Tuesday, 31 July 2018

जाति कर्म से होती है कहने वालों को यह कहना

जाति जन्म से होती  है कि कर्म से ?

ये प्रश्न ऐसा ही है जैसे -

आम का पेड़  अपने   फल से  पहचाना जाता है  कि   बीज से ?

।। जय श्री राम ।। ़

Sunday, 29 July 2018

वेद में मूर्ति पूजा के प्रमाण

वेद में मूर्ति पूजा के प्रमाण
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वेदों में ईश्वर उपासना दो रूपों में प्रचलित है साकार तथा निराकार। निराकारवादी प्रायः साकार उपासना या मूर्ति पूजा का विरोध करते है तथा केवल निराकारोपासनापरक 'न तस्य प्रतिमा अस्ति ' आदि वचनों को उद्धृत करके ही एकतरफा निर्णय करके संतुष्ट हो जाते हैं पर वे यह भूल जाते है कि ऋषि मनीषियों ने दोनोँ उपासना पद्धतियों का निर्माण मनुष्य के बौद्धिक स्तर की अनुकूलता के अनुरूप किया है। जिस व्यक्ति का बौद्धिक स्तर जितना ऊंचा है उसे उसी ढंग की उपासना पद्धति का निर्देश गुरुजन देते है। जिस व्यक्ति का बौद्धिक विकास मध्य श्रेणी का है शास्त्रों के स्वाध्याय से भी वह वंचित है उसे यदि निराकार उपासना की दीक्षा दी जाय तो उसे उस उपासना से कोई लाभ न होगा, क्योंकि उसकी अन्तः चेतना का इतना विकास नहीं हुआ है कि ईश्वर के वास्तविक निराकार तत्व को समझ सके। यदि एक निर्बल बौद्धिक स्तर वाले व्यक्ति से यह कहा जाय कि ईश्वर सर्वव्यापक है परन्तु वह इन स्थूल नेत्रों से दृष्टिगोचर नहीं होता उसका कोई रंगरूप नहीं है तो निश्चित रूप से उसकी बुद्धि ईश्वर के अस्तित्व को ही मानने से इनकार कर देंगी।
चूँकि सामान्य बौद्धिक स्तर वाले व्यक्तियों के लिये अध्यात्म के सूक्ष्म तथ्यों पर ध्यानावस्थित होना कठिन होता है इसलिये मानव मनोविज्ञान के ज्ञाता ऋषियों ने प्रतीक
पूजा की मूर्ति पूजा की प्रथा चलाई ताकि उस मूर्ति को माध्यम बनाकर वह उस अनन्त को साकार रूप में अपने सामने देख सके। निराकार ब्रह्म का मानसचित्र बनाना सबके लिये संभव नहीं। यदि प्रतीकवाद या मूर्ति पूजा का आरंभ न होता। तो आज विश्व की अधिकांश जनसंख्या नास्तिक होती क्यों कि अशिक्षित और पिछड़े स्तर के जनमानस में ईश्वर के निराकार तत्व पर विश्वास ही न होता। केवल उपासना थोड़े से उच्चकोटि के विचारकों तत्ववेत्ताओं और योगियों तक ही सीमित रह जाती ओर मानव जाति का आत्मिक विकास रुक जाता धार्मिक सम्प्रदायों का निर्माण न होता और धर्म के व्यापक विस्तार के बिना समाज में घोर अनास्था और अव्यवस्था फैली होती।
देव प्रतिमा से प्रतीक से साधक को यह विश्वास हो जाता है कि जिन गुणों से सम्पन्न ईश्वर को वह पाना चाहता है, अथवा जिन गुणों को अपने में विकसित करना चाहता है वह मूर्ति उसके समक्ष उपस्थित है। ध्यान धारणा के माध्यम से वह उसे अपनी अन्तःचेतना में बिठाकर एकाकार हो जाता है। ध्यान की परिपक्वता में पहुँचने पर उसे सब ओर उसी की छाया दिखायी देती है वह अणु अणु में समाया हुआ मिलता है उसे अपने इष्ट के अतिरिक्त और कुछ दिखायी नहीं देता। यह वह अवस्था है जब प्रतीक पूजा के माध्यम से साधक का आत्मिक स्तर विकसित होने लगता है और वह सब प्राणियों में अपने प्रभु का ही दर्शन करता है और अपने में सबका उद्देश्य होता है। यहाँ आकर उसकी प्रारंभिक मूर्ति उपासना छूट जाती है और वह समस्त चलती फिरती प्रतिमाओं को अपने ईश्वर का ही रूप मानने लगता हैं। जब उपासना का स्तर स्थूल से सूक्ष्म हो जाता है तब वह निराकार तत्व की उपासना के योग्य होता है क्योंकि स्तर की अनुकूलता में ही शक्ति के विकास का रहस्य निहित है। स्तर की प्रतिकूलता में अच्छे परिणामों की आशा करना असंभव है। यह भी ठीक है कि प्रतिमा पूजा से अन्तिम लक्ष्य तक पहुँचना संभव नहीं क्योंकि ईश्वर सूक्ष्म है और सूक्ष्म को प्राप्त करने के लिये उससे एकाकार होने के लिये अपनी अन्तःचेतना का उतना ही सूक्ष्म बनाना होगा जितना कि वह है अन्यथा अपने लक्ष्य में निराशा ही होगी।
वस्तुतः मूर्ति पूजा ईश्वर उपासना का आरंभिक शिक्षा सत्र है। यह चित्त शुद्धि का मानसिक परिष्कार का सरल साधन है। इसमें अपने इष्टदेव का ध्यान सुविधाजनक होता है निराकार उपासना कष्टसाध्य है जैसा कि कृष्ण भगवान ने गीता 12 /5-6 में निर्देश दिया है कि जो सबके मूल अचल अव्यक्त सर्वव्यापी अचिन्त्य ओर नित्य अक्षर ब्रह्म की उपासना सब इन्द्रियों को रोककर सर्वत्र सम बुद्धि रखते हुये करते है वे भी मुझे ही पाते है। परन्तु उनके चित्त अव्यक्त में आसक्त रहने के कारण उनको क्लेश अधिक होते है क्योंकि अव्यक्त उपासना का मार्ग कष्ट से सिद्ध होता है। इसका अभिप्राय यह है कि साधक सब इन्द्रियों को जीतकर और सभी प्राणियों के प्रति सम बुद्धि व्यावहारिक भावना बनाकर ही उस निराकार उपासना का अधिकारी बनता है। यदि आरंभिक साधक के लिए सूक्ष्म और असीम की उपासना निर्धारित कर दी जाय तो वह अंधकार में ही टटोलता रहेगा और भटक जायेगा। क्योंकि केनोपनिषद 1/3 के अनुसार वहाँ न तो चक्षु पहुँचता है, व वाणी पहुँचती है और न मन ही पहुँच सकता है। वह ज्ञात पदार्थों से भिन्न है और अज्ञात से भी परे है। ऐसी स्थिति में तत्ववेत्ता ऋषियों ने निश्चय किया कि सीमित बुद्धि वाले साधक सीधे असीम की उपासना करने से ही असीम तक पहुँच पायेंगे। ईश्वर या देवप्रतिमायें आस्था की, श्रद्धाभावना की उन्नायक मानी गयी हैं और वे साधक की पवित्र भावनाओं को तददेव तक पहुँचाती भी है। श्रद्धासिक्त भावना के उन्नयन से आत्मा का सम्बन्ध उस चैतन्य सत्ता से हो जाता है तो अणु-अणु में व्याप्त है।
इस तथ्य की पुष्टि पाश्चात्य मनोवैज्ञानिकों ने भी की है। अपने प्रसिद्ध ग्रंथ “दि रिलीजंस एटीच्यूड” में मूर्धन्य मनीशी वुडवर्न ने लिखा है, कि मूर्ति का यथार्थ महत्व प्रतीकात्मक होता है और इसका प्रभाव विषेशतः ऐसे व्यक्तियों की चेतना पर पड़ता है जिन्होंने मानसिक प्रतिमाओं का प्रयोग करना नहीं सीखा है। अर्थात् जिसका मानसिक स्तर पर्याप्त रूप से विकसित नहीं हुआ है। सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक नाइट ने भी अपनी कृति “सिम्बाँलिकल लैंग्वेज ऑफ एनषियेण्ट आर्ट एण्ड माइथाँलाँजी” में कहा है कि मूर्ति पूजकों का यह विश्वास था कि दैवी-सत्य, प्रतीक में छिपा रहता है, पहेली और कल्पित आख्यायिकाओं में प्रच्छन्न रहता है। यह निर्बल मानवीयता को समयानुकूल रखता है बशर्ते कि यह ज्ञान और मूल दर्शन में प्रदर्शित हो।’ इससे स्पष्ट है कि आधुनिक मनोविज्ञान भी इस मूलभूत सिद्धान्त को स्वीकार करता है कि सामान्य मानसिक स्तर वाले व्यक्तियों के लिए प्रार्थना व पूजा के लिए कोई दृश्य चित्र या प्रतिमा की आवश्यकता अनिवार्य है।
मनोवेत्ताओं का कहना है कि जड़पूजा तो मनुष्य का प्रकृति प्रदत्त स्वभाव है। जल, वायु, पृथ्वी, सूर्य, चन्द्रमा को वेदों में देवता कहा है, क्योंकि वह निरन्तर अपनी शक्तियों से हमें लाभान्वित करते रहते हैं। उनके बिना हमारा जीवन असंभव है, इसलिए जड़ होते हुए भी हम उनकी पूजा, उपासना करते हैं। इन जड़ पदार्थों में स्वयमेव कोई शक्ति नहीं है। उस आद्यशक्ति के कारण ही इनमें प्राणप्रद गुणों का समावेश हो पाया है। ईश्वर निराकार है। वह स्थूल नेत्रों से दिखाई नहीं देता। उसके अनेकों दिव्य गुण हैं। वह गुणों का समुच्चय है और तदनुरूप ही उसकी अनन्त शक्तियां हैं। उन शक्तियों के अनुसार आचार्यों ने उसे साकार रूप में ढाल लिया है। मूर्ति पर फूल चढ़ाते हुए यह कोई नहीं सोचता कि वह पत्थर की पूजा कर रहा है, वरन् यह भाव रहता है कि इसमें व्याप्त जो चैतन्य शक्ति है, वह ही हमारी श्रद्धा की पात्र है। प्रतिमा की उपासना करने वाला जानता है कि वह उस सर्वव्यापी ईश्वर की ही उपासना कर रहा है।
श्रद्धाशक्ति इस पवित्र भावना से उसकी आत्मा का संबंध सर्वव्यापी चैतन्य सत्ता से हो जाता है। मूर्ति साधक के विश्वास को बढ़ाती है कि यही ईश्वर है। विश्वास की पूर्णता ही उसे आदि विद्युत धारा से मिला देती है। इस मिलन से साधक को जो अपार आनन्द की अनुभूति होती है, वही ईश्वर प्राप्ति की ओर बढ़ने का चिन्ह माना जाता है। सूक्ष्म तक स्थूल की सीधी पहुँच नहीं है। स्थूल को स्थूल का ही अवलम्बन लेना पड़ता है। अतः मूर्तिपूजा स्वाभाविक व प्राकृतिक है।
वेद स्वयं स्थूल उपासना का प्रतिपादन करते हैं। अग्नि उपासना से सम्बन्धित उनमें सैकड़ों मंत्र उपलब्ध हैं। ऋग्वेद के मन्त्रों में उल्लेख है कि “अग्नि उपासना से कल्याण होता है। अग्नि उपासना के बिना मुक्ति की प्राप्ति असंभव है।” अग्नि उपासक के हृदय में परमात्मा का तेज प्रकाशित होता है। अन्य शास्त्रों में अग्नि को ब्रह्मरूप कहा गया है, परन्तु अग्नि तो जड़ है। उसके माध्यम से चैतन्य की प्रसन्नता प्राप्त करने में साधक कैसे सफल हो सकता है। अग्नि स्थूल पदार्थों को सूक्ष्म बनाकर देवताओं को अर्पण करती है। मूर्तिपूजा भी साधक की पवित्र भावनाओं को उदात्त बनाकर इष्टदेव तक पहुँचाती है। इन दोनों में कुछ भी अन्तर नहीं हैं। यदि अग्नि उपासना वैदिक है तो मूर्तिपूजा भी वैदिक माननी पड़ेगी। वेद स्वयं मूर्तिपूजा का प्रतीक दृष्टिगोचर होते हैं क्योंकि उन्हें ईश्वर प्रदत्त ज्ञान माना जाता है। अनेक वेद-मंत्र इसकी साक्षी देते है। अथर्ववेद 3/10/3 में उल्लेख है-
“संवत्सरस्य प्रतिमा याँ त्वा रात्र्युपास्महे। सा न आयुश्मतीं प्रजाँ रायस्पोशेण सं सृज॥”
अर्थात् “ हे रात्रे ! संवत्सर की प्रतिमा ! हम तुम्हारी उपासना करते हैं। तुम हमारे पुत्र-पौत्रादि को चिर आयुष्य बनाओ और पशुओं से हमको सम्पन्न करो।”
अथर्ववेद 2/13/4 में प्रार्थना है- एह्याश्मा तिष्ठाश्मा भवतु ते तनूः ० “हे भगवान! आइये और इस पत्थर की बनी मूर्ति में अधिष्ठित होइये। आपका यह शरीर पत्थर की बनी मूर्ति हो जाये।”
मा असि प्रमा असि प्रतिमा असि | [तैत्तीरिय प्रपा० अनु ० ५ ]
हे महावीर तुम इश्वर की प्रतिमा हो |
सह्स्त्रस्य प्रतिमा असि | [यजुर्वेद १५.६५]
हे परमेश्वर , आप सहस्त्रो की प्रतिमा [मूर्ति ] हैं |
अर्चत प्रार्चत प्रिय्मेधासो अर्चत | (अथर्ववेद-20.92.5)
हे बुद्धिमान मनुष्यों उस प्रतिमा का पूजन करो,भली भांति पूजन करो |
ऋषि नाम प्रस्त्रोअसि नमो अस्तु देव्याय प्रस्तराय| [अथर्व ० १६.२.६ ]
हे प्रतिमा,, तू ऋषियों का पाषण है तुझ दिव्य पाषण के लिए नमस्कार है |
गणपति अथर्व शीर्षम् की फलश्रुती है-
"सूर्यग्रहे महानद्यां प्रतिमासन्निधौ वा जप्त्वा सिद्धमनत्रो भवति ।।"
- सूर्यग्रहणके समय महानदीमें अथवा **प्रतिमाके** निकट इस उपनिषद्का जप करके साधक सिद्धमन्त्र हो जाता है ।
इसी प्रकार देवी अथर्वशीर्षम् की फलश्रुती है -
निशीथे तुरीयसन्ध्यायां जप्त्वा वाक्सिद्धिर्भवति । नूतनायां प्रतिमायां जप्त्वा देवतासान्निध्यं भवति । प्र्ाणप्रतिष्ठायां जप्त्वा प्राणानां प्रतिष्ठा भवति ।।
प्रतिमा में शक्ति का अधिष्ठान किया जाता है, प्राणप्रतिष्ठा की जाती है। सामवेद के 36 वें ब्राह्मण में उल्लेख है-
“देवतायतनानि कम्पन्ते दैवतप्रतिमा हसन्ति। रुदान्त नृत्यान्त स्फुटान्त स्विद्यन्त्युन्मालान्त निमीलन्ति॥
अर्थात्- देवस्थान काँपते हैं, देवमूर्ति हँसती, रोती और नृत्य करती हैं, किसी अंग में स्फुटित हो जाती है, वह पसीजती है, अपनी आँखों को खोलती और बन्द भी करती है।
“कपिल तंत्र” में इस भाव की पुष्टि करते हुए कहा गया है-”जिस तरह गाय के सारे शरीर में उत्पन्न होने वाला दुग्ध केवल उसके स्तनों के द्वारा ही बाहर निकलता है, इसी तरह परमात्मा की सर्वव्यापक शक्ति का अधिष्ठान मूर्ति में होता है। इस तरह से साधक यह विचार करता है कि वह उस पत्थर निर्मित मूर्ति की उपासना नहीं कर रहा है, वरन् वह उस अनन्त शक्ति की पूजा कर रहा है जो उस मूर्ति में विद्यमान है। बाह्य दृष्टि से दिखाई देता है कि वह प्रतिमा की पूजा कर रहा है परन्तु वास्तव में तो वह उस सर्वव्यापी शक्ति की उपासना कर रहा होता है।
आधुनिक विज्ञान भी इसका समर्थन करता है। साधक के भक्ति, विश्वास और पूजा की शक्ति को यदि विषम-शक्ति मानें और ईश्वर की शक्ति को सम तो निश्चय रूप से साधक की विषमशक्ति परमात्मा की समशक्ति को मूर्ति के माध्यम से आकर्षित कर लेती है। विषय और सम शक्तियों के मिलन से ही विद्युतधारा का प्रवाह दृष्टिगोचर होता है और प्रकाश की उत्पत्ति होती है। इसी तरह से साधक की अन्तःचेतना भी जगमगा उठती है।
मूर्तिपूजा-प्रतीक उपासना के पीछे एक सुदृढ़ मनोविज्ञान काम करता है। आधुनिक मनोविज्ञानी भी मूर्ति की आवश्यकता को अनुभव करते हैं और मानते हैं कि असीम ही सीमित होकर प्रदर्शित होता है। सुविख्यात मनोविज्ञानी कार्लाइल के अनुसार वास्तविक प्रतीक में जिसे ऐसा सम्बोधन किया जाता है, सदैव स्पष्ट और प्रत्यक्ष रूप से असीम का रहस्योद्घाटन होता है। इसमें निराकार का संयोजन साकार में होता है जिससे वह दृष्टिगत हो सके और प्राप्त हो सके। विद्वान अर्बन ने भी अपनी कृति-”लैग्वेज ऐण्ड रियलिटी” में प्रतिमा उपासना के लाभों का विवेचन करते हुए लिखा है कि धार्मिक प्रतीक या प्रतिमायें सीमित और अन्तरदृश्ट्यात्मक सम्बन्धों से उद्भूत की गयी है। इनसे ऐसे तथ्यों की अभिव्यक्ति होती है जो अधिक सार्वभौम और आदर्श सम्बन्धों के लिए है, जिनकी अभिव्यक्ति विस्तार अधिक होने से और आदर्शवादिता के कारण सीधे नहीं की जा सकती। अन्यान्य मनोवैज्ञानिकों ने इस तथ्य की पुष्टि करते हुए लिखा है-भारतीय मन्दिरों में शिव, विष्णु, बुद्ध, महावीर आदि की मूर्तियाँ आदर्श को स्थूल रूप देने के उद्देश्य से स्थापित की गयी है। सूक्ष्म रूप में बिना दृश्य वस्तु के, जो इनका प्रतिरूप है, कल्पना करने पर आदर्श अस्पष्ट रह जाता है। उदाहरण के लिए जैन धर्म में 24 तीर्थंकरों का पूजन मूर्ति रूप में इस कारण प्रचलित नहीं है कि यह मूर्तियाँ ईश्वर के रूप में है, क्योंकि जैनधर्म में ईश्वर का अस्तित्व ही स्वीकार नहीं किया है। वस्तुतः वे आदर्श की प्रतीक हैं, जहाँ पहुँचना व्यक्ति का लक्ष्य होता है। स्थूल प्रतीक की यही महत्ता होती है।
आधुनिक मनोवैज्ञानिकों का दृढ़ मत है कि मूर्ति पूजन की प्रथा इसलिए चली कि इनसे प्रेरणा मिलती है और उस प्रेरणा के साथ शक्ति और विश्वास मिलती है और उस प्रेरणा के साथ शक्ति और विश्वास छिपा रहता है। जिस किसी अवतार, देवता या महापुरुष की साधक पूजा करता है, उसके साथ उसके जीवन की महानताएँ या तत्सम्बन्धी कथायें अवश्य जुड़ी रहती हैं। प्रतिमा के सामने आते ही वह सभी दृश्य नेत्रों के सामने तैरने लगते हैं और साधक उस महान विभूति से अपने का संबंधित करके उसकी महानताओं और विशेषताओं से अपने मन मन्दिर को जगमगाता अनुभव करता है। तादात्म्य हो जाने पर अपनी अन्तरात्मा को वह परमात्म चेतना से एकाकार कर देता है। साधक का तद्रूप बनना उसकी भावना पर निर्भर करता है। मूर्तिपूजा से जीवन निर्माण की सूक्ष्म प्रक्रिया आरंभ होती है, जो साधक को उच्च कक्षा में ले जाती है। इस तरह प्रतीक पूजा लाभप्रद ही नहीं, बुद्धि सुलभ भी हैं।

|| जय श्री राम ||

Sunday, 22 July 2018

सामूहिक_जनेऊ_की_धज्जियाँ -१

#सामूहिक_जनेऊ_की_धज्जियाँ -१

जहाँ  जहाँ ब्राह्मणों ने वैदिक धर्म प्रतिष्ठित कर सिद्धांत की रक्षा की हैं वहाँ वहाँ आरंभ से आजतक सद्धर्मीयों ने अनुसरना आचरना सीखा हैं, परंतु जहाँ जहाँ इनसे ही पाखंडाचार हो रहे हैं या अपनेधर्मकर्म से हाथ धो बैठे हैं, वहाँ वहाँ पतित-संसर्गादिजन्यदोषों के कारण इन अविवेकीयों द्वारा सब कुछ नष्ट भ्रष्ट हो रहा हैं, हमें लोग सुनाने लगते हैं कि आप ब्राह्मणों की  निंदा क्यों करतें हो ? जो स्वार्थोपजीवन में लगे हैं उसे तो केवल बड़बड़ाना ही होता हैं, परंतु हमारे वेदादिशास्त्र,हमारे ऋषिमुनियों, पूर्वाचार्यों के सनातन सिद्धांत,तथा उनके पुरे जीवन समग्रसृष्टि के समुत्कर्ष में दिए महत्व के योगदान व प्रयत्नों का धर्मवाहकों द्वारा ही  मूल्यत्वों का हनन होतें हुएँ हम नहीं दैख सकतें, और ना ही कोई सत्यप्रतिष्ठित अपने दायित्वों का उचित वहन करनेवालें धर्माचार्य दैख सकैंगे -- ब्राह्मणों को पतित होने से रोकना,उनके अदृष्ट पापमूलक फल से बचाना, इसे निंदा नहीं भूले हुएँ को वापसी लाना कहतें हैं। आप चाहतें हैं कि देश में भलीप्रकार सब अपने अपने धर्मकर्म में प्रतिष्ठित हो तो पहिले #ब्राह्मणों को  निष्ठासे,संयम से, संकोच आदि से कष्ट सहन करके भी अपने अपने धर्मकर्म में प्रतिष्ठित होना होगा केवल अर्थवादी मत बनें । अरे ! आप आद्यवर्ण अपनी स्थिति पर नहीं और दूसरें को क्या उनकी यथास्थिति धर्मकर्म सेवन करना सिखायेंगे ?

ब्राह्मण पृथ्विपर श्रेष्ठ माना गया हैं, क्योंकि वह सभी प्राणियों के धर्मसमूह  की रक्षा करने में समर्थ होता हैं ---> "(१/९९ मनुस्मृति कुल्लुक -- यस्माद्ब्राह्मणो जायमानः #पृथिव्यामधि_उपरि_भवति_श्रेष्ठ_इत्यर्थः । सर्वभूतानां धर्मसमूह रक्षायै प्रभुः। ब्राह्मणोपदिष्टत्वात् सर्वधर्माणाम्।।)"

ब्राह्मणत्व की रक्षा से ही वैदिकधर्म सुरक्षित होगा, क्योंकि वर्णाश्रम के भेद उसीके अधीन हैं --> #ब्राह्मणत्वस्य_हि_रक्षणेन_रक्षितः_स्यात् - #वैदिको_धर्मः_तदधीनत्वात्_वर्णाश्रमभेदानाम् ।। आदि शंकराचार्यः।।

उपर मनुस्मृत्यनुसार कहा हुआ श्रेष्ठ तात्पर्य - पृथिवीपर "वर्णानां ब्राह्मणो गुरुः"  ब्राह्मण पुरुष जो जो कर्म करता हैं , दूसरे लोग -तात्पर्य क्षत्रिय, वैश्य,शूद्र, प्रजाति आदि,,,, उसके अनुयायी होकर उस उस कर्म का ही आचरण किया करतें हैं। तथा वह ब्राह्मण जिस जिस लौकिक(पाखंडाचारादि)या वैदिक प्रथाको प्रमाणिक मानता हैं, लोग उसी के अनुसार ही चलतें हैं --- "" (यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवतरो जनः। स यत् प्रमाणं कुरुते लोकस्तनु वर्तते।।गीता ३/२१।।)"

रागद्वेष से रहित हमारे आद्योपान्त नारायणादि से आरंभकर  ऋषि-मुनि, पूर्वाचार्यों आदि सज्जनों द्वारा हमेशा पालन किया गया वेद,मन्वादिस्मृति और अनेकानेक शास्त्रप्रमाणित जो धर्म हैं उसे  "(विद्वद्भिर्वेदविद्भिः सद्भिर्धार्मिकैः।।) वैदिकादि विद्वान् और सद्धर्मीसज्जनों ! पूर्णरूपेण समजिये --

" (विद्वद्भिः सेवितः सद्भिर्नित्यमद्वेषरागिभिः। हृदयेनाभ्यनुज्ञातो यो धर्मस्तं निबोधत।। मनुः २/१।।)"

नीति में निपुण मनुष्य चाहे निंदा करें या प्रशंसा, लक्ष्मी आयें या इच्छानुसार चली जायें, आज ही मृत्यु हो जाए या युगों के बाद हो परन्तु धैर्यवान मनुष्य कभी भी न्याय के मार्ग से अपने कदम नहीं हटाते हैं  ---

निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु
                   लक्ष्मीः स्थिरा भवतु गच्छतु वा यथेष्टम्।
अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा
             न्याय्यात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः॥

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एक ही दिन में और मंडप में भिन्न भिन्न वेद-शाखा के कुमारों जनेऊ मान्य नहीं हैं और  तो एकमातृगर्भ से उत्पन्न दो बालकों का एक ही दिन में एक ही मंडप में , तथा अनेक भी कुमार एक ही शाखा के हो तो भी एकमंडप में कोई भी संस्कार नहीं हो सकतें -- कात्यायनऋषि का वचन हैं कि--  दिन का भेद न हो अथवा एक मण्डप में करने से अधम माना हैं संस्कारजन्य फल का नाश होता हैं --> "( अभेदे तु विनाशः स्यान्न कुर्यादेक मण्डपे।। ज्योतिर्निबन्धे कात्यायन।।)" दो शुभ कार्य एक ही घर में एक साथ नहीं करना अशुभ हैं। परन्तु आवश्यक हो तो नौ दिनों के अन्तर के बाद उचित मुर्हूत में करना चाहिये। यदि उससे भी अधिक आवश्यकता हो तो द्वारभेद और आचार्यभेद रखकर करना चाहिये -- यहाँ द्वारभेद का तात्पर्य गृहके मांगलिककार्यों में और मंडपद्वार का भी ग्रहण हैं, साथ में आचार्य भी भिन्न हैं - "( द्विशोभनं त्वेकगृहे त्वनिष्टं शुभं तु पश्चान्नभिर्दिनैश्च। आवश्यकं शोभनमुत्सवो वा द्वारेऽथ वाचार्यविभेदतः शुभः।। वसिष्ठः।।)"
एक मंडप का सामान्य माप कम से कम ८ हस्त का होता हैं, मण्डपान्तरकरण भूपरित्याग के विषय में "कुण्डमंडपसिद्धि" में कहा हैं कि जीतना विस्तार मण्डप का हो उतने हाथ की जगह को छोड़कर दूसरा मंडप करना चाहिये - "( मध्ये भूमिं मण्डपेनोन्मिताञ्च त्यक्त्वा कुर्यान्मण्डपश्चेद् द्वितीयः।। कुण्ड मण्डप सिद्धि ३८/१४।।  प्रथममण्डपमानमितं स्थलमन्तरा त्यक्त्वा द्वितीयं मण्डपं कुर्यात्।।)" जगह को छोडकर दूसरा मंडप क्यों बनाना चाहिये ? क्योकिं  आर्षग्रन्थों में कहीं भी बहुयजमानकर्तृक यज्ञ,जनेऊ,विवाह आदि नहीं हैं जहाँ आर्ष ग्रन्थों में कहा हैं वह एकयजमानकर्तृक प्रयोग ही मान्य हैं इसलिये दूसरे यजमान को , या दूसरे बटु को दूसरे मंडप में बीठाया जाय जिससे दूसरे आचार्य द्वारा कार्य सम्पादित हो सकें । यदि दूसरे मंडप को बनाते समय उचित अन्तरा न रखी जाय तो क्या होगा प्रथममण्डप के स्तंभादिवेध दूसरे मंडपपर पडैगे जो दूषित हैं ---> "( मार्गकोणतरुकूपविभ्रम #स्तम्भ विद्धदरमिष्टविनाशकृत्।। अन्तरं यदि तु भित्तिमार्गयोरुच्छ्रयाद् #द्विगुणभूर्न दुष्यति।। कुण्डतत्त्वप्रदीप।।)"

(२) --सामूहिक-जनेऊ का सबसे बड़ा दोष शाखारंड दोष -->
सामूहिक जनेऊ के आयोजकों किसी भी यजमान को "गोत्र वेद और शाखा यजमान की क्या हैं ? "  वह पूछतें ही नहीं । यदि पूछ भी लिया तो भिन्नशाखाओं का शाखामंत्रविधा भिन्न होने के कारण सभी का अपनी अपनी वेद-शाखा में जनेऊ होना चाहिये । परंतु सामूहिक-जनेऊ में ऐसा सम्भव नहीं हो सकता और नाही कोई करतें हैं आचार्य जो शाखा का हो उसके समान कर्म करना कहा नहीं हैं , परंतु यजमान की अपनी स्वशाखा के गृह्यसूत्रों के अनुसार कर्म शास्त्रसम्मत हैं। परशाखीय जनेऊ शाखारंडदोष युक्त हैं और परशाखा का हुए जनेऊ से कुमार को द्विजत्व की प्राप्ति नहीं होती जबतक वह अपनी स्वशाखा का पुनरुपनयन न करवा ले।
"(यच्छाखीयैस्तु संस्कारैः संस्कृतो ब्राह्मणो भवेत्।। तच्छाखाध्ययनं कार्यमन्यथा पतितो भवेत्।। वसिष्ठ।।" ///// यो न मन्त्रैः स्वशाखोक्तैः संस्कृतोनाधिकारिणा नासौ द्विजत्वमाप्नोति पुनःसंस्करणं विना।। ज्योतिर्निबंध।। //// अक्रिया त्रिविधा प्रोक्ता विद्वद्भिः कर्मकारिणाम्। अक्रिया च परोक्ता च तृतीया चायथाक्रिया ।। छांदोग्य परिशिष्ट कात्यायन।।)"

अति महत्व का अंग जो हैं कर्मप्रारंभ का " *नान्दीश्राद्धं विवाहादौ* -- विवाह आदि से समस्त संस्कारोमें में ,,,,,, वह सामूहिक में पूर्णविधा से किस तरह से संभव हैं ? 

क्योकि किसी  यजमान के पिता  किसी के पितामह तो किसी की माता तो किसी के मातामह आदि जीवित नहीं होतें। एक मुख्यरूप से किसी यजमानमुखीया के द्वारा  किया हुआ नान्दीश्राद्ध से सबके नान्दीश्राद्ध करने के समान नहीं होता । दूसरे के पितरों क्या नान्दीमुखाधिकारी नहीं ?-यह क्रिया लोप करतें हैं सामूहिक-जनेऊ में।

जिस कुमार के पिता ने विवाह समय अपना जनेऊ करवाया हो और प्रजोत्पत्ति से उत्पन्न इस व्रात्यकुमार तथा व्रात्य हुएँ पिता का भी सामूहिकोपनयन में जनेऊ कर देतें हैं बिना दौनों के प्रायश्चित्त और पिता के पुनरुपनयन के बिना।

आजके वर्तमान को दैखते हुएँ -->

किसी भी ब्राह्मणकुमार के अपने भ्रष्ट हुए जनेऊ के कारणों से पतित-पिता स्वयं को पहिले सर्वप्रायश्चित्त करवाकर सार्धाब्दप्रायश्चित्त प्रत्याम्नाय गायत्रीमंत्र से 1500 आहुति तिलकी दैनी चाहिये , बाद में पिता का स्वशाखीय पुनरुपनयन करवाके ही वह अपने पुत्र का उपनयन करवाने में अधिकारी बनता हैं ।

सामूहिक संस्कारों अथवा कहीं कहीं तो -- अतिक्रान्त हुए संस्कारों का  लोपजनित प्रायश्चित्त आपके भी नहीं करतें केवल जल छूड़वा देते हैं, और क्रियान्वित करने का कोई उपदेश नहीं -- देखिये "आश्वालयन जी के वचन ---> जो शास्त्रविधा के अनुसार काल और क्रम से संस्कार नहीं हुए वें कालातिक्रम संस्कारों के लिये " विट्"नामक अग्नि की स्थापना करकें घृत के संस्कार(यथा आज्यस्थाली में कुश रखकर कुशपर घृत गिरकार होम करने के लिये घृत निकाला जाय, बाद में कुशों को निकालकर घृत की आज्यस्थाली को स्थापित की हुईं अग्निपर तपाया जाय, निर्मल और गरम घृत हो जाये तब - कुश के तीन के को जलाकर  विधा से घृत की आसपास गोल घूमाकर जलता हुआ तिनका अग्नि में वापस डाला जाय, बाद में स्रुवे का संस्कार यथाविधि से होता हैं, और आज्यस्थाली को अग्निपर से पूर्व की दिशा में से निकालतें हुए उत्तरी दिशा में कुशों पर रखकर दोकुश पवित्रों से घृत का उत्पवन करकें शोधन किया जाय यह घृत के संस्कार हैं।)" इस प्रकार आज्य के संस्कार करने के बाद "जितने संस्कारों का लोप हुआ तद्गुणित " व्याहृतिमंत्र" से पृथक् पृथक् आहुति दी जाय - माध्यंदिनीशाखा में अधिक दूसरे मन्त्र हैं तदनुसार एकैक आहुती दी जाय । बाद में होता हैं कालातिक्रम संस्कारों का  प्रायश्चित्त उपदेश - गर्भाधान, पुंसवन,सीमंत,जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण(सामवेद में चन्द्रदर्शन)", अन्नप्राशन के लोप प्रायश्चित्त हेतु एक एक के पृथक् तप्तकृच्छ्र प्रायश्चित्त यदि मृत्यु संबन्धित आशौचादि के कारण संस्कार न हुए हो तो मूलसंख्या का प्रायश्चित्त परंतु आलस प्रमाद के कारण न करने के कारण वही प्रायश्चित दो-दो गुने करने चाहिये। अथवा वैकल्पिक सरल प्रत्याम्नाय अमुक संख्या में गायत्रीजप होम आदि और इसी प्रकार से चूडाकरण के अतिक्रांत के लिये अर्धकृच्छ्र प्रमादवशात् दोगुना अर्थात् सम्पूर्ण कृच्छ्र(प्राजापत्य)प्रायश्चित होता हैं -

"आरभ्याधानमाचौलात्कालातीते तु कर्मणाम्। व्याहृत्याज्यं सुसंस्कृत्य हुत्वा कर्म यथाक्रमम् ( ऐकैकसंस्कारमुद्दिश्य व्याहृतिभिः पृथक् पृथक्)। एतेष्वेकैकलोपेऽपि पादकृच्छ्रं समाचरेत्। चूडायामर्धकृच्छ्रं स्यादापदि त्वेवमीरितम्( आपत्ति-- मृताशौचादि आब्दिकशौचादि विषय)। अनापदि तु सर्वत्र द्विगुणं द्विगुणं चरेत्।। भगवानाश्वालयन।।

कात्यायनोपि माध्यंदिनीशाखायाम्  - "लुप्ते कर्मणि सर्वत्र प्रायश्चित्तं विधीयते। प्रायश्चित्त कृते पश्चाल्लुप्तं कर्म समाचरेत्। तत्र अनादिष्टहोमः-- " त्वंनः, सत्वंनः, इत्याभ्यामिमं मेत्येकया ऋचा। येते शतमयाश्चाभ्यामुदुत्तममृचाहुतीः। हुत्वा पृथक् पृथक्पादमर्धं चौले समाचरेत्।। स्त्रीणामप्येव स्याज्जाताद्याऽमन्त्रिका क्रिया।।)"
ये कोई नहीं करवातें सामूहिकोपनयन में।

बाद में उपनयन के आचार्य को जबतक उपनयन की सम्पूर्णविधा पूर्ण नहीं होती तबतक उपवासी रहना होता हैं क्षीरान्न का भोजन किये हुए बटु को उपवासी आचार्य उपनयन प्रदान करने का अधिकारी होता हैं  - "( भुक्तायैवसुतामुपोषित नरो दद्याच्च सावित्रिका //// मुर्हूतमार्तंड।।)" ये अब उपवासी रहते हैं कि नहीं वे ही जाने।

और अधिक उपनेतृत्वाधिकारी पिता या उत्तराधिकारी जनेऊ संस्कार करवाने के अधिकार रूप तीनकृच्छ्रप्रायश्चित्त, बटु के अभक्ष्यादि भोजन, अनाचार और मिथ्यासंभाषण आदि के प्रायश्चित्त हेतु - तीनकृच्छ्र तथा आचार्य को गायत्रीप्रदान अधिकारत्व सिद्धि के लिये १२००० गायत्री जप करना चाहिये --- सामूहिक में एक एक बटु के लिये कितने गुने जप करतें हैं स्वयं-आचार्य ? यह प्रश्न हैं-->

"(कृच्छ्रत्रयं चोपनेता त्रीन्कृच्छ्रांश्च बटुश्चरेत्। वृद्धविष्णुः।। आचार्यस्य विशेष उच्यते -- सावित्रीमभ्यसेदग्निं पवित्राणि च संस्मरन्। सहस्रं द्वादशाख्यं च सावित्रीं च जपेद्बुधः।। स्वाधिकारार्थमेवास्याः प्रधानार्थं हि तत् स्मृतम्।।)"

बहुतों का पुनर्वसु में तथा अपराह्णकाल में, गलग्रहमें तथा दुर्मूर्हूतों जैसे कि दक्षिणायन में जनेऊ होता हैं  । जब कि ब्राह्मण को तो उत्तरायण के सूर्य का ही मुख्यकाल हैं उसमें भी ब्राह्मण का वसन्तकाल ही मुख्य हैं --- > "(वसन्ते ब्राह्मणमुपनयीत, ग्रीष्मे राजन्यं, शरदि वैश्यम् इत्यापस्तंबः।।" मीनमेषौ रविर्याद्वसन्तस्तावदिष्यते।।)"

जो मुर्हूत के बिना दुर्मूर्हूतों में जनेऊ करता हैं उनका भी तो पुनरुपनयन कहा हैं।

शाखेश का बल नहीं होगा तो क्या होगा ? श्रृतिविधि और स्मृति में कहे संस्कारों के काम्यफल तथा कर्म ही निष्फल हो जायेगे --- > तस्यविचारः श्रीपतिराह  "( शाखाधिपे बलिनि केन्द्रगतेऽथवास्य वारेपि चोपनयनं गदितं द्विजानाम्।
*नीचस्थिते रिपुगृहे च पराजिते च जीवे-भृगौ श्रृतिविधिः स्मृतिकर्महीनः।।)*" क्या एक ही दिन में सभी के शाखेश बालक की राशि के अनुसार केन्द्रवा त्रिकोण में हो सकतें हैं ? नहीं।

सर्वकर्मेषु स्वशाखीय - आचार्यविचार - "( वेदैकनिष्ठं धर्मज्ञं कुलिनं श्रोत्रियं शुचिम्। स्वशाखाढ्यमनालस्यं विप्रं कर्तारमीप्सति।।व्यासः।।)"

जनेऊ का काल अपराह्ण से पहिले हैं -- जनेऊप्रदान तक के कर्म अपराह्ण से पहिले हो ही जाने चाहिये नहीं तो अपराह्ण में किये हुए जनेऊ का पुनः उपनयन अनिवार्य हैं..

(1) दिन का जनेऊ (जन्मपूर्व के गर्भाधान आदि चूडाकरण संस्कार जिसके विधिवत् उचित कालमें हो चूके हो तो) होमवेदिका तीन रहेगी - 1-ग्रहमख(वरदनामाग्नि) की और 2 जनेऊ(समुद्भवनामाग्नि) की
(3) वेदारंभ (समुद्भवनामाग्नि)

(2)दोदिन का जनेऊ -- > (जिस मात-पिता ने  उचित काल में गर्भाधान,पुंसवन,सीमन्तोन्नयन ---ये तीन बैजिक-गार्भिक और स्त्रीसंस्कार के संस्कारों तथा कुमार के जन्म के बाद - जातकर्म,नामकरण,निष्क्रमण, अन्नप्राशन,चूडाकरण+कर्णवेध -- ये बैजिक-गार्भिकदोष परिहार और काम्यपूर्ति के संस्कारों को शास्त्रोक्त-विधिवत् न किये हुए हो तो - 6 होमवेदी रहेगी

पूर्वदिन (3)होमवेदी
1- ग्रहमख
2- अतिक्रान्तसंस्कार अनादिष्ट प्रायश्चित्त (विटनामाग्नि) होम के बाद अतिक्रान्त संस्कारों के लिये प्रायश्चित्तोपदेश
3- अन्नप्राशन(शुचिनामाग्नि)
4-चूडाकरण (सभ्यनामाग्नि)
दूसरे दिन -- 5- जनेऊ(समुद्भवनामाग्नि)
6-वेदारंभ (समुद्भवनामाग्नि)

3--  (दो दिन का जनेऊ)वर्तमानकालिक पतित पिता के लिये (जो जनेऊ भ्रष्ट होकर द्विजत्व से पतित हुएँ हो - वे दोषों को आचरने के कारण) होमवेदीका 8 रहेगी

पूर्वदिन में कही हुइ - तीन होमवेदीका के अतिरिक्त 1 अधिक -- पिता के सार्द्धाब्दिक प्रायश्चित्त प्रत्याम्नाय 1500गायत्रीमंत्र से तिलहोम -(वीटनामाग्नि)

दूसरे दिन दूसरी वेदीपर (उचित शुभलग्नवेला)में पिता का पुनरुपनयन और बाद में

बालक के -- उपनयन और वेदारंभ

ऋग्वेदीयों को जनेऊ के दिन वेदारंभ की प्राप्ति नहीं हैं...

वेदारंभ और गायत्रीप्रदान मंडप में  अग्निके उत्तरीभाग में  एकांत में जहाँ किसी का आवागमन निषेध हो और कोई सुन न पाय ऐस तरह से होता हैं.. इसलिये भी एकमंडप में जनेऊ बाध्य हैं...

कितनेक विद्वान् जनेऊ के दिन *केशान्त और समावर्तन* करवातें हैं यह बिलकुल शास्त्रीयबाध्य दोष हैं ---
जब कि स्वशाखीय वेद वा समस्तवेदों का सम्पूर्ण अध्ययन के बाद इसका निश्चित काल सभी वेदशाखा में गृह्यसूत्रेणचोदितः।
*"(षोडशवर्षस्य केशान्तः।। पारस्कर गृ० २काण्ड/ १कण्डिका/३सूत्र।।* )"

*(वेदं समाप्य स्नायात् !! पारस्कर-गृह्यसूत्र 2काण्ड /6कण्डिका /1सूत्र !!)*

जनेऊ के बाद कितनेक बटुओं को घोड़सवारी,टोपी,पाघ, शुट,बूट ,छत्र आदि धरतें हैं यह ब्रह्मचारी के धर्म से विपरित हैं।।।

जनेऊ बाजार की बिक्राऊ पहनाते हैं, जो बिलकुल मान्य नहीं -- अनध्याय, व्यभिचारिणी,लक्कडहारा, बीकाऊ और व्रात्यों ने बनाया हुआ जनेऊ धारकके सभी धर्मकर्मों को निष्फल कर देता हैं। किसी किसी जनेऊ में तो नवतंतुओं भी नहीं होतें , और स्थूल अथवा कुमार के कंधेसे नाभितक से विपरित छोटा,लंबा,मोटी,पतली - जनेऊ होती हैं वह भी दोष हैं। आचार्य को स्वयं को बटु के हाथ के माप के अनुसार  अनध्याय के दिनों को छोड़कर जनेऊ निर्मित हुई हो वह पहनाई जाती हैं --->
"(पृष्ठदेशे च नाभ्यां च धृतिं यद्विन्दते कटिम्। तद्धार्यमुपवीतं स्यान्नातिलम्बं न चोच्छ्रितम्।।कात्यायन।।

नाभेरूर्ध्वमनायुष्यंमधोनाभेस्तपःक्षयः। तस्मान्नाभिसमं कुर्यादुपवीतं विचक्षणः।। वसिष्ठः।।

अत्यन्त छोटा आयुका, अधिक बड़ा तप का, अधिक मोटा यश का और अधिक पतला धन का नाश करता हैं।

"आयुर्हरत्यति ह्रस्वमतिदीर्घं तपोहरम्। यशोहरत्यतिस्थूलमतिसूक्ष्मं धनापहम्।। वीरमित्रोदय।।)"

(४) एकवेदी पर जनेऊ के होम, तथा गर्भाधानादि अतिक्रान्त संस्कारों का होम संभव नहीं, क्योंकि सभी कर्म के भिन्न अग्नि हैं " अतिक्रान्त प्रायश्चित्त का विट् नामक, अन्नप्राशन का शुची, चूडाकरण का सभ्य, जनेऊ का समुद्भव आदि विभिन्ननाम हैं - जो समयोचित क्रम में संस्कार करवातें हैं - उनको सभी संस्कारों की भिन्न भिन्न होमवेदिका और भिन्न भिन्न संस्कारोचित अग्नि के नाम से पूजित अग्नि में संस्करांगहोम होता हैं- जैसे की गर्भाधान में मारुतनामक, पुंसवन में पवमाननामक, सीमन्तोन्नयन में मङ्गलनामक, जातकर्म में प्रबलनामक, नामकरण में पार्थिवनामक, अन्नप्राशन में शुचिनामक, चूडाकरण(चौल- शिखा रखने के संस्कार)में सभ्यनामक, जनेऊ व वेदारंभ में समुद्भवनामक -- भिन्न अग्नि कही हैं --- "("(अग्निस्तुमारुतो नाम गर्भाधानेविधीयते  । ततः पुंसवने ज्ञेयः पवमानस्तथैव च।। सीमन्ते मङ्गलो नाम प्रबलो जातकर्मणि। नाम्नि वै पार्थिवो ह्यग्निः प्राशने तु शुचिः स्मृतः।। सभ्यनामा तु चूडायां व्रतादेशे समुद्भवः।।//// ज्ञात्वैवमग्निनामानि गृह्यकर्म समाचरेत्। अविदित्वा तु यो ह्यग्निं होमयेदविचक्षणः।। न हुतं न च संस्कारों न तु यज्ञफलं भवेत्। परशुराममहारुद्रपद्धतौ।।)"

इस प्रकार से  होम-वेदिका भी अलग होनी चाहिये क्योंकि होम के *वैकल्पिकपदार्थावधारण भिन्न हैं*--- जो पदार्थ जिस होम में उपयुक्त हैं वह वहाँ कि वेदिका में ही प्रयोजनीय हैं अन्य में नहीं, *अन्वाधान भी भिन्न हैं* जिस होम में जितने मंत्र आदि की आहुति प्रदान करना आवश्यक हो उतना ही अन्वाधान एकवेदीका के अग्नि में होता हैं। मिश्र अन्वाधान नहीं होता। और *कुशकण्डिका* भी वैकल्पिकपदार्थों तथा उचित संस्कार की विधा को ध्यान में रखकर करने का विधान हैं।

जैसे चूडाकरण में उपयुक्त एक क्षुर दूसरे के लिये उपयुक्त नहीं हैं।  एक अन्नप्राशन के चरु दूसरी वेदिका में होम के लिये उपयुक्त नहीं। एक वेदिका के लिए कुशकंडिका में संस्कृत किया हुआ आज्य दूसरी वेदिका के होम में उपयुक्त नहीं " शेष जो आज्य आदि रहेगा वह तो प्रायश्चित्त आहुतियों अथवा स्विष्टकृत में ही उपयोग हो जाता हैं । ये सभी सामूहिकपक्षधर ये तीनों क्रियाओं को भलीभाँती नहीं जानते। अथवा जानते भी है तो यशबाहुल्य का मोह के कारण एक दूजे की पोल छूपा लेतें हैं। अब समाज में इतना मिथ्यायश फैला रखा हैं कि उनका एक नाम समाजसुधारकर समाजीयों में मिथ्यायश को प्राप्त हो गया हैं -
अब सुधरने जायेगे तो भी व्यथा होगी कि पहले आप करते थे वह पाखंड करते थे? समाज क्या कहेगा? दुविधा में फँस चुके हैं।
जैसे - "(साप के मुंह छछूंदर ।
न उबली जाए न निगली ।)"

#द्विजत्व_से_पतित होनें के कारणों से बचें -
#विशेष_ब्राह्मण !
(ऐसे कर्म न हो जिसके कारण द्विजाधिकार से पतित होना पड़े और वैदिक-यजन-याजन में अनधिकारी बन जाय तथा प्रायश्चित्त पूर्वक फिरसे पुनःसंस्कारविधि द्वारा जनेऊ-संस्कार करवाने की आवश्यकता हो जाय..)
(१)वसंतऋतु के बिना गलग्रह में जनेऊ-संस्कार हुआ हो,
(गलग्रह- वसंतऋतु के बिना कृष्णपक्ष की चतुर्थी,सप्तमी,अष्टमी,नवमी , त्रयोदशी, चतुर्दशी, अमावस और  शुक्लपक्ष की प्रतिपदा - ये तिथियाँ गलग्रह हैं)
(२) दिवस का तीसराभाग-अपराह्ण में हुआ जनेऊ-संस्कार
(३) पापराशि के नवांश में चन्द्रमा , शत्रूघर का चन्द्रमा, नीचराशि का चन्द्रमा, अनध्याय के दिन हुआ जनेऊ-संस्कार
(४) सातदिन निरंतर सन्ध्योपासना न करने पर
(५) लहसुन,गाजर, सलगम=बीट, प्याज खाने के कारण
(६) कुत्ती,ऊंटनी, मनुष्यस्त्री(माँ नहीं), हथिनी,घोडी,गधी, के दूध और मदिरा पीने के कारण
(७) मरने के बाद मनुष्य जीता आये तो
(८)प्रेतशय्या ग्रहण करनेपर
(९)संन्यासी पुनः गृहस्थ होने पर,
(१०)युरोप, बंगाल, विदेश भिन्नमाल,सौराष्ट्र, उज्जैन, दक्षिणमार्ग - इसमें कुछ तीर्थक्षेत्र में बिना(पैदल-विधिपूर्वक)यात्रा के जाने पर
(११) गधा,ऊंट,भैंसा, बैल, बकरा, मेढ़ा पर सवार होनेपर
(१२) अनजाने में विष्ठा,मूत्र, मदिरामिश्रित वस्तु खानेपर
(१३)कर्मनाशा(बीहार की नदी) के जल स्पर्श, करतोया-नदी(जिल्ला बोगरा,बंगाल में)को लाँघनेपर(नदी में स्नान करने पर नहीं), समुद्रलंघन करनेपर,
(१४) पिता आदि दशपैढ़ी तक के पितरों से भिन्न की संपूर्ण-मृत्तिक्रिया  करनेपर ब्रह्मचारी को
(१५) मुर्हूत के बिना तथा स्वशाखायुक्त जनेऊ-संस्कार न करवाने पर
(१६) मदीरा पीनेवाले के स्पर्श से किये हुए पात्र में खाने,पीने पर
(१७)अयाज्यों का याजन करवाने पर

अयाज्यों पर लेख लींक 👇
https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=2091509897746361&id=100006621126470

इन सब कारणों में भी #प्रायश्चित्तपूर्वक #पुनः_उपनयन होता हैं

(१)अपण्यविक्रय (ब्राह्मण को ही)
(२)निन्दितार्थोपजीवन
(३)निलीविक्रय
(४)मधु / मांस विक्रय (कुछ फूड़ पैकेट्स में मिलावट होती हैं)
(५) *रत्न विक्रय*
(६)धर्मशाला, तडागादि इष्टापूर्त-स्थान विक्रय
(७) गजहरण
(८)गृहोपकरण हरण
(९)शूद्रागमन (पतितवर्णसंकर षोडशविध शूद्रा) गमन
(१०) *विधवा गमन*
(११) वैश्यागमन
(१२) *मद्यपस्त्रीगमन(आजकल द्विजों की स्त्रीयाँ किट्टीपार्टी में पीती हैं तो उनके पति को)*
(१३) पुंसिमैथुन
(१४) महिषि हिरनी गमन
(१५) ब्रह्मचर्याश्रम में स्त्रीगमन
(१६) कारागृहवास
(१७) रोगनिवृत्तये मद्यपान, स्त्रीसत्न्यपान, लशुनादि अभक्ष्याभक्षण
(१८) दुष्टान्नभोजन
(१९) एकादशाहश्राद्धभोजन
(२०) सूतकान्नद्वय भोजन
(२१) त्रि पंचरात्रिर्वा पर्युषित भोजन
(२२) शूद्रभाण्डे भोजन
(२३) मृत्वत्सा गौआदि का पयःपान
(२४) मनुष्य, पक्ष्यादि मलमूत्र भक्षण
(२५) सूर्यचंद्र ग्रहणे भोजन
(२६) रजस्वलान्न भोजन
             { चतुर्वर्ग चिं० प्रा०खंड सारोद्धार}

👆इन सब कारणों में प्रायश्चित्त पूर्वक पुनःसंस्कारविधि से पुनर्यज्ञोपवीत करवाना चाहिये - अतः उपनीत-द्विजों को सावधानी रखनी चाहिये कि हमारा कृतजनेऊ व्यर्थ न हो और द्विजत्वाधिकार के वैदिक-यजनादि के अधिकार से च्युत न हो...

पूजा आदि में सिर नहीं ढंका चाहिए

शास्त्र प्रमाण:- उष्णीषो कञ्चुकी चात्र मुक्तकेशी गलावृतः ।  प्रलपन् कम्पनश्चैव तत्कृतो निष्फलो जपः ॥ अर्थात् - पगड़ी पहनकर, कुर्ता पहनकर, नग...