Tuesday, 4 December 2018

व्रत के सामान्य नियम

#व्रतधर्माः->#किसीभी_व्रतमें_पालनीय_सामान्य_नीयमों~~>  {गृहित्वौदुम्बरं(=ताम्रमयम् - विश्वकोशे) पात्रं वारिपूर्णमनदङ्गमुखः || उपवासं तु गृह्णीयाद्यद्वा संकल्पयेद्बुधः ||महाभारते|| }
किसी भी व्रत के संकल्पकी विधि महाभारत में लिखी हैं कि, हाथ में भरा भराया ताँबे का पात्र लेकर उत्तर दिशा की ओर मुख कर संकल्प करके उपवास को ग्रहण करना चाहिये | यदि रात का कोई उपवास करना हो तो उसमें भी इसी प्रकार संकल्प करना चाहिये...|
{ताम्रपात्राद्यभावे हस्तेनापि जलं गृहित्वा संकल्पयेदित्युक्तम् | मदनरत्ने तु यथा संकल्पयेदिति पाठः | यथा कामफलमुल्लिखेदित्यर्थः ||}
यदि ताँबे का पात्र न मिले तो हाथ में ही पानी लेकर संकल्प कर लेना चाहिए | मदनकारने "यथा संकल्पयेत् " ऐसा पाठ लिखा हैं, इसका तात्पर्य यह हैं कि जैसी कामना हो उसको कहकर संकल्प करना चाहिये |
{अभुक्त्वा प्रातराहारं स्नात्वाऽऽचम्य समाहितः | सूर्याय देवताभ्यश्च निवेद्य व्रतमाचरेत् ||मदनरत्ने देवलः||} संकल्प के बाद के कृत्य-> मदनरत्न में देवल ने कहा है कि, बिना भोजन किये एवम् स्नान आदिसे निवृत्त होकर एकाग्रवृत्ति करके भगवान् सूर्यनारायण तथा अन्य देवताओं के लिए नमस्कार कर प्रातःकाल व्रतका संकल्प करके व्रत को ग्रहण करना चाहिये |
{टीका- अत्र प्रातर्व्रतमाचरेदित्येवान्वयः | प्रधानक्रियान्वयस्याभ्यर्हितत्वात् | अभुक्तत्वेति त्वशक्तस्याभ्यनुज्ञातेक्ष्वादि भक्षणापवादः | }
उपरोक्त श्लोक में "प्रातर्व्रतमाचरेत्" ऐसा अन्वय होता हैं, क्योंकि प्रधान क्रिया के साथ अन्वय होना अच्छा समझा गया हैं,तब  सबका अर्थ होता हैं कि प्रातःकाल से व्रत को करना चाहिये | "अभुक्त्वा" यह जो पद श्लोक में हैं इसका तात्पर्य यही होता हैं कि ---अशक्त पुरुष ! भले ही कही हुई गन्नेकी गड़ेली आदि चूस ले पर प्रातः यह भी न होना चाहिये - यथार्थ उपवास कुछ भी खाये पीये बिना ही संकल्प कर व्रत आरंभ करना हैं |
लोकोपवाद->{अन्येतु- पूर्वदिने प्रतिदिने प्रातराहारमभुक्त्वा अर्थादेकभक्तं कृत्वोत्तरदिन स्नात्वाचम्य व्रतादिकं कुर्यादित्याहुः | परेतु, सर्वत्र पूर्वेद्युरेव सायं संध्योत्तर व्रतं ग्राह्यम् , वारव्रतादौ बहुशस्तया दृष्टत्वात् | प्रातः स्नात्वेति चान्वय इत्याहुः || }
कोई कोई तो पहिले दिन प्रातःकाल भोजन न करके अर्थात् एकभक्त (एकबार का भोजन), यानी एकवार सायंकाल को ही भोजन कर दूसरे दिन स्नानादि तथा आचमन करके व्रतादिकोंको करना चाहिये; ऐसा कहतें हैं | दूसरे कोई कोई तो सब व्रतों में पहले दिन सायंकालकी सन्ध्याके बाद व्रत ग्रहण करना चाहिये क्योंकि वारोंके व्रतादिकों में ऐसा अनेकबार देखा गया हैं कि ऐसा ही कहतें हैं | परन्तु इस मत में मदन रत्न के श्लोकके "प्रातः" पद का अन्वय "स्नात्वा" के साथ होगा जिसका यह अर्थ होगा कि "प्रातःकाल" स्नान करके व्रतादि का ग्रहण करना चाहिये | पहिले दिन ->एकभुक्त और संध्याके बाद भी नहीं |
व्रत के अधिकारिका निर्णय- >{ निजवर्णाश्रमाचार नियतः शुद्धमानसः | अलुब्धः सत्यवादी च सर्वभूतहिते रतः ||व्रतेष्वधिकृतो राजन्नन्यथा विफलश्रमः || श्रद्धावान्पापभीरुश्च मददम्भविवर्जितः | पूर्वम् निश्चयमाश्रित्य यथावत्कर्मकारकः || अ वेदानिन्दकोभीमानधिकारी व्रतादिषु ||स्कान्दे || }
जो पुरुष अपने वर्ण और आश्रम के आचार में लगा रहता हो,शुद्ध मनका हो,लोलुप न हो सत्य बोलनेवाला हो, सब प्राणियों के कल्याण में लगा रहता हो उसका ही व्रतों में अधिकार हैं,/*****नहीं तो व्यर्थ का ही परिश्रम हैं***/ जो पुरुष श्रद्धालु हैं जिसे पापों से डर लगता हैं, जिसके मद और दंभ दोनों नहीं हैं, तथा जो पहिले निश्चय करके उसीके अनुसार करनेवाला हैं,जो वेद की निन्दा नहीं करता तथा जो बुद्धिमान(विवेकी= शास्त्र की दृष्टि से सत्य असत्य को जाननेवाला) हैं, उसका सब व्रतों में अधिकार हैं || यहाँ जो अपने अपने वर्णों और  आश्रम के आचार में सदा लगे रहनेवाले कहा हैं इससे प्रतीत होता हैं कि व्रतों में चारों वर्ण का अधिकार हैं..
{व्रतोपवास नियमैः शरीरोत्तापनैस्तथा | वर्णाः सर्वे विमुच्यन्ते पातकेभ्यो न संशयः ||देवलः||} देवल ने कहा हैं कि-- सभी वर्ण के लोग व्रत उपवास नियम और कायक्लेश के तपों के करने से पापों से छूट जाते हैं इसमें कोई सन्देह नहीं हैं | {अत्राधिकारि विशेषणस्य पुंस्त्वस्याविवक्षितत्वात्स्त्रीणामप्यधिकारः--- भारते @मामुपाश्रित्य कौन्तेय येऽपि स्युः पापयोनयः | स्त्रियोवैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परांगतिम् || } उपर कहैं वचनों में अधिकारियों के प्रति पुंल्लिग के शब्दों का प्रयोग किया हैं वह "विवक्षित" नहीं हैं क्योंकि इससे पहिले कहे हुए "पुरुषोंके" अनुसार जो गुण कहैं हैं यदि स्त्रियों में हों तो वे भी व्रत करने की अधिकारिणी हैं, महाभारत में कहा हैं कि कौन्तेय ! जो पाप योनियों में पैदा हुए जीव भी हैं तथा जो स्त्री, वैश्य और शुद्र हैं वे सब मेरी उपासना करके परमगति को पा जाते हैं |

@मा०पुराणे-> या नारी ह्यननुज्ञाता भर्त्रा पित्रा सुतेन वा | निष्फलं तु भवेत्तस्या यत्करोति व्रतादिकम् ||भर्त्राज्ञया सर्वव्रतेष्वधिकारः || मदनरत्न में मा०पुराण के वचन से -- जिस स्त्री को पति पिता और पुत्र से व्रत करने की आज्ञा नहीं मिली हो यदि वह व्रतादि करेगी तो वे व्रतादि उसको फल देनेवाले नहीं होंगे | प्रथमाधिकार पति का हैं सो पति की आज्ञा से सभी व्रतों को कर सकतीं हैं, पति के न होने पर पुत्र की आज्ञा से व्रत करें, अविवाहिता कन्या पिता की आज्ञा से व्रत करें |
@नारी खल्वननुज्ञाता भर्त्रा पित्रा सुतेन वा | विफलं तद्भवेत्तस्या यत्करोत्यौर्ध्वदेहिकम् ||मार्कण्डेय || पित्राद्याज्ञया तस्या अधिकार इति हेमाद्रिः || मार्कण्डेय जी के वचन से कहा हैं कि जो स्त्री विना पतिकी आज्ञा तथा पुत्र और पिता के पूछे परलोक के कार्य करती हैं वे सब उसके निष्फल होतें हैं इस वचन से पति के अभाव में पिता,भाई या पुत्र आदि से पूछ कर व्रतादि कर सकती हैं | ऋग्वेद -> #अघोरचक्षुरपतिघ्नेधि  ||१०/८५/४४।।
में कहा हैं कि हे कन्ये ! तुम "अपतिघ्नी" अर्थात् पति के यश आदि का नाश करने वाली मत हो, (देवान् अग्र्यादीन् पूजार्थे कामयति इच्छतीति) अर्थात् देवताओं में तथा पितरों में श्रद्धावाली हो | हेमाद्रौ हरिवंशे- > स्नानं च कार्यम् शिरसस्ततः फलमवाप्नुयात् | स्नात्वा स्त्री प्रातरुत्थाय पतिं विज्ञापयेत्सती || स्त्री जब कोई व्रत करना चाहती हो तो उन स्त्रियों को चाहिये कि,शिर समेत स्नान करके पीछे पतिदेव की आज्ञा प्राप्त करके व्रत करें | तब वो उस व्रत के फल को पा सकेगी अन्यथा नहीं |
@क्षमा सत्यं दया दानं शौचमिन्द्रियनिग्रहः | देवपूजाग्निहवनं सन्तोषः स्तेयवर्जनम् || हेमाद्रौ भविष्ये || क्षमा, सत्य,दया, दान , पवित्रता, इन्द्रिय निग्रह, देवपूजा, अग्निहवन, सन्तोष, अस्तेय यह दश तरह के नियम सामान्य सब व्रतों में पालन करना चाहिये..| श्लोक अनुसार जिस व्रत के जो देवता हो, उनका पूजन और हवन होना चाहिये.. | हवन करवाने पतिके साथ रहकर हवन सम्पन्न करें | @अनुक्तदेवताव्रते इष्टदेवता पूजा | हवनं विहितानां व्याहृतिहोम इति ||व्रतराजे|| जिस व्रत का कोई देवता ही न कहा गया हो उसमें अपने इष्ट देवकी पूजा और "व्याहृति(भूर्भुवःस्वः)पुराणोक्त में -- (प्रजापतये--- क्योंकि ""समस्तव्याहृतिनां प्रजापतिर्ऋषिः प्रजापतिर्बृहती आदि ऋष्यादि कहैं है) से हवन होना चाहिये | @{सर्वव्रतेष्वित्यत्र सर्वव्रतपदे भविष्यपुराणोक्त सर्वव्रतपरमतो व्रतान्तरे विध्यन्तरसत्वे एव होमादीनामङ्गत्वम् नान्यथा || } श्लोक में "सर्वव्रतेषु" यह जो पद अया है जिसका "सब व्रतो में" ऐसा अर्थ किया गया हैं इसमें जो व्रत भविष्य-पुराण के कहे हुए हो उन्ही में ही "होम" आदि की विधि हैं, सभी में नहीं इसलिए व्रत करने से पहले कौनसे पुराणसे है वह निश्चय करकें व्रत करें |
@{स्नात्वा व्रतवता सर्वव्रतेषु व्रतमूर्तयः | पूज्याः सुवर्णमय्याद्याः शक्त्यैता भूमिशायिना || जपो होमश्च सामान्यां व्रतान्ते दानमेव च | चतुर्विंशद्वादश वा पञ्च वा त्रय एव वा || विप्राः पूज्या यथाशक्ति तेभ्यो दद्याच्च दक्षिणाम् || पृथ्वीचन्द्रोदये अग्निपु०|| }
व्रत के समय में भूमिपर शयन करनेवाले व्रती को सब व्रतो में स्नान के बाद शक्ति अनुसार सोने आदि की बनाई हुई व्रतके देवता की मूर्ति का पूजन करे फिर सामान्य अथवा (कहे अनुसार) जप,होम करना चाहिये व्रत के अन्त में दान भी देना चाहिये | शक्ति के अनुसार (अथवा व्रत में कहे अनुसार) चौवीस, बारह, पाँच या तीन ब्राह्मणों को भोजन करा,उन्हें दक्षिणा देनी चाहिये |  ब्रह्म वैर्तर्त पुराण में तो दिन में ही सोने से अनिष्ट कहा हैं | ----->
{दिवसे सन्ध्ययोर्निद्रां स्त्री सम्भोगं करोति यः | सप्तजन्म भवेद्रोगी दरिद्रः सप्तजन्मसु ||}  सात जन्मों तक रोगी और दरिद्रता का फल हैं | ऐसे महाभारत में---> {न दिवा प्रस्वपेज्जातु ||महा०अनु०२४३/६}
नारद पुराण में---> {दिवास्वापं च वर्जयेत् ||२६/२७||} सुश्रुत संहिता -शा०४/३९ में ---{दिवा स्वप्नं च वर्जयेत् }   आदि.....
{ब्रह्मचर्यमहिंसा च सत्यमामिषवर्जनम् | व्रतेष्वेतानि चत्वारि चरितव्यानि नित्यशः || नश्यन्ते ब्रह्मचर्यम् च न दारेष्वृतु संगमात् || देवलः||} व्रत में ब्रह्मचर्य, अहिंसा, सत्य और निरामिष भोजन ये अवश्य ही करें, ऋतुकाल ( रजोदर्शन से सोलह रात्रियाँ) अपनी स्त्री के साथ संयोग करने से व्रत नष्ट नहीं होता---> परंतु इसमें व्रती की ईच्छा से नहीं अर्थात् पति ने व्रत किया हो तो पति स्वयं पहले ईच्छा न करें और पत्नी ने व्रत किया हो तो पत्नी ईच्छा नहीं कर सकती हैं, यदि पुत्र की कामना हो तो- ही ऋतुगमन कर सकतें हैं |
{आमिषं दृतिपानीयं गोवर्जम् क्षीरमामिषम् | मसूरमामिषं सत्ये फले जंबीरमामिषम् || आमिषं शुक्तिकाचूर्णमारनालं तथामिषम् ||स्मृत्यन्तरे ||} मुसक का पानी, मसूर, जंभीरी, सीपी का चूरन कांजिक ये दूसरे स्मृतिकारो ने आमिष बतायें हैं |
{व्रतारम्भे वृद्धिश्राद्धम् -> नानिष्ट्वा तु पितॄञ्छ्राद्धे कर्म किंचित्समारभेत् ||शातातप} व्रत के आरंभ में नान्दीश्राद्ध(गणपति पूजन, मातृकापूजन,नान्दीश्राद्ध क्रमसे) अवश्य करना चाहिये | यही शातातप ने कहा हैं-- कि नांदीमुख श्राद्ध में बिना पितरोंका पूजन किये किसी भी कर्म का प्रारंभ नहीं करना चाहिये |

{पूर्वं व्रतं गृहित्वा यो नाचरेत्काम मोहितः | जीवन्भवति चाण्डालो मृते श्वाऽभिजायते || मदन रत्ने || टीका--- काममोहित इति विशेषणाद्याध्यादिनाऽनाचरणे न दोषः ||} जो पुरुष या (व्रतार्थी) पहले व्रत ग्रहण करके काममोहित होकर  बाद में न करें तो वो जीता हुआ ही चांडाल और मरने के बाद कुत्ता होता हैं | काममोहित का तात्पर्य भिन्न वासनाओं से मोहित होकर  नियमभंग से व्रत न करे तो उसे प्रायश्चित्त हैं वह करना चाहिये | यदि व्याधि आदि कारणों से   कर सके तो उसके लिये कोई दोष नहीं -->(व्याधि में किससे व्रतार्थी का व्रत करने का अधिकार हैं वह क्रमशः कहैंगे.. परंतु व्रत को छोडना नहीं चाहिये) | {सर्वभूतभयं व्याधिः प्रमादो गुरुशासनम् | अव्रतघ्नानि पठ्यन्ते सकृदेतानि शास्त्रतः || स्कांदे|| टीका- सर्वभूतभयं व्याधिरित्यपरिचितत्वाद्याख्यातम् सर्वमृतभयम् -- सर्वेभ्यो भूतेभ्यः सकाशाद्व्रकर्तुर्भयमिति सर्पादिभयद् व्रताङ्गवैकल्ये न व्रतहानिर्भवतीत्यर्थः ||मदनरत्न|| } किसी भी जीव आदि का भय, रोग, भूल और गुरुकी आज्ञा यदि ये एकवार उपस्थित भी हो जाय तो इन से व्रत का नाश नहीं होता -- "सर्वभूतभयम्" का मदनरत्न में इसका अर्थ यह किया हैं कि - किसी भी अपरिचित जीव के भय से व्रतकर्ता को भय रहने से व्रत में त्रुटि हो तो दोष नहीं हैं, परंतु परिचित सर्प, आदि भय से कर्म लोप हो तो अवश्यमेव व्रत की हानि होती हैं |{ टीका- गुरुशासनम् गुरोराज्ञा - सकृदुक्तयाऽसकृत्त्यागे प्रायश्चित्तम् | }
"गुरुशासनम्" का अर्थ गुरुकी आज्ञा होता हैं | एकवार इस अर्थवाला "सकृत्" शब्द के प्रमाण से यही सिद्ध होता हैं कि वारंवार इन व्रतों से व्रतकर्म के लोप करने में प्रायश्चित्त होता हैं |
{क्रोधात्प्रमादाल्लोभाद्वा व्रतभङ्गे भवेद्यदि | दिनत्रयं न भुञ्जीत मुण्डनं शिरसोऽथवा || प्रायश्चित्तमिदं कृत्वा पुनरेव व्रती भवेत् ||गरुडपु०/ स्कांदे ० च || }
क्रोध, प्रमाद, और लोभ के कारण यदि व्रतभंग रो जाय तो तीन दिन भोजन न करना चाहिये, अथवा शिर का मुंडन ही करवा लेना चाहिए | इससे यह बात नहीं कि जो व्रत दूषित हुआ वो किया न जाय; क्योंकि - स्कंदपुराण के वचन से प्रायश्चित्त करके फिर व्रती हो जाय अर्थात् व्रत को पूर्ण करें |
{उपावासः स विज्ञेयः सर्वभोग विवर्जितः | तज्जाप्य यजन ध्यान तत्कथा श्रवणादयः || उपवास कृतामेते गुणाः प्रोक्ता मनीषिभिः || कात्यायन/वृद्धवसिष्ठ ||}
पापों से निवृत्त हुए पुरुष का जो गुणों के साथ वास हैं, वह उपवास कहलाता हैं,उसमें कोई भी भोग नहीं होता | इष्टदेव अथवा व्रत के देवता के जानने के मंत्र,यजन, ध्यान और कथा सुनने आदि को गुण कहतें हैं | ये विद्वानों ने उपवास करनेवालों के गुण बताये हैं |
{दया सर्वभूतेषु क्षांतिरनसूया शौचमनायासोऽकार्पण्य च माङ्गल्यमस्पृहेत्यादिभिः --- विष्णुधर्मोत्तर,गौतमादि प्रतिपादितैः || }
सब प्राणियोंपर दया ,सहन,अनिंदा, पवित्रता, अपरिश्रम, कृपणता का न लाना, मंगल के काम करना और अनुचित इच्छा का त्याग करना ये भी उपवास करनेवालों के गुण हैं |
{स्मृतिपुराण व्यवहारे रुढ्या निराहारावस्थानमात्रम् }  स्मृति और पुराणों में उपवास शब्द का रूढि अर्थ निराहार रहना मात्र हैं |
{उपवासे तथा श्राद्धे न कुर्याद्दन्तधावनम् | दन्तानां काष्ठसंयोगो हन्ति सप्तकुलानि च || वृद्धवसिष्ठ|| }
वृद्ध वसिष्ठने लिखा हैं कि, उपवास और श्राद्ध में दन्तधावन न करना चाहिये | यह लकड़ीके दातुन से करने का निषेध हैं,अन्यसे नहीं | क्योंकि श्राद्ध और उपवास में काठकी दातुन करने से सात कुल नरकमें पड़ जातें हैं |
{पर्णादिना विशुद्ध्येत जिह्वोल्लेखः सदैव हि || पैठनसि ||}
जब काठ की दातुन करने का निषेध हो उस समय अन्य उपायो(आयुर्वेदिक पाउड़र या अवलेह  से  ही मुख शुद्धि कर लेनी चाहिये, कॉलगेट आदि पेस्ट से नही | और धातु,पर्णादि  से जीभ साफ करनी चाहिये |
{असकृज्जलपानाच्च सकृत्तांबूल चर्वणात् | उपवासः प्रणश्येत दिवास्वापाच्च मैथुनात् ||देवल|| टीका--- अशक्तौ तु तेनैव जलपानमभ्यनुज्ञातम् ___ अत्यये चाम्बुपानेन तोपवासः प्रणश्यति || अत्यये जलपानं विना प्राणात्यये ||}
एकवार को छोड़कर ज्यादा पानी पीने से तथा एकवार के पान(तांबूल) खा लेने से, दिन के सोने( अर्ध निंद्रा  भी) से और मैथुन से उपवास नष्ट होता हैं | पानी पिये बिना न रहा जाय तो एकवार (कंठ सुखनेपर ही  ) पानी पी लेना चाहिये, कष्ट के समय पानी पीने से उपवास नष्ट नहीं होता | वह कष्ट भी साधारण न हो किन्तु मरणान्त सा प्रतीत हो तो ही |
{असकृज्जलपानं च दिवास्वापं च मैथुनम् | तांबूलचर्वणं मांसं वर्जयेद्व्रतवासरे ||विष्णुधर्मोत्तर || टीका-- असकृदित्युक्तया सकृज्जलपाननेना दोषः ||} वारंवार जल पीना, दिन में सोना, मैथुन करना, पान चबाना और मांस का खाना व्रत के दिन कभी न होना चाहिये | वार वार पानी पीने का निषेध किया गया हैं | इस कारण एकबार पानी पीने का दोष नहीं हैं |
{पारणान्तं व्रतं ज्ञेयं व्रतान्ते ब्रह्मभोजनम् | असमाप्ते व्रते पूर्वे कुर्यान्नेव व्रतान्तरम् ||वि०ध०||}
जब तक व्रत की पारणा (देवता की पूजा कर महाभोग) न हो उस दिन तक व्रत का दिन समझा जाता हैं | व्रत की समाप्ति में ब्राह्मण भोजन अवश्य होना चाहिये | ---{तस्यापि व्रतवासरत्वान्मांस निषेधः पारणादिने एव,नतूपवादिने _ उपवासे प्रक्त्यभावात् ||}
जबतक पहिला व्रत पूरा न हो तबतक दूसरे व्रत का प्रारंभ नहीं करना चाहिये | पारणा का दिन भी व्रत का ही दिन हैं,इस लिए मांस आदि निषिद्ध(दिन में सोना, ज्यादा पानी पीना, मैथुन, दातुन आदि) वस्तुओं का सेवन पारणा के दिन भी न होना चाहिये |
{वर्जयेत्पारणे मांसं व्रताहेऽप्यषौधं सदा | अष्टौ तान्यव्रतघ्नानि आपोमूलं फलं पयः | हविर्ब्राह्मणकाम्या च गुरोर्वचनमौषधम् || व्यासः}
उपवास में तो भोजन की प्राप्ति ही नहीं, क्यों कि व्रत का सम्बन्ध है उपवास का सम्बन्ध ही नहीं,(व्रतलक्षणम् -->  अतोऽभियुक्त प्रसिद्धिविषयो यः संकल्पविशेषः स एव व्रतम् |--- जिसका योग्य "आर्ष" पुरुष आदि व्रत शब्द से व्यवहार करते चले आ रहै हैं उसी का नाम व्रत हैं ) इसलिए निर्णयामृत में व्यास जी का वचन हैं कि- व्रत और पारणा दोनों ही के दिन मांस अथवा जिनकी मांस संज्ञा की गयी है ऐसी औषधीयों को कभी भोजन के कार्य्य में नहीं लाना चाहिये | जल,फल, दूध, ब्राह्मण,काम्या(पत्नी का ऋतुगमन), हवि, गुरु के वचन और औषध ये आठो व्रत को नष्ट नहीं करतें |
{स्मृत्यालोकन गन्धादिस्वादनं परिकीर्तनम् | अन्नस्य वर्जयेत्सर्वं ग्रासानां चाभिकांक्षणम् ||गात्राभ्यङ्गं शिरोभ्यङ्गं ताम्बूलं चानुलेपनम् | व्रतस्थो वर्जयेत्सर्वं यच्चान्यद्वलरागकृत् ||विष्णुरहस्ये ||}
अन्न का स्मरण-दर्शन-गन्धों का आस्वादन- वर्णन और ग्रासोकी चाह(ठूँस ठूँस कर खाना) इन सब का त्याग व्रत के दिन होना चाहिये तथा व्रती को शरीर उबटना, शिर पर तेल लगाना, पान का चबाना, सुगन्धित द्रव्यों को लगाना, बल और राग उत्पन्न करनेवाली वस्तुओं(टी.वी- सीनेमा,रेडी़यो,विड़ीयो गेईम, फोनपर अधिक बातें,समाचारपत्र आदि) का सेवन न करे |
{हारितः---> पतित पाखण्डादि नास्तिकादि संभाषणानृताश्लीलादिकमुपवासादिषु वर्जयेत् || }
हारित कहतें हैं कि- पतित, पाखण्डी और नास्तिकों से बोलना, झूठी बातें बनाना एवं गंदी बातें करना ये सब काम व्रतादि में न करने चाहिये |
{विहितस्यानुष्ठानमिन्द्रियाणामनिग्रहः | निषिद्ध सेवनं नित्यं वर्जनीयं प्रयत्नतः || सुमन्तु || } कहे हुए का अनुष्ठान को न करना, इन्द्रियों को   रोकना, निषिद्ध चीजों का सेवन करना इन कामों को प्रयत्न के साथ छोड देना चाहिये... "नित्यं" शब्द से व्रत के नियमों में यदि जीवन के व्यवहार में लाना   ही हीतकर होगा ...जैसे की अल्पाहार,सभी प्रकार के संयम आदि, यही तो व्रत के सम्बन्ध से जीवन को सन्तुलीत करने का  विशिष्ट विधान है |
{पतितादर्शने तु विष्णुपुराणे---> तस्यावलोकनात्सूर्यं पश्येत् मतिमान्नरः }
पतित आदि के दर्शन में विष्णुपुराण में कहा हैं कि पतित आदि को देखतें ही सूर्यनारायण के दर्शन कर लेने चाहिये |
{संस्पर्शे च नरः स्नात्वा शुचिरादित्यदर्शनात् | संभाष्य ताञ्छुचिपदं चिन्तयेदयुतं बुधः ||वि०ध०|| }
यदि कोई व्रती पतित आदि को छू जाय तो स्नान करने के बाद सूर्य नारायण दर्शन करके शुद्ध होता हो जाता हैं | यदि उनसे बातें चीतें की हो तो "दश-हजार" वार शुचिपद अर्थात् "विष्णु भगवान्" का स्मरण चिन्तन करके शुद्ध हो जाता हैं |
व्रत धर्माः खंड ६~
{यदिवाग्यमलोपः स्याद्व्रतदान क्रियादिषु | व्याहरेद्वैष्णवं मंत्रं स्मरेद्वा विष्णुमव्ययम् ||याज्ञवल्क्य ||} यदि व्रत दान और क्रिया आदि में वाणी के यम(मौन) का लोप हो जाय तो वैष्णव मंत्र का जप अथवा विष्णु भगवान् का ध्यान करना चाहिये | ---> {मानसे नियमे लुप्ते स्मरेद्विष्णुमव्ययम् ||यमः|| इति...
{रजस्वलां च चाण्डालं महापातकिनं तथा | सूतिकां पतितं चैव उच्छिष्टं रजकादिकम् || व्रतादिमध्ये श्रृणुयाद्यद्येषां ध्वनिमुत्तमः | अष्टोत्तरसहस्रं तु जपेद्वै वेदमातरम् || बृहन्नारदीये || }
व्रतकरनेवाला उत्तम पुरुष व्रतादि में रजस्वला,चाण्डाल, महापातकी,
सूतिका , पतित झुठेमुँहवाला एवं धोबी आदि की बातें सुन ले तो १००८ गायत्रीमंत्र का जप करने से ही शुद्ध होता हैं |
{#संध्याहीनोऽशुचिर्नित्यमनर्हः_सर्वकर्मसु | #यदन्यत्कुरुते_किंचिन्न_तस्य_फलमश्नुते ||मिताक्षरायां दक्षः ||}
जो सन्ध्या नहीं करता वो सदा ही अपवित्र हैं,वो किसी भी वैदिक कर्म को नहीं कर सकता,यदि किसी वैदिक काम को करता हैं तो उसे उसका फल नहीं मिलता |
{सदोपवीतिना भाव्यं सदा बद्धशिखेन च | विशिखो व्युपवीती च यत्करोति न तत्कृतम् || पित्र्यमन्त्रानुद्रवणे आत्मालंभे अवेक्षणे | अधोवायुसमुत्सर्गे प्रहारेऽनृतभाषणे || मार्जारमूषकस्पर्श आक्रोशे क्रोधसंभवे | निमित्तेष्वेषु सर्वत्र कर्म कुर्वन्नपः स्पृशेत् ||छान्दोग्यपरिशिष्ठ || }
उपवीतसे सदा रहना चाहिये तथा शिखा(बाल खुले)  कभी भी खुली न रहनी चाहिये | जो मनुष्य बिना शिखा बाँधे तथा बिना जनेऊ पहने और उपवीती न होकर जो शुभ काम करता हैं वो न किये हुए के बराबर हैं | पितरोंके वैदिक मंत्रों में आगे पीछे पाठादिक करनेमें, अस्पृश्य लोगों को छू लेने में- देखने में, दर्पण में देखने में, अधोवायु छोडनेपर(पादने में), झुठ बोलने और प्रहार करनेपर तथा बिल्ली,चूहे के छूने, किसी को गाली देने, क्रोध करने और बुरी चीज छू कर कर्म करता हुए (अपःस्पृशेत्= उदकोपस्पर्श -----आचमन ) करके शुद्ध होता हैं |
{शिरःस्नातश्च कुर्वीत दैवं पित्र्यमथापि वा |मा०पु० }
मार्कण्डेय पुराण में लिखा हैं कि- देव और पितर संबन्धी वैदिक कर्मों को करनेवाला पुरुष शिर सहित स्नान करके प्रारंभ करे |
{तस्मादोमित्यादाहृत्य यज्ञदानतपः क्रियाः | प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः सततं ब्रह्मवादिनाम् || गीता || } ब्रह्मवादी जन जब विधान के विषय में किसी दूसरे काल को किसी पुण्य काल का प्रतिनिधि न बनाना चाहिये
{गर्भिणी सूतिकादिश्च कुमारी वाथ रोगिणी | यदाऽशुद्धा तदान्येन कारयेत्प्रयता स्वयम् ||पाद्मे ||पुंसोप्येष विधिः }
गर्भिणी, सूतिका, कुमारी, रोगिणी, जब अशुद्ध हो तब दूसरे से व्रत करवायें | पुरुषों के लिए भी यही विधि हैं |
{यस्मिन्व्रते यत्पूजाद्युक्तं तदन्येन कारयेत् | शारीरनियमान् स्वयं कुर्यात् ||हेमाद्रौ||  }
जिस व्रत में जो पूजादि कही हैं वह दूसरे से करवाँ दे,शरीर के नियमो को स्वयं करै |
{बहुकालिक संकल्पो गृहीतश्च पुरा यदि | सूतके मृतके चैव व्रतं तन्नैव दुष्यति ||विष्णुः||}
काम्यव्रत में विष्णु का कथन हैं कि- यदि पहले बहुत कालका संकल्प किया हो अर्थात् बहुत कालके व्रत का संकल्प लिया हो तो सूतक और मृत्यु में वह व्रत दषित नहीं होता | ऐसे में---- {पूर्वसंकल्पितं यच्च व्रतं सुनियतव्रतैः | तत्कर्तव्यं नरैः शुद्धं दानार्चन विवर्जितम् ||मदनरत्ने ||}
जिस व्रत का व्रत के नियम करानेवाले ने प्रथम से संकल्प कर रक्खा हैं वह शुद्ध मनुष्य उस व्रत को दान और अर्चन बिना करैं |
{अन्तरा तु रजोयोगे पूजामन्येन कारयेत् || मात्स्ये ||} यदि व्रत में रजोधर्म हो जाय तो दूसरे से  व्रत करवाँ दे | क्योंकि--- {प्रारब्धदीर्घतपसां नारीणां यद्रजो भवेत् | न तत्रापि व्रतस्य स्यादुपरोधः कथंचनः ||सत्यव्रतः ||} दीर्घव्रत के प्रारम्भ में यदि स्त्री रजोवती हो जाय तो उसका व्रत नहीं रुक सकता, प्रतिनिधि से करवा देना चाहिये |
{भार्या पत्युर्व्रतं कुर्याद्भार्यायाश्च पतिर्व्रतम् | असामर्थ्ये परस्ताभ्यां व्रतभङ्गो न जा़यते ||पैठीनसी || ---> पुत्रं वा विनयोपेतं भगिनीं भ्रातरं तथा | एषामभाव एवान्यं ब्राह्मणं वा नियोजयेत् ||स्कान्दे || }
भार्या पति  का, और पति भार्या का व्रत कर दे, इनके सामर्थ्य न होनेपर दूसरे के व्रत करने से व्रत भंग नही होता | स्कन्द पुराण में कहा हैं कि- नम्रतायुक्त पुत्र,बहन, भ्राता इनको अथवा इनके अभाव. में ब्राह्मण को प्रतिनिधि करना चाहिये |
व्रत धर्माः खंड ७~

{हविष्येषु यवा मुख्यास्तदनु व्रीहयः स्मृताः | माषकोद्रवगौरादीन् सर्वाभावेपि वर्जयेत् ||छान्दो०परि०कात्यायनः||}
हेमाद्री में छान्दोग्य परिशिष्ठ में कात्यायन के वचन से --- हविष्य अन्नों में जौ मुख्य हैं, उनके पीछे खीलों की गिनती हैं,चाहे कुछ भी न मिले पर उड़ीद,कोदों,और सफेद सरसों को कभी ग्रहण न करना चाहिये ।
{व्रीहिषष्टिकमुद्गाश्च कलायाःसलिलं पयः । श्यामाकाश्चैव मीनारा गोधूमाद्या विरोध हिताः।। कूष्माण्डालाबुवृन्ताकपालकी ज्योत्स्निकास्त्यजेत् ।। चतुर्भैक्ष्यं सक्तुकणाः शाकंभरी दधि घृतं मधु । श्यामाकाः शालिनीवारा यावकं मूलतन्दुलम् ।। हविष्यं व्रतनक्तादावग्निकार्यादिके हितम् ।। *मधु मामलों विहातव्यं सर्वैश्च व्रतिभिस्तथा ।। }
अग्निपुराण में कहा हैं कि -- शाली, साठीचावल, मूँग, तथा कलाय तथा पानी,दूध,सामा,नीवार,और गेहूँ आदि पारणा में हितकारी  हैं । पेठा या काशीफल, लौकी, बैगन, पालक का साग, कोशातकी इनका त्याग करना चाहिये । मीठा दहीं, घृत, चतुभैक्ष्य, सामा, शाली चावल, नीवार,सत्त कण, शाक, साधारण चावल, यावक, ये सब रात  के व्रतादि में हविष्यान्न  कहा गये हैं- तथा अग्निकार्य में भी इनका ग्रहण हो सकता हैं, परंतु किसी भी व्रती को मधु मांस का कभी व्रत में सेवन न करना चाहिये ।
{हैमन्तिकं सितास्विन्नं धान्यं मुद्गा यवास्तिलाः । कलायकङ्गुनीवारा वास्तुकं हिलमोचिका ।। षष्टिका कालशाकं च मूलकं  केमुकेतरत् । कन्दः सैन्धवसामुद्रे गव्ये  च दधिसर्पिषी ।। पयो$नुद्धृतसारं च पनसाम्रहरीतकी। पिप्पली जीरकं चैव नागरङ्गकतिन्तिणी।। कदली लवलीन धात्री फलान्यगुडमैक्षवम्। अतैलपक्वं मुनयो हविष्याणि प्रचक्षते।।भविष्ये।।}
हेमन्तॠतुमें होनेवाला हैमन्तिक, बिना मागें भीगे हुए सफेद धान,मूँग, जौ, तिल, मटर, काँगुनी, नीवारिका, बथुआ, हिलमोचिका, साठी चावल, काल शाक, केबुक  को छोडकर बाकी मूल,कंद,सैंधा,और समुद्रनोन,तथा गऊ का दहीं और घी,मलाई आदि न निकाला हुआ दूध,कटहर,आम,हरितकी,पीपल,जीरा,नारंगी,इमली,केला,लवली,
आमला, ये सभी हविष्यान्न हैं । परंतु ईख का गुड हविष्य अन्न नहीं हैं। जो व्रतग्राह्य वस्तु तेल में न पकाई हों वो व्रतमें ग्रहण कर लेनी चाहिये । ऋषियोंने इन चीजों को हविष्य बताया हैं । सार- जिस व्रत में जो जो हविष्यान्न या फलाहार करना लिखा हो,या जैसे हविष्यान्न या फलाहार का संकल्प किया  हो,उसी प्रकार से ही नियम का पालन करैं, परंतु  फलाहार में केवल फलों का ही सेवन ग्राह्य हैं,
ॐस्वस्ति || पु ह शास्त्री,उमरेठ || शेष पुनः

1 comment:

  1. जय नारायण अग्निवायुसूर्येभ्यो की आहुति शास्त्र संमत है ?

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