो न मम।।
और अक्षत,भात या खील हो तों - ॐव्रीहिभ्यो नम इदं व्रीहिभ्यो न मम।।
अग्नि नारायण की गंधाक्षत से पूजा करें - यज्ञरूपी परमेश्वराय नमः सर्वोपचारार्थे गंधाक्षतान् समर्पयामि।
नमस्कार करें --
आरोग्यमायुरैश्वर्यं -- आदि श्लोक से प्रार्थना करे --> आरोग्यमायुरैश्वर्यं धीर्धृति शं बलं य्यशः। ओजो वर्चः पशून् वीर्यं ब्रह्म ब्राह्मण्यमेव च। सौभाग्यं कर्मसिद्धिं च कुलज्यैष्ठ्यं सुकर्तृताम्।।
भस्मधारण करें, (श्रद्धां मेधां यशः प्रज्ञां विद्यां बुद्धिं श्रियं बलम्। आयुष्यन्तेजमारोग्यं देहि मे हव्यवाहन।।)
संकल्प -- अनेन वैश्वदेवकर्मणा कृतेन यज्ञरूपी परमेश्वरः प्रीयतां न मम।।
अभिवादन करें -- ___गोत्रोत्पन्नः___शर्माहं भो वैश्वानर त्वां अभिवादयामि।
अक्षत से विसर्जन करें -- "(भो भो वह्ने महाशक्ते सर्वकर्मप्रसाधक। कर्मान्तरेपि सम्प्राप्ते सान्निध्यं कुरु सादरम्।।

यदि भाग्य से सत्पात्रब्राह्मण अतिथिरूप में प्राप्त हो जाय तो -- पाद्यार्घ्य(चरण प्रक्षालन करना,अर्घ्य देना)गंध आदि से पूजन कर तृप्तिपर्यन्त भोजन करायें - घृताक्त भोजन परौंसकर
जनेऊ कंठ में माला की तरह करकें संकल्प करें -- निवीती "( इदं अन्नादि यद्दत्तं तृप्तिपर्यन्तं दास्यमानं च  सनकादिमनुष्येभ्यो हंत - न मम।।)"

अथवा -- अतिथि प्राप्त न हो तो -  बलि मंडल में ही निवीती(गले में माला की तरह जनेऊ करकें)होकर  जमीनपर जल रखकर वहाँ ही चार वा एकग्रास मात्रा में उत्तराभिमुख होकर प्राजापत्यतीर्थ से बलि रखें -- "(जलमासिच्य -- सनकादिमनुष्येभ्यो हन्त - इदं सनकादिमनुष्येभ्यो न मम।।)" बलिपर जल छिंडकें - "(तदुपरि जलमासिच्य)"

गाय को गोग्रास - इदमन्नं गवे न मम ।।
चिंटींयों को ग्रास - इदमन्नं सर्वभूतेभ्यो न मम।।

कौओं को - "(ऐन्द्रवारुणवायव्या याम्या वै नैर्ऋतस्तथा । वायसाः प्रतिगृह्णंतु भूमौ पिण्डं मयार्पितम्।। इद वायसेभ्यो न मम।।

श्वान को - इदमन्नं श्वानाय न मम।।

हाथ पैर धोकर, बालकों, घर के सदस्यों आदि को पहिले भोजन करायें, बाद में पति-पत्नी को करना चाहिये।

यस्यस्मृत्या च नामोक्त्या तपोयज्ञक्रियादिषु। न्यूनंसम्पूर्णतां याति सद्यो वन्दे तमच्युतम्।।

ॐतत्सत् श्री परमेश्वरः प्रीयताम्।।

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