व्यास आसन का अर्थ है , महर्षि वेदव्यास के प्रतिनिधि का आसन , वह आसन जिसपर विराजमान होते ही व्यक्ति महर्षि वेदव्यास का प्रतिनिधित्व करता है , इस आसन पर बैठते ही व्यक्ति वैदिक धर्म का मुख हो जाता है | जो जातिभेद को नकारते हैं उनको महर्षि वेद व्यास द्वारा रचित ब्रह्मसूत्र अपशूद्राधिकरण के श्रवणाध्ययनप्रतिषेधात् स्मृतेश्च| (- ब्रह्मसूत्र १/३/३८) आदि सूत्रों को पढ़ना चाहिए ताकि उनको पता चले कि महर्षि वेद व्यास की दृष्टि में पठन -पाठन में जातिभेद स्वीकृत हुआ है वा नहीं |
सामान्यतया जब हम किसी आसन पर बैठते हैं तब माता पृथ्वी से यह प्रार्थना करते हैं कि हे जगद्धात्री ! जैसे तुझे भगवान् विष्णु ने धारण किया , ऐसे ही मेरे इस आसन को भी तू धारण कर | इस प्रकार आधार शक्ति स्वरूपा पृथिवी , कूर्म देवता, छन्दादि का ध्यान करके तब आसन पर विराजित हुआ जाता है |
(पृथ्वी त्वया धृता लोका देवि त्वं विष्णुना धृता | त्वं च धारय मां देवि पवित्रं कुरु चासनम् ||)
इसप्रकार आसन की पवित्रता काकितना ध्यान हमारी सनातनी परम्परा में रखागया , ये विदित होता है |
श्रीभगवान् गीता में कहते हैं कि पवित्र देश में आसन की स्थापना करो –
शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः | (-गीता६/११)
आसन का परिमाण , उसके अवयवों का ग्रहण कि किस किस प्रकार से कैसे आसन का चयन करना है , इसका भी पर्याप्त महत्त्व हमारी वैदिक परम्परा में रहा है –
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् || (-गीता६/११)
फिर व्यास आसन , जो कि वेदों का विभाजन करने वाले महर्षि वेदव्यास जैसे महान् ऋषि की परम्परा का द्योतक , उसे यदि जाति दोष , गुण – कर्म दोष, आहारादि दोषों की अपवित्रता से दूषित करने का प्रयास कोई अज्ञानी करता है , तो आप ही बताइये कि उससे बड़ा वैदिक- धर्म का अपराधी भला कौन होगा ?
श्री बलराम जी ने महर्षि वेदव्यास के साक्षात् शिष्य और पुराणों के मर्मज्ञ रोमहर्षण श्री सूत जी को व्यास आसन पर विराजमान देखकर उनका तक सर काट दिया था , बाद में
क्रांतदर्शी ऋषियों ने बताया कि हमने स्वयं अपना प्रतिनिधि इनको चयनित किया था , तब ऋषियों की आज्ञा का उल्लंघन जानकर बलराम जी ने अपने कार्य से प्रायश्चित्त कर लिया क्योंकि लौकिक साधुओं और आद्य ऋषियों के वचन में अंतर होता है | आद्य ऋषियों की वाणी के पीछे अर्थ चलता है किन्तु लौकिक साधुओं की वाणी अर्थ के पीछे अनुवर्तन करती है | ( लौकिकानां हि साधूनां अर्थ वागनुवर्तते | ऋषिणां पुनरादयानां वाचम् अर्थानुधावति|| – उत्तररामचरित ) बाद में रोमहर्षण सूत के अभाव में उग्रश्रवा को ऋषियों ने नियोजित किया | इससे स्पष्ट है कि व्यास आसन का कितना महत्त्व हमारी वैदिकी परम्परा में रहा कि यदि कोई ब्राह्मणेतर उस पर बैठता है तो एक धर्म रक्षक राजा का यह कर्त्तव्य वह उस पापी का सर काट दे | यदि ऋषियों ने स्वयं आज्ञा न दी होती तो एक सूत का वध तो धर्म के पारगामी शेषावतार भगवान् श्री बलराम जी निः संकोच कर ही चुके थे | इससे स्पष्ट है कि व्यास आसन की क्या मर्यादा , क्या परम्परा, क्या गौरव हमारी वैदिक- परम्परा में रहा है |
वेदों में स्पष्ट कहा गया है कि ब्राह्मण ही मुख है (ब्राह्मणस्यमुखम्- पुरुष सूक्त ) , ब्राह्मण को किसे स्पर्श करना है किसे नहीं , इस पर महाभारत के आश्वमेधिक पर्व में महर्षि वेदव्यास स्पष्ट सब बता चुके हैं | महर्षि वेदव्यास का प्रतिनिधि होकर ऐसे पवित्र व्यास आसन को जब कोई ब्राह्मण म्लेच्छों को स्पर्श करवाता है , जिनके विषय में स्वयं भक्ति रस में डूबे रहने वाले श्रीजयदेव जैसे कृष्ण भक्त कवि कहते हैं –
म्लेच्छान् मूर्च्छयते दशाकृतिकृते कृष्णाय तुभ्यं नमः (-जयदेवकवि:) , ऐसे त्रिपुरासुरी वंशज राक्षसों का सम्मान उस व्यास पीठ से किया जाता है तो उससे बड़ा नराधम भला और कौन होगा ?
अहो कालातिक्रमः !
|| जय श्रीराम ||
साभार:- शंकर सन्देश
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